संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
अपने एक रिश्तेदार की तबीयत खराब होने पर कल मुझे अस्पताल जाना पड़ा।
वार्ड में ढेर सारे मरीजों के बीच अचानक मेरी निगाह कोने में बैठे एक ऐसे मरीज की ओर गई, जो मुझे बहुत गौर से देख रहा था और पहचानने की कोशिश कर रहा था। कुछ मिनट मुझे लगे, लेकिन मैंने पहचान लिया। अरे! ये तो राहुल है, मेरे दोस्त अरविन्द का बेटा।
मैं राहुल की ओर लपका। लगा कि राहुल ने भी मुझे पहचान लिया है, पर उसे मेरा नाम याद नहीं था। उसने इतना समझ लिया था कि मैं उसके पापा का दोस्त हूँ।
मैं उसके करीब गया। मैंने उससे पूछा कि तुम राहुल हो न!
उसने हाँ, में सिर हिलाया।
“पहचाना मुझे?”
“जी, देखा-देखा लग रहा है। पर नाम नहीं याद आ रहा।”
“मैं संजय सिन्हा, तुम्हारे पापा का दोस्त।”
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अरविन्द और हम भोपाल में साथ कॉलेज में पढ़ते थे। मैं पत्रकारिता में चला आया, अरविन्द को मुंबई में किसी पब्लिक सेक्टर की कंपनी में बड़ी नौकरी मिल गई। हम और अरविन्द खूब मिलते। जब वो दिल्ली आता, तो मेरे साथ रुकता। हम साथ घूमते, फिल्म देखते। उन दिनों मैं दिल्ली में सुन्दर नगर इलाके में अकेला रहता था। न मेरी शादी हुई थी, न अरविन्द की।
मैं कभी उसके शहर जाता, तो उसके घर रुकता।
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पहले मेरी शादी हुई। फिर अरविन्द की शादी हुई। मैं उसकी शादी में गया था। खूब धूम-धाम से शादी हुई।
शादी के बाद भी अरविन्द जब कभी दिल्ली आता तो मुझसे मिलता था। उसकी शादी जिस लड़की से हुई थी, वो बहुत अच्छी थी। अरविन्द का बहुत ध्यान रखती। अपने घर का ध्यान रखती।
समय बीतता गया। हम दोनों दोस्त अपनी-अपनी नौकरी और परिवार में खोते चले गए।
मेरा बेटा हुआ, तो मैंने उसे फोन कर बताया। उसका बेटा हुआ, तो उसने भी फोन कर मुझे बताया। फिर कभी मैं उसके घर गया, तो उसके बेटे से मिला। अरविन्द भी दिल्ली आया, तो मेरे बेटे से मिला। इस तरह हमारी दोस्ती चलती रही।
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अरविन्द की पत्नी प्रियंका अपने बेटे राहुल के करियर को लेकर बहुत सजग थी। बच्चा पढ़ने में अच्छा था। मैं अक्सर सुनता था कि उसने फलाँ क्लास में टॉप किया, फलाँ परीक्षा में उसने बहुत अच्छे नंबर लाये। हमें बहुत खुशी होती थी।
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करीब 15 साल पुरानी बात है। मुझे खबर मिली की अरविन्द के पिता का निधन हो गया।
मैं भागा-भागा उस शहर में गया, जहाँ अरविन्द के पिता रहते थे। बहुत से लोग आए थे। अरविन्द बहुत दुखी था। जब सारा कुछ हो गया, तो मैंने अरविन्द से पूछा कि प्रियंका कैसी है? उसने बताया कि प्रियंका एकदम ठीक है। वो इस मौके पर यहाँ नहीं आ पाई है, क्योंकि अगले महीने राहुल की कोई परीक्षा है। वो उसकी पढ़ाई को लेकर लेकर बहुत सजग है।
“इसका मतलब राहुल भी नहीं आया?”
“नहीं। बताया न, महीने बाद ही उसकी परीक्षा है। प्रियंका नहीं चाहती थी कि राहुल का एकदिन भी खराब हो।”
“लेकिन यार, यहाँ सारे रिश्तेदार आये हैं। और ये कोई बर्थ डे पार्टी का समारोह नहीं। उसके दादा इस दुनिया में नहीं रहे, तुमने उसे ये भी बताया है कि नहीं?”
