खुद की इज्जत करने वाले दूसरों की भी इज्जत करते हैं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

कई लोगों को अपनी तारीफ अच्छी नहीं लगती। कई लोग अपनी तारीफ सुन कर थोड़ा झेंप जाते हैं, लेकिन मुझे अपनी तारीफ पसंद है। मैं बहुत से अच्छे काम इसलिए करता हूँ ताकि मुझे तारीफ मिले। 

अपनी तारीफ सुनने का मेरा शौक बचपन से है। जब मुहल्ले के बहुत-से बच्चे आपस में किसी बात पर झगड़ा करते, तब भी मैं खुद को उस झगड़े से बचाता था। मुझे पता था कि माँ को जब ये बात पता चलेगी कि उनके बेटे ने झगड़ा नहीं किया, तो वो मुझसे कहेगी, “ये तो मेरा राजा बेटा है।”

माँ से ‘राजा बेटा’ शब्द सुनने के लिए बहुत से ऐसे काम हैं, जो मैंने नहीं किये। 

स्कूल में भी मास्टर साहब जब मुझे ‘गुड ब्वॉय’ कहते थे, तो मैं बहुत खुश हो जाता था। मास्टर साहब से ‘गुड ब्वॉय’ सुनने के लिए भी मैंने बहुत से ऐसे काम नहीं किए, जिन्हें बाकी बच्चे कर लेते थे। जैसे, मैं अपने दोस्तों के साथ स्कूल से भाग कर उस सर्कस को देखने नहीं गया था, जिसे देखने के लिए मेरी क्लास के आधे से ज्यादा बच्चे क्लास से चुपचाप निकल गये थे। इतने बच्चे क्लास से चले गए थे कि मास्टर साहब ने उस दिन क्लास में कुछ पढ़ाया ही नहीं। पर मैं चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा। मेरे मन में चल तो रहा था कि सफेद-सफेद अप्सराएँ झूले पर इधर से उधर उछल रही होंगी। जोकर एक पहिए वाली साइकिल चला रहा होगा, बब्बर शेर रिंग मास्टर के इशारों पर नाच रहा होगा, हाथी सूंढ़ में आरती की थाली लेकर ‘ओम जय जगदीश हरे’ की धुन पर थिरक रहा होगा। लेकिन मैं गुड ब्वॉय था, इसलिए मैं स्कूल से भाग कर सर्कस देखने नहीं गया था। 

अगले दिन सारे बच्चे स्कूल में बस सर्कस सुंदरियों की बातें करते रहे, मैं मन ही मन खुद को समझाता रहा। फिर मास्टर साहब क्लास में आए, तो उन्होंने सबके सामने कहा कि संजू गुड ब्वॉय है। संजू का चेहरा खिल उठा, गुड ब्वॉय सुन कर। 

जब मैं कॉलेज में गया, तो ज्यादातर लड़के-लड़कियाँ क्लास छोड़ कर बिना घर में बताए सिनेमा देखने चले जाते, पिकनिक पर जाते। पर मैं नहीं जाता। मैं नहीं जाता था, क्योंकि मैं गुड ब्वॉय था। 

मेरे गुड ब्वॉय बने रहने की चाहत से मेरे भीतर खुद के लिए एक आदर का भाव पनपने लगा। मैं खुद को इज्जत देने लगा। 

गुड ब्वॉय बने रहने की चाहत ने मुझे स्कूल-कॉलेज में उन बच्चों से दूर रहने को उकसाया, जो अपने जेबखर्च के पैसे से सिगरेट खरीदने लगे थे। अच्छा बच्चा कहलाने की चाहत ने ही मुझे कॉलेज की उन पार्टियों से दूर रखा, जिसमें लोग शराब आदि पी कर खुद को धन्य समझते थे। मेरे कई साथी ये मानने लगे थे कि सिगरेट नहीं पीने वाले तो मर्द होते ही नहीं। तमाम बातों को सुनता रहा, लेकिन कॉलेज में मर्दानगी दिखाने की कभी कोशिश नहीं की।

