जैसा संस्कार दोगे वैसा पाओगे

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संजय सिन्हा : 

पता नहीं फेसबुक पर किसने लिखा, लेकिन जिसने भी लिखा ये चुटकुला नहीं था और अगर ये चुटकुला था तो बेहद मार्मिक था।

लिखने वाले ने तो लिख दिया कि एक बूढ़ा आदमी अपने फोन को लेकर बाजार में गया, ये दिखाने के लिए कि उसके फोन में क्या खराबी है, ये पता चल जाए।

फोन ठीक करने वाले ने बूढ़े के फोन को पूरी तरह जाँचने के बाद कहा कि फोन में कोई खराबी नहीं, फोन तो बिल्कुल ठीक है।

“फोन ठीक है?”

बूढ़ा अचकचाया। फिर अपना फोन हाथ में लेकर ये बुदबुदाते हुये दुकान से बाहर निकल पड़ा, “फोन ठीक है तो फिर मेरे बेटे का फोन आता क्यों नहीं?”

जिन दिनों मैं अमेरिका में रह रहा था, मुझे वहाँ ऐसे बहुत से बुड्ढे मिलते थे, जिनका फोन ठीक था, लेकिन फोन पर घंटी कभी नहीं बजती थी। ऐसे बुड्ढे कभी शाम को यूँ ही पार्क में मुझे मिल जाते तो मैं उनका अभिवादन कर उनके साथ गप किया करता था। उनसे उनके देश के बारे में पूछता था और अपने देश के बारे में बताया करता था। वो इस बात पर बहुत आश्चर्यचकित होते थे कि कहीं कुछ देश ऐसे भी हैं, जहाँ लोगों के पास हर रोज इतना समय होता है, जिसे वो अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ गुजारते हैं, उस परिवार के बीच जहाँ बेटे के पिता और उनके पिता भी साथ रहते हैं। 

सरकार से मिली है सुरक्षा

अमेरिकी बुड्ढों से बात करते हुए मैंने कभी उनके मन में इस बात का अफसोस नहीं देखा कि उनकी बहुत व्यस्त संतान बुढ़ापे में उनके साथ नहीं। उन्हें इस बात के लिए भी मैंने कभी मातम मनाते नहीं देखा कि कोई उन्हें फोन नहीं करता और अपने फोन की न बजने वाली घंटी से उनके मन में ये ख्याल भी नहीं आता था कि कहीं उनका फोन खराब तो नहीं हो गया। दरअसल उनकी परवरिश ही कुछ इस तरह हुई होती है कि बुढ़ापे में उन्हें पता होता है कि कहाँ और कैसे रहना है। वहाँ सरकार की ओर से सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था इतनी पक्की है कि संतान से किसी तरह की आर्थिक या सामाजिक सुरक्षा की उन्हें दरकार नहीं रहती। 

लेकिन संपूर्ण रूप से सुरक्षित उन बुजुर्गों से भी जब कभी मैंने दिल की बात की, मैंने उनकी आँखों से छलकते पानी को महसूस किया। हालांकि एक ऐसे समाज की कहानी उनके लिए कल्पना ही थी कि पिता, पिता का पिता और उनके पिता सब साथ एक ही छत के नीचे रह सकते हैं। वैसे आपको बता दूँ कि अमेरिकी लोग बहुत भावुक होते हैं। मानवीय संवेदनाएँ उनमें चरम पर होती हैं। मनुष्य की जिंदगी का मोल क्या होता है, ये अगर किसी को समझना हो तो एकबार उसे अमेरिका जरूर जाना चाहिए। फिर भी उनका बुढ़ापा बेहद सुरक्षित होते हुए भी अकेलेपन के दंश के बीच ही गुजरता है। मैं ‘दंश’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं क्योंकि उन बुड्ढों से जब मैं बातें करता था तो शाम के उस अकेलेपन में उन्हें मेरा साथ बहुत भाता था। दो-चार बुजुर्ग तो हर शाम इस बात का इंतजार किया करते थे कि कब संजय सिन्हा अपने फ्लैट से नीचे उतरेंगे और उनके साथ अपनी और उनकी कहानी साझा करेंगे। 

अगर कोई मुझसे पूछे कि इस धरती पर सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तो मैं कहूँगा अमेरिका। 