“ये तो उसे पता है।”
“फिर उसने आने के लिए जिद नहीं की?”
“नहीं। पिताजी से उसकी ज्यादा मुलाकात ही नहीं हुई। पिताजी क्या यहाँ मौजूद ज्यादातर रिश्तेदारों से उसकी मुलाकात नहीं हुई है। पिछले दिनों उसकी बुआ के बेटे की शादी हुई थी, तब भी वो बेचारा नहीं आ सका था। उस समय भी उसकी परीक्षा आ गयी थी। और तुम्हें तो पता ही है कि प्रियंका उसकी पढ़ाई और करियर को लेकर कितनी परेशान रहती है।”
मैं चुप था।
याद कर रहा था कि मेरे पिता की बड़ी माँ, यानी मेरी बड़ी दादी की 93 साल की उम्र में मृत्यु हुई थी।
दादी गाँव में थीं, हम शहर में पिता जी के साथ रहते थे। माँ-पिताजी बहुत उदास थे। उस दिन घर में खाना नहीं बना था। वो रात काटनी मुश्किल थी। पिताजी सुबह-सुबह बड़ी सी गाड़ी लेकर आये थे, हमारा पूरा परिवार गाँव चला गया था। दीदी उन दिनों मैट्रिक में पढ़ती थी। बोर्ड की परीक्षा महीने भर बाद होनी थी। दीदी ने शायद कहा था कि स्कूल में प्रैक्टिकल की कुछ क्लास होनी है। माँ ने कहा था कि दुनियादारी से बढ़ कर जीवन में और कोई प्रैक्टिकल नहीं। जो इस संसार से चली गयी हैं, वो तुम्हारे पिता की बड़ी माँ थीं। उनका कुछ अंश तुममें भी है। प्रैक्टिकल की क्लास के बारे में पिताजी टीचर से बात कर लेंगे। तुम चाहो तो एक दो किताबें साथ रख लो। पर चलना जरूर है।
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किसी शादी-ब्याह, मरनी, बच्चे के पैदा होने का समारोह हो, माँ हम सबको वहाँ जाने को उकसाती थी। वो मुझसे कहती थी कि हर समारोह के होने की वजह होती है। इन समारोहों में जाना, आदमी के सामाजिक होने का प्रमाण है। आदमी को ऐसे समारोहों में जा कर ही रिश्तों से जुड़ने का मौका मिलता है। वर्ना तुम अपनी बुआ की बेटी के बेटे से कब और कैसे मिलोगे। बच्चे कैसे जानेंगे कि उनका एक संजू मामा भी है।
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बहुत लंबी कहानी को छोटी कर रहा हूँ।
राहुल की मम्मी राहुल के करियर को लेकर बहुत सजग थी। बच्चा साल दर साल टॉप करता रहा। मैं कुछ साल पहले मुंबई गया था, तो अपने दोस्त अरविन्द के घर गया था। बहुत बड़ा घर। बड़ी सा गाड़ी। राहुल अपने कमरे में था। शायद कोई टीचर आया था, राहुल को ट्यूशन पढ़ा रहा था। वो तो मैंने काफी जिद की, तो राहुल कमरे के बाहर आया। मिनट भर को मिला। वही आखरी मुलाकात थी। उसी एक मुलाकात के बूते आज दिल्ली के इस अस्पताल में वो मुझे पहचानने की कोशिश कर रहा था।
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जिन दिनों मैं अमेरिका में था, मुझे पता चला था कि प्रियंका को लीवर सिरोसिस नामक बीमारी हो गयी थी। काफी इलाज हुआ, लेकिन प्रियंका नहीं बची। मैंने एक दो बार अरविन्द से फोन पर बात की। जो होना था, हो चुका था। मुझे फोन पर बात करते हुए कई दफा लगा कि अरविन्द काफी अकेला हो गया है। फिर उसने भी किसी से मिलना-जुलना बन्द कर दिया। समय के काल खंड पर हम भी दूर होते चले गये।
यही जीवन है।
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राहुल बहुत कमजोर लग रहा था। वो अकेला ही अस्पताल आया था।
मैंने उसे अपना परिचय दिया। वो पहचान गया। उसने बताया कि वो अभी गुड़गाँव में ही किसी मल्टीनेशनल कंपनी में है। उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और बढ़िया नौकरी में है। पापा मुंबई में ही हैं। बहुत अकेले हो गये हैं। मुंबई में तो आप जानते ही हैं कि आदमी किसी से बात नहीं करता।
“मुंबई में कोई किसी से बात नहीं करता?” ये मेरा सवाल था।
“जी अंकल।”
“नहीं बेटा, ये झूठ है। जब हम किसी से बात नहीं करना चाहते, तो कोई हमसे बात नहीं करता।”
राहुल मेरी ओर देखने लगा।
“तुम्हें तकलीफ क्या है?”
