संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आपको तो पता ही है कि मैं अभी पश्चिम बंगाल में तारापीठ मंदिर गया था। आपको ये भी पता है कि मैं वहाँ एक भाई-बहन से मिला था। आप ये भी जानते ही हैं कि उनकी कहानी सुनाने को मैं बेताब हूँ। पर आप ये नहीं जानते कि आख़िर उनकी कहानी मैं क्यों सुनाना चाहता हूँ?
दरअसल मैं तीन दिन इस कहानी को टालना नहीं चाहता था, लेकिन पिछली बार जब मैं आपको येलेना की कहानी सुना रहा था, तब मुझसे एक गलती हुई थी। मैंने ‘येलेना’ की कहानी बीच में रोक दी, फिर दूसरी कहानी सुनाई और जब दुबारा मन किया तो फिर येलेना की कहानी सुनाने लगा।
येलेना पहले मिली थी लेनिनग्राद में, फिर मॉस्को में। तीसरी बार मुझे वो मिली किरगिस्तान में। तब उसने अपना नाम मुझे ‘ओल्गा’ बताया था। उसके बाद मुझे दो बार अमेरिका में मिली, एक बार बांग्लादेश की राजधानी ढाका में और फिर न्यूजीलैंड में। अमेरिका में एक बार उसने अपना नाम एलिजा बताया था और एक बार मैरियन। हालाँकि में ढाका में उसने अपना नाम ‘रूना’ कहा था।
कायदे से मुझे रूना से आपकी मुलाकात ‘ओल्गा’, ‘मैरियन’ और ‘एलिजा’ के बाद कराना चाहिए था। पर क्योंकि मैं अभी-अभी बंगाल की यात्रा पर गया था, इसलिए मुझे उन भाई-बहनों की कहानी के बीच ‘रूना’ की बहुत याद आयी।
वैसे आप में से कुछ लोग रूना की कहानी मुझसे सुन चुके हैं, पर बहुत से लोगों ने ये वाली कहानी नहीं भी सुनी है।
आज रूना से आपकी मुलाकात कराता हूँ।
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मुझे रात भर नींद नहीं आयी थी। आखिर मुझे रूना लैला से मिलने जाना था। जब बिल क्लिंटन के साथ मैं ढाका आया था, तब मैं रूना से नहीं मिल पाया था और तभी मैंने तय कर लिया था कि मैं जल्दी ही दुबारा ढाका आउंगा और रूना लैला से मिलूंगा। क्लिंटन के साथ मैं मार्च 2000 में बांग्लादेश गया था, और सिर्फ ढाई महीने बाद ही वहाँ क्रिकेट का एशिया कप होने वाला था। क्रिकेट से मुझे ज्यादा प्यार नहीं, न मैं स्पोर्ट्स का पत्रकार हूँ, लेकिन मेरे पास ढाका जाने के लिए वीजा था, इसलिए जब क्रिकेट कवर करने के लिए ढाका जाने की बात हुई तो सिर्फ वीजा के आधार पर तय हुआ कि मैं चला दुबारा चला जाऊं। मुझे रूना लैला से मिलना था, और सारी कायनात मुझे रूना से मिलाने के लिए रास्ते तैयार करा रही थी। मैं तय समय से दो दिन पहले दुबारा ढाका पहुँच गया। क्रिकेट का बुखार ढाका में ठीक वैसे सिर चढ़ कर बोलता है, जैसे हमारे यहाँ के किसी शहर में। मैं ढाका शेरेटन होटल में ठहरा था, और मेरा काम था दोपहर में होने वाले उन दिन-रात के मैचों के बारे में अपनी विशेष टिप्पणी देना। अब क्रिकेट तो भारत में बच्चे-बच्चे के लिए रटी रटाई विद्या है, तो मुझे वहाँ जाकर ऐसा क्या करना था, जो यहाँ बैठ कर नहीं किया जा सकता था? बल्कि सच तो ये है कि ये टीवी चैनल वाले, अखबार वाले क्रिकेट कवर करने के लिए अपने रिपोर्टर वहाँ भेजते ही क्यों है, ये मैं आजतक नहीं समझ पाया। क्रिकेट में कवर करने के लिए कुछ नहीं होता। ये मार्केटिंग, विज्ञापन, और देखा-देखी की होड़ है। देखो तुमने रिपोर्टर भेजे, मैंने भी भेज दिए। मैं तो कहता हूँ कि किसी को अगर टीवी न्यूज के संसार में मस्ती करनी हो तो उसे क्रिकेट रिपोर्टर बनना चाहिए। पूरा संसार घूमने के अलावा आप दिन रात वही सब करेंगे और देखेंगे जिसे करने और देखने पर हो सकता है कि घर में पिताजी ने कभी फटकारा भी हो, लेकिन आपको मजा आता रहा हो।
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अब इन बातों की क्या चर्चा करना? आज तो मेरे कानों में एक गाना गूँज रहा था, ” मेरा बाबू छैल-छबीला मैं तो नाचूंगी…कजरा लगा के, गजरा सजा के…मैं शर्माउंगी…।”ढाका के स्थानीय रिपोर्टर से मेरी दोस्ती हो चुकी थी। ढाका पहुँचते ही वो मुझसे मिलने होटल आया। मैंने उससे कहा कि मुझे रूना लैला से मिलना है और इसीलिए आया हूँ। वो बहुत देर तक खामोश बैठा रहा, फिर उसने कहा कि रूना इन दिनों किसी से नहीं मिलतीं। ना इंटरव्यू देती हैं। उनके बदले आप कहें तो मैं अपने देश की प्रधानमंत्री शेख हसीना से आपकी मुलाकात करा दूँ। मैं समझ रहा था कि अब मुझे बोनस मिलने जा रहा है। शेख हसीना से मेरी मुलाकात हो पाएगी, ये तो मैं सोच कर आया भी नहीं था। लेकिन उसने कहा कि उनसे आप मिल सकते हैं। शेख मुजीबुर्र रहमान की बेटी शेख हसीना से मुलाकात होने का मतलब आप सोच सकते हैं। मैंने खुश होते हुए कहा, “शेख हसीना से तुम मुलाकात करा दो औ मुझे रूना लैला का नंबर दो, मैं खुद बात करुंगा।”उसने रूना के घर का नंबर दे दिया। मैंने होटल से ही रूना को फोन मिलाया। पता नहीं किसने फोन उठाया एकदम ठेठ बांग्ला में जो कहा उसका मतलब था कि मैडम अभी नहीं हैं। शाम को फोन करना। शाम को फिर फोन किया उसी ने फोन उठाया और मेरी बात पता नहीं कितनी समझ पाया लेकिन उसने रूना लैला को फोन दे दिया। हैलो, मैं संजय सिन्हा बोल रहा हूँ। मैं दिल्ली से आया हूँ। सिर्फ आपसे मिलने के लिए। उधर से पता नहीं वो क्या बोल रही