रत्नाकर त्रिपाठी :
जब से लिपियों का ठीक से ज्ञान हुआ, तब से अखबार की दुनिया में झाँकने लगा था। घर से लिए बाहर तक हिंदी बोली जाती थी, सो हिंदी अखबार ठीक-ठाक बांच लेता था। बनारस में “पक्की गुजराती घुसपैठ” तो इस साल मई में हुई, लेकिन मेरे घर में ये पांच दशक पहले हो गयी थी।
अहमदाबाद के खांटी इंग्लिश स्कूल की उत्पाद मेरी माता जी की दुनिया हम सबसे अलग थी और उनके चलते ही मैं अंग्रेजी से रू-ब-रू हो पाया; भोजपुरिया हिंदी और चार्ल्स डिकेन्सिया इंग्लिश के दो पाटों के बीच पिसाते-पिसाते मातृ-कृपा से ही ये जान पाया कि “क्वींस-इंग्लिश” क्या होती है, स्लैंग किसे कहते हैं, कॉमन इंग्लिश की अदा क्या है; लब्बो-लुआब ये कि ठेठ बनारसी माहौल में पलते हुए भी अंग्रेजी की आभिजात्य और स्वप्निल दुनिया से अच्छा-खासा साबका पड़ा। इस भाषा को पढने-जानने के लिए बचपन में दो लालचों ने उत्प्रेरक का काम किया,
पहला : एक घंटे तक अंग्रेजी पढ़ने पर माता जी 10 पैसे देतीं थीँ;
दो पतंगें आ जाती थीं सरकार, पापी शौक का सवाल था।
दूसरा : टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपने वाला “आर के लक्ष्मण जी का कार्टून”;
जनाब, चंद शब्दों में देश की हालात का ऐसा सटीक उल्लेख मैंने आजतक नहीं देखा।
फिर एक दौर ऐसा आया कि आर के लक्ष्मण जी ने टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़ दिया और यकीन मानिए कि मैंने भी टाइम्स ऑफ इंडिया मंगाना और पढ़ना छोड़ दिया। इतिहास गवाह है कि उस समय अखबार का सर्क्युलेशन सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया था।
अब आर के लक्ष्मण ने दुनिया ही छोड़ दी, मेरे जैसों के लिए कार्टून जगत वीरान हो गया है। लक्ष्मण साब, फिर आइयेगा, लोकतंत्र में लगातार लहुलुहान हो रहे “आम आदमी” को आपके “आम आदमी” की बहुत जरूरत है। मुझे लगता है कि अली सरदार जाफरी जी ने आपके ही लिए ये पंक्तियाँ लिखी थीं।
” लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा, बच्चों के दहन से बोलूंगा, चिड़ियों की जुबां से गाऊंगा
जब बीज हँसेंगे धरती में और कोपलें अपनी ऊँगली से मिट्टी की तहों को खोलेंगी,
मैं पत्ती-पत्ती कली-कली, अपनी आँखें फिर खोलूँगा,
सर सब्ज हथेली पर लेकर शबनम के कतरे तोलूँगा
मैं रंग-ए -हिना, आहान-ए -ग़ज़ल, अंदाज-ए -सुखन बन जाऊंगा
धरती की सुनहरी सब नदियाँ, आकाश की नीली सब झीलें, हस्ती से मेरी भर जाएंगी
और सारा ज़माना देखेगा, हर किस्सा मेरा अफ़साना है,
हर आम आदमी लक्ष्मण है यहाँ, जो बदलता पूरा ज़माना है।
इस युग का आखिरी सलाम लक्ष्मण साहब, जहां रहिएगा, हँसाते रहिएगा।
(देश मंथन, 29 जनवरी 2015)