पता नहीं। बहुत दिनों से बुखार है। कमजोरी है। आज रिपोर्ट आयेगी तो पता चलेगा। डॉक्टर आज तय करेंगे कि एडमिट करना है कि नहीं। मेरी कंपनी ने मेरा इंश्योरेंस करा रखा है, सारा इलाज का खर्चा कवर हो जायेगा।
“और कोई रिश्तेदार?”
“पता नहीं। शायद मेरी बुआ का बेटा दिल्ली में ही है। पर मेरी उससे कभी मुलाकात नहीं हुई। अंकल मैं कभी घर के किसी फंक्शन में गया ही नहीं। पहले जो लोग मुंबई आते थे, हमारे घर भी आते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने आना छोड़ दिया। माँ के बाद तो हम बाप-बेटा बहुत दिन अकेले ही रहे। मुझे पिछले साल ही यहाँ नौकरी मिल गयी।
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मैं अपने किसी रिश्तेदार की तबीयत खराब होने पर उनसे मिलने अस्पताल आया था।
जब मेरी नौकरी दिल्ली में लगी थी, मेरे गाँव से कई लोग एम्स में इलाज के नाम पर यहाँ आते थे। मैंने न जाने कितनों को एम्स का पता बताया। कई तो बस किराये से लेकर टैक्सी किराया तक मुझ से लेकर गये। पर जो भी आये, माँ के शब्दों में कोई गाँव वाला बाबा था, कोई चाचा। आज भी गाँव जाता हूँ, तो बिना बताशे के कोई खाली पानी नहीं पीने को देता।
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मेरी तो छोड़िये, मेरे घर में किसी की तबीयत खराब हो जाती है, तो न जाने कितने फोन आने लगते हैं। अगर अस्पताल ही पहुँच गया, तो फिर ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि किसे मना करूँ, किसे बताऊँ। दिल्ली मैं नौकरी करने आया था। पैसे कम कमाये, रिश्ते खूब कमाये। मेरे पास रिश्तों का पूरा कारवाँ खड़ा है। मुझे नहीं याद कि कभी दाँत दिखाने भी मैं अस्पातल अकेला आया होऊँगा।
यहाँ मेरे दोस्त का बेटा राहुल अकेला अस्पताल में भर्ती होने चला आया है।
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उसकी बुआ का बेटा यहीं रहता है, पर उसे नहीं पता। मैं यहीं रहता हूँ, लेकिन मुझे नहीं पता।
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मुमकिन है राहुल की नौकरी बहुत अच्छी होगी। मुमकिन है उसे इसी उम्र में मुझसे ज्यादा सैलरी मिलने लगी होगी। वो अमेरिका, इंग्लैंड हर हफ्ते जाता होगा। पर आज वो बेहद अकेला था।
अस्पताल के उस कोने में वो अपनी बारी का इन्तजार करता हुआ, बहुत थका हुआ दिख रहा था।
मैंने राहुल से कह दिया है कि कोई जरूरत हो तो मुझे फोन करना।
इतना कह कर अस्पताल से निकल तो आया। लेकिन सारे रास्ते सोचता रहा कि आदमी इतना तन्हा कैसे जी सकता है?
जिनके पास रिश्ते नहीं, वो क्या बन जाएँगे तो क्या हो जायेगा? क्या करना मल्टीनेशनल कंपनी का? क्या करना अमेरिका और इंग्लैंड की यात्राओं का? क्या करना बहुत बड़े मकान का? क्या करना पैसों का? क्या करना उन पैसों का? जब आपके पास कोई है नहीं, तो किसी भी चीज का क्या करना?
(देश मंथन 21 जुलाई 2015)