संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
सबको एक दिन घर लौटना होता है। भाग्यशाली होते हैं वो लोग, जिन्हें घर के बारे में पता होता है। मैं तो बहुत से लोगों से मिला हूँ, उन्हें पता ही नहीं कि उनका घर कहाँ है। वो हर रात सोते हैं, फिर सुबह होते ही भटकने लगते हैं, अपने घर की तलाश में। वो जिन्दगी जीने की तैयारी में अपने हिस्से की ढेर सारी जिन्दगी जाया कर चुके हैं।
मैं उनसे पूछता हूं कि कहाँ जाना है, क्या करना है, तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता। वो कहते हैं, एक दिन लौटना है।
“कब?”
“नहीं पता।”
“कहाँ?”
“वो भी नहीं पता।”
विदेश यात्रा और विदेश प्रवास में मुझे ऐसे सैकड़ों हिन्दुस्तानी मिल चुके हैं, जिनकी उम्र गुजर गयी, घर लौटने के इंतजार में। वो कहते हैं कि एक दिन लौट जाऊँगा, पर लौटने से पहले थोड़ा और प्राप्त कर लूँ।
मैं अपनी हर यात्रा में उन मुसाफिरों से पूछता हूँ कि कितना और प्राप्त कर लेंगे तो लगेगा कि अब लौटने का सही वक्त हो चला है।
उनके पास कोई जवाब नहीं होता।
हम में से किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं होता कि कितना और क्या हो जाएगा तो हम खुशी-खुशी घर लौटने को तैयार हो जाएँगे।
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मैंने पहले भी अपनी किसी पोस्ट में इस बात की चर्चा की है कि जिन दिनों मैं अमेरिका में था, मुझे ढेरों लोग मिले, जिनका एक ही सपना था कि काश एक दिन अपने घर लौट जाएँ! मैंने कई लोगों की आँखों में घर न लौटने की टीस भी देखी। पर अगले ही पल फिर उनकी चाहत उन्हें उलझा देती कि अभी तो वह उन्हें प्राप्त हुआ ही नहीं, जिसे उन्होंने अपना सपना मान रखा है।
बस फिर लौटने का ख्याल थम जाता।
ऐसी ही एक सुबह मैंने अपनी पत्नी से कहा था कि बहुत साल हो गये अमेरिका आये। तुमने तो कहा था कि दो-तीन साल रह लेते हैं, एक नया देश देख लेते हैं, अब तो सब हो चुका, अब लौट चलो। उसी सुबह हमने अपनी पैकिंग शुरू कर दी। मेरे ढेर सारे दोस्त आये, मुझे समझाने लगे कि कोई अमेरिका आकर भी वापस लौटता है?
सच है, कोई अमेरिका में रहने के बाद वहाँ से लौटता नहीं। लौटना चाह कर भी नहीं लौटता।
“पर मैंने तय कर लिया है कि लौटना है, तो बस अब लौट जाऊँगा। चाहे जो हो, जो मेरा देश नहीं, वहाँ मैं किस हक से रहूँ?”
“न होने को तो यह दुनिया भी अपनी नहीं। तो क्या यहाँ से भी खुशी-खुशी लौट जाओगे?”
“यकीनन। मैं अमेरिका घूमने आया था, घूम लिया अब लौट जाना ही मेरी नियती होनी चाहिए। जो नियती हो, उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। संसार में भी घूमने ही आया हूँ, यहाँ से भी लौटूँगा तो खुशी-खुशी ही लौटूँगा।”
“लौटना तो सबको है। पर जल्दी किस बात की?”
“जल्दी का सवाल नहीं है। सवाल है नीयत का। जब आये थे, तब तो यही कहते हुए आये थे कि बस कुछ दिन। अब वो कुछ दिन का लालच बढ़ना तो नहीं चाहिए न!”
“संजय सिन्हा, मैं तुमसे बहस नहीं कर सकता। पर यही उम्र है कुछ प्राप्त कर लेने की। थोड़ा और प्राप्त कर लूं, फिर तो लौटना ही है।”
“नहीं, तुम कभी नहीं लौटोगे? तुम लौट ही नहीं पाओगे। एक दिन तुम लौटा दिए जाओगे, लेकिन वो लौटना तो लौटना होगा ही नहीं। जब तक आदमी खुशी से घर नहीं आता, तो घर घर नहीं रह जाता। घर का मतलब ही है कि लौटने की खुशी हो चेहरे पर। संतोष हो मन में। तुम सबकुछ प्राप्त कर लोगे, पर वो तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं होगा।
जो लोग इस बात का अर्थ जानते हैं कि जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है, उनके लिए लौटना आसान होता है।”
मेरे लिए है। मैंने जितना प्राप्त किया है, उतना ही पर्याप्त है। इसीलिए मुझे कहीं से लौटने में पीड़ा नहीं होती।
जब कहीं से लौटने में पीड़ा नहीं, तो फिर यूरोप से लौटने में क्यों?
“लाख लुभाएँ महल पराये, अपना घर फिर अपना घर है…
आ अब लौट चलें।”
(देश मंथन, 20 अगस्त 2015)