रिश्तों को बचाने की जिम्मेदारी हमारी

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

बहुत साल पहले गाँव के मुकुंद चाचा की शादी में गया था। पूरा गाँव नाच रहा था। पूरा गाँव क्या, मैं भी नाच रहा था।

पूरा गाँव सज-धज कर बाराती बन कर उस गाँव से दूसरे गाँव गया था। दूसरे गाँव वालों ने बारातियों का स्वागत नमकीन भुजिया और नींबू के शर्बत से किया था।

फिर शादी हुई और सुबह लड़की विदा हुई। पूरा गाँव रो रहा था। पूरा गाँव क्या, दोनों गाँव के लोग रो रहे थे। मैं भी रो रहा था। 

मैं कई शादियों में गया हूँ। उन शादियों में भी गया हूँ, जहाँ कोल्ड ड्रिंक पीने को लेकर लड़के वाले और लड़की वालों में चिकचिक हो जाती है। उन शादियों में भी गया हूँ, जहाँ नॉनवेज खाने पर लोग इस तरह टूट पड़ते हैं, जैसे आज ही संसार से मुर्गी और मछलियों की आबादी सदा के लिए खत्म हो जायेगी। उन शादियों में भी गया हूँ, जहाँ लोग शर्त लगा कर रसगुल्ले के भगोने तक खा जाने के व्याकुल रहते हैं। 

शादी-ब्याह एक सामाजिक रस्म है। ये एक पारिवारिक खुशी का मौका है। शादी में दहेज न हो, जोर-जबरदस्ती न हो, लड़का और लड़की वालों के परिवार के बीच कटुता न हो, देख लेने और दिखा देने की भावना न हो, तो इससे बेहतर कोई दूसरा सामाजिक रस्म हो ही नहीं सकता और आखिर में अगर लड़की की विदाई वाला वो मार्मिक सीन भी न हो, तो मुझे किसी की शादी में जाने में परहेज नहीं, लेकिन हिंदुस्तानी शादी इससे बच नहीं पाती, इसलिए संजय सिन्हा ज्यादातर शादियों में जाना टाल देते हैं। 

पर भोपाल में होने वाली इस शादी में जाना मेरे लिए जरूरी हो गया था। 

हवाई जहाज में उड़ कर अफरा-तफरी में मैं शादी में शिरकत करने, अपनी उपस्थिति दर्ज कराने पहुँच ही गया। सुबह होटल में ठहरा, शाम को तैयार हो कर शादी में शामिल होने के लिए निकल पड़ा।

बहुत सोचा था कि शादी में ये रिश्तेदार मिलेंगे, वो रिश्तेदार मिलेंगे लेकिन बहुत से लोग नहीं आ पाये थे। सबके पास कोई न कोई व्यस्तता थी। किसी के सिर पर अचानक कोई मीटिंग आ गयी थी, किसी के घुटनों में दर्द ने दस्तक दे दी थी। किसी की नौकरी ही बदलने वाली थी, किसी की सास बीमार पड़ गयी थी। किसी को टिकट नहीं मिला, किसी को गर्मी में माइग्रेन का अटैक पड़ गया था। 

सौ रिश्तेदार, हजार मुश्किलें। जिस लड़के की शादी थी, उसके चाचा का पता नहीं। मामा आ नहीं पाये। मौसा की नौकरी पर बनी पड़ी थी। ताऊ जी की मीटिंग आ गयी। बुआ के बच्चों की परीक्षा चल रही थी। 

पर मैं पहुँच गया। मैं शादी में पहुँच गया। शाम को होटल से लड़की के घर के लिए बारात निकली। बस तय की गयी थी, होटल से लड़की के घर तक जाने के लिए। मैं बस में बैठ गया। फुल साइज की बस में कुल जमा दस लोग आये। 

बस चल पड़ी। आधे घंटे में लड़की वालों के दरवाजे पर पहुँची। बाहर ढोल वाले, बत्ती वाले मिले। ढम-ढम ढोल बजने लगा। ‘आज मेरे यार की शादी है…’ की धुन भी बजने लगी। मैं सोचता रहा कि चलो लड़के वाले के रिश्तेदारों के सामने कुछ मुश्किलें आ गयी होंगी, लड़की वालों के रिश्तेदार तो जुटे होंगे। थोड़ा नाच गाना हो जायेगा। लेकिन ये क्या?

पाँच लोग बाहर बारातियों के इंतजार में खड़े थे। हमारी उम्मीद बहाल थी। शादी के हॉल में कम से कम तीन सौ कुर्सियां लगी थीं। मुझे लगा अब लोग आयेंगे, अब लोग जुटेंगे। फिर लड़की की माँ ही लड़की को अपने साथ लेकर स्टेज पर पहुँची। जयमाल की रस्म हुयी। फोटोग्राफी हुयी। कैमरा मैन ने इस एंगल से, उस एंगल से तस्वीरें उतारीं। 

फिर मैंने खाना भी खा लिया। देर रात में शादी होनी थी, तो मैं वापस होटल चला आया। 

सारी रात सोचता रहा। 

जिस तरह हम खुद में व्यस्त होते चले जा रहे हैं, जिस तरह हम रिश्तों से दूर होते जा रहे हैं, उसमें वो दिन दूर नहीं जब शादी सामाजिक रस्म नहीं व्यक्तिगत रस्म भर बन कर रह जायेगी। जिस तरह हम खुद को अकेला करते जा रहे हैं, उसमें वो दिन दूर नहीं जब हमें अपने इस तरह के सामाजिक संबंधों को निभाने के लिए किराये पर लोग जुटाने पड़ेंगे। जिस तरह हम खुदगर्ज बनते जा रहे हैं, वैसे में हॉल में कुर्सियाँ होंगी, पतीले में पुलाव होगा, कड़ाही में जलेबियाँ तली जाती रहेंगी पर न उन कुर्सियों पर कोई बैठने वाला होगा, न कोई पुलाव और जलेबियाँ खाने वाला। 

बहुत पहले पढ़ा था कि आदमी आता अकेला है, जाता अकेला है, लेकिन जब तक संसार में रहता है, वो अपने को समाज में के बीच घिरा पाता है। पर जिस तरह से लोग समाज से कट रहे हैं, जल्दी ही स्कूलों में पढ़ाया जाने लगेगा की बहुत साल पहले आदमी के पास रिश्तों का ताना-बाना हुआ करता था। पहले लोगों के पास माँ-बाप के अलावा दादा, दादी, नाना, नानी, मौसी, बुआ, मामा, फूफा, मौसा, ननद, ननदोई, जीजा, साला, साली जैसे ढेरों रिश्ते हुआ करते थे, लेकिन ये बातें डॉयनासोर युग के कुछ समय बाद की ही हैं। जैसे डॉयनासोर धरती से विलुप्त हो गये वैसे ही रिश्ते भी विलुप्त हो गये। 

मैं तो यही कहूँगा कि चाहे जैसे हो अपने रिश्तों के बचाए रखिए। नहीं तो मेरा यकीन कीजिये कि आपके पास सारा वैभव होगा, कोई उसे देखने वाला नहीं होगा। 

अपने सभी खो रहे रिश्तों को आज ही दस्तक दीजिए। कुछ कहिए, कुछ सुनिए। आदमी एक सामाजिक जानवर होता है, चौथी कक्षा में पढ़े इस पाठ को याद कीजिए। 

सरकार की जिम्मेदारी काले हिरणों और सफेद बाघों को बचाए रखने की है। रिश्तों को बचाने की जिम्मेदारी तो हमारी और आपकी है।

(देश मंथन, 24 अप्रैल 2015)

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