ये सब मैंने नहीं किया और मुझे इन बातों का रत्ती भर अफसोस नहीं। मुझे खुशी होती है कि मैंने ऐसी आदतें नहीं पाल कर अपने बहुत से पैसे बचाये और अपने स्कूल, अपने घरवालों, अपने दफ्तर वालों की निगाह में गुड ब्वॉय रहा। 

अपने गुड ब्यॉय बने रहने की चाहत की वजह से ही मैंने ऐसी ढेरों गलतियाँ नहीं कीं, जिनको करने के लिए शायद कभी मेरा मन मचला भी हो। फिर मुझे लगा कि अगर मैंने ये वाली गलती कर दी तो मेरी इतने दिनों तक गुड ब्वाय बने रहने वाली छवि को धक्का पहुँच सकता है। 

जिसे अपनी छवि की चिंता होती है, वो बहुत-से अनैतिक काम चाह कर भी नहीं करता। 

अपनी छवि की चिंता उसे ही होती है, जिसे अपनी छवि की परवाह होती है। अपनी छवि की परवाह वही करता है, जो वाकई में गुड ब्वॉय होता है। जो गुड ब्वॉय होता है, उसे अपने अच्छे कामों की चर्चा सबसे करते रहनी चाहिए। 

कई लोग मुझसे कहते हैं कि संजय सिन्हा, तुम अपनी बहुत तारीफ खुद ही करते हो। 

मैं कहता हूँ कि मैं ऐसे काम करता हूँ कि मुझे खुद पर ही नाज होने लगता है। मैं अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन जाता हूँ। जब मैं अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन जाता हूँ, तो मुझे इसका एक बड़ा फायदा ये होता है कि मैं अपनी इतनी तारीफ कर चुका होता हूँ कि कई बार उस तारीफ की रक्षा करने के लिए मुझे अच्छे काम करने पड़ते हैं। 

***

एक बार किसी कारवाँ से दो आदमी रेगिस्तान में भटक गये। बहुत भटकने के बाद दोनों को सामने एक दीवार नजर आयी। दोनों ने दीवार के उस पार झाँक कर देखा, तो पाया कि उस पार हरियाली ही हरियाली है। उस पार पक्षी चहचहा रहे हैं। पास ही नदी बह रही है। एक आदमी दीवार पर चढ़ा और उस पार कूद गया। 

पर दूसरा आदमी उस पार नहीं कूदा। वो रेगिस्तान में ही पीछे मुड़ चला, बाकी भटके लोगों को ये बताने के लिए तुम इधर आओ। इधर दीवार के पार स्वर्ग है। 

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बहुत-से लोग दीवार के उस पार कूद कर खुश हो जाते हैं कि उन्हें तो हरियाली मिल गयी। लेकिन संजय सिन्हा जैसे लोग दीवार कूद कर सिर्फ अपने लिए हरियाली नहीं ढूँढते। ऐसे लोग रेगिस्तान में भटक रहे और लोगों को रास्ता बताने निकल पड़ते हैं कि इधर है हरियाली। 

तो, मेरे कुछ परिजनों, जिन्हें ये शिकायत है कि संजय सिन्हा अपने आप अपनी बहुत तारीफ करते हैं, उनसे मैं बहुत विनम्र होकर इतना ही कहना चाहता हूँ कि सबको कुछ ऐसा करना ही चाहिए कि वो खुद अपनी तारीफ कर पाएँ। अपनी तारीफ करने का मतलब होता है, अपनी इज्जत करना। जो अपनी इज्जत नहीं करना जानते, वो किसी और की क्या करेंगे। 

मैं दूसरों में अच्छा ढूँढता हूँ, खुद में भी अच्छा ही ढूँढता हूँ। 

पर अपने लिए इतना अच्छा सोचना, लिखना और खुद ही सबसे कहना आसान नहीं होता। खास कर सोशल साइट्स पर। यहाँ तो आपकी एक गलती पर हजारों निगाहें तलवार बन कर लटकी होती हैं। एक गलती हुई नहीं कि गरदन साफ। 

(देश मंथन, 11 जनवरी 2016)

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