संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरी माँ की तबियत जब बहुत खराब हो गयी थी तब पिताजी ने मुझे पास बिठा कर बता दिया था कि तुम्हारी माँ बीमार है, बहुत बीमार। मैं आठ-दस साल का था। जितना समझ सकता था, मैंने समझ लिया था। पिताजी मुझे अपने साथ अस्पताल भी ले जाते थे। उन्होंने बीमारी के दौरान मेरी माँ की बहुत सेवा की, पर उन्होंने मुझे भी बहुत उकसाया कि मैं भी माँ की सेवा करूं।
मैं उन दिनों माँ के साथ खूब रहा। माँ के साथ देर रात तक बैठता, सिर दबाता, दवाई देता और माँ से कहानियाँ सुनता।
माँ जब बीमार नहीं पड़ी थी, तब मैं स्कूल से आते ही खेलने भाग जाता। पर माँ की बीमारी के बाद मैंने स्कूल से आकर माँ के पास बैठना शुरू कर दिया। पिताजी ने मुझे समझाया था कि माँ के पास बैठोगे, तो माँ को अच्छा लगेगा, तुम्हें भी अच्छा लगेगा।
सचमुच मुझे बहुत अच्छा लगता था माँ के पास बैठना।
माँ के हजारों रिश्ते थे। माँ मुझसे उन रिश्तों को साझा करती थी। माँ बताती थी कि जिसके पास रिश्ते नहीं होते, वो अकेला हो जाता है। और अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सजा है।
अपनी बीमारी के साल भर बाद माँ संसार से चली गयी।
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मेरी एक परिचित की तबियत कुछ साल पहले खराब हो गयी थी। उन्होंने अपने दोनों बच्चों को अपनी बीमारी के विषय में कुछ नहीं बताया। घर में पैसों की कमी नहीं थी, इलाज चलता रहा। दोनों बच्चे इस बात से बेखबर रहे कि माँ को हुआ क्या है। माँ बीमार रही, बच्चे अपने संसार में मस्त रहे। पिता को यही लगता रहा कि बच्चों को बीमारी के विषय में क्या बताना। बच्चों से ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए।
एक दिन मेरी परिचित इस संसार से चली गयीं।
दोनों बच्चों की समझ में नहीं आया कि अचानक ये क्या हुआ।
बच्चे संसार की सारी चीजों का मतलब समझते थे, सिवाय रिश्तों के। उनके माँ-बाप ने उन्हें यह समझा दिया था कि यह कौन सी कार है, यह कौन सा फोन है, यह कौन सा कम्प्यूटर है। बच्चे सब समझ गए, सिवाय रिश्तों के। एक ही घर में रह कर भी बच्चे रिश्तों का पाठ नहीं पढ़ पाए।
कुछ दिनों बाद बच्चे बड़े हो गए। उनकी शादी भी हो गयी।
आज दोनों बच्चे आपस में भी साथ नहीं। दोनों के भीतर रिश्तों का पौधा खिला ही नहीं। पिछले दिनों मैं अपनी परिचित के एक बच्चे के घर गया था। बहुत आश्चर्य हुआ यह देख कर कि वो अकेला बिस्तर पर पड़ा था। मैंने पूछा कि क्या हुआ, तो उसने बताया कि दो दिनों से बुखार है।
“तुम्हारी पत्नी कहाँ है?”
“वो तो दफ्तर गयी हैं।”
“तुम अकेले पड़े हो?”
“हाँ, दवाएँ टेबल रखी हैं, खाना भी बना कर रखा है। पर खाने का मन नहीं करता।”
“क्यों?”
“पता नहीं, पर अकेला सा लगता है, संजय अंकल।”
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मुझे समझ में आया कि पिताजी ने माँ की बीमारी में क्यों मुझे माँ के साथ रहने के लिए उकसाया था। क्यों उन्होंने कहा था कि माँ की सेवा करो, तुम्हें अच्छा लगेगा। दरअसल पिताजी मेरे भीतर रिश्तों के फूल खिलने देना चाहते थे। वो जानते थे कि स्कूल-कॉलेज में जाकर मैं न्यूटन का सिद्धांत, सापेक्षता का सिद्धांत तो पढ़ लूंगा, पर रिश्तों का पाठ कहीं अगर पढ़ाया जाएगा, तो वो माँ की गोद है, बस।
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मैं उन माँ-बाप की सोच पर हैरान होता हूँ, जो अपने बच्चों से घर के सच को छुपाते हैं। जो घर परिवार के सुख-दुख को अपने बच्चों से इसलिए साझा नहीं करते, क्योंकि वे बच्चे हैं। याद रखिए, बच्चों को अगर घर से बचपन में ही नहीं जोड़ेंगे, उन्हें तकलीफ, बीमारी के विषय में नहीं बताएंगे, तो बच्चे बड़े होकर चाहे जितने बड़े अधिकारी बन जाएं, संपूर्ण मानव नहीं बन पाएंगे। वो कम्प्यूटर की भाषा तो समझ जाएंगे, पर रिश्तों की भाषा नहीं समझ पाएंगे।
जो रिश्तों की भाषा नहीं समझ पाएंगे, उनके पास सबकुछ होगा, पर वो तन्हा होंगे।
अपने बच्चों को जिन्दगी का पाठ पढ़ाइए। उनसे घर के सुख-दुख को साझा कीजिए। उन्हें बचपन से परिवार का अर्थ समझाइए। धन-संपति से अधिक जरूरी है कि आप अपने बच्चों के नाम रिश्तों की विरासत छोड़ कर जाएं।
जिन बच्चों को यह पाठ नहीं पढ़ाया जाता, वो गमले के पौधे बन कर रह जाते हैं।
(देश मंथन 16 फरवरी 2016)