मैं दुनिया के बहुत से देश घूम चुका हूँ। अगर ये कहूँ कि दो-चार छोटे-छोटे देशों को छोड़ कर मैं सारा संसार देख चुका हूँ तो इसे आप अतिशयोक्ति मत मानिएगा और अपने इसी अनुभव से कह रहा हूँ कि अमेरिका एक अद्भुत देश है। वहाँ के लोगों का आदमी पर किया जाने वाला भरोसा अविश्वसनीय किंतु सत्य है। फिर भी मैं अमेरिका को छोड़ कर भारत चला आया, क्योंकि वहाँ के बुढ़ापे को मैंने बहुत अकेलेपन के बीच गुजरते देखा है।

भारत बन चला अमेरिका 

जिन दिनों मैं अमेरिका गया था, उन दिनों दिल्ली में ‘मॉल कांसेप्ट’ नहीं आया था। उन दिनों इलेक्ट्रानिक क्रांति भी यहाँ नहीं आयी थी, लेकिन मेरे यहाँ वापस आने के बाद मैंने महसूस किया कि अमेरिका भारत आ चला था। जो चीजें वहाँ मिलती थीं, वो सभी चीजें यहाँ मिलने लगी थीं। कुल चार साल वहाँ रह कर जब मैं भारत वापस लौट आया तो ये देख कर हैरान रह गया कि सचमुच अमेरिका भारत चला आया है। मैं खुश था कि भारत ही अमेरिका बन चला है, लेकिन मेरी खुशी कल काफूर हो गयी, जब से इस चुटकुले को पढ़ा, मन ठहर सा गया। 

क्या सचमुच तकनीकी क्रांति के साथ हम वहाँ की पारिवारिक व्यवस्था भी आयात कर रहे हैं। क्या सचमुच हमारा बुढ़ापा भी उनकी तरह तन्हा होगा। क्या हमारा फोन भी दुरुस्त होगा, लेकिन उसमें एक दिन घंटी बजनी बंद हो जाएगी? क्या कुछ दिनों बाद हमारे पास ढेर सारे कमरे होंगे, कोई रहने वाला नहीं होगा? क्या हमारे पास ढेर सारी बातें होंगी, कोई सुनने वाला नहीं होगा? हर कमरे में टीवी का सेट लगा होगा, देखने वाला कोई नहीं होगा? ऐसे बहुत से सवालों से मन विचलित है। 

हो सकता है उपर जिसे मैंने चुटकुला कहा है, जिसे पढ़ कर आपको हंसी भी आयी हो, मुझे वो चुटकुला नहीं लग रहा, 

जिस तरह हम अमेरिका से सबकुछ भारत ला रहे हैं, उसी तरह कहीं हम शायद जाने-अनजाने वहाँ की व्यवस्था भी यहाँ ला रहे हैं? 

पर ये तो ‘अर्ध आयात’ होगा। याद कीजिए, बहुत साल पहले हम इंग्लैंड से लोकतंत्र चुरा कर भारत ले आए थे। एक ऐसा लोकतंत्र, जिसमें हमने लोगों को अधिकार के विषय में तो बता दिया, लेकिन कर्तव्य के बारे में नहीं समझाया। हमने ये सोचने की जहमत भी नहीं उठाई कि एक अशिक्षित देश के लिए शिक्षा उसकी पहली जरूरत होती है। एक गरीब देश के लिए रोटी उसका पहला हक है। हमने लोकतंत्र के नाम पर बस इतना समझ लिया कि वोट देने का अधिकार हमें मिल गया, मतलब लोकतंत्र आ गया। उस ‘अर्ध लोकतंत्र’ की वजह से ही हम आजतक पीने के पानी और रोटी जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए तरस रहे हैं। काश हमने जब लोकतंत्र इंग्लैंड से लिया था ,तब हम वहाँ की पूरी व्यवस्था समझ पाए होते।

भारत में बढ़ता एकल परिवार

आज हम अमेरिका से एकल परिवार आयात कर रहे हैं, लेकिन इस परिवार के पीछे वहाँ सरकार की ओर से मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा को तो हम आयात नहीं कर रहे न! बिना उस सामाजिक सुरक्षा के ऐसा एकल परिवार एक दिन इस देश को इतना अकेला कर देगा कि आदमी आदमी के लिए तरस उठेगा। 

हो सकता है कल ये मेरी कहानी हो, लेकिन यकीन कीजिए परसो, नरसो ये आपकी, आपकी और आपकी कहानी भी हो सकती है। ये एक कल्पना है, जो बहुत जल्दी सच में तब्दील होकर रहेगी। 

आपके बेटे के फोन की घंटी आपके फोन पर बजती रहे, इसके लिए जरूरी है कि आप अपने पिता को फोन करते रहें। जो बोएँगे काटेंगे वही, इस कहावत में आपको कोई संदेह तो नहीं है न!

(देश मंथन, 20 फरवरी 2015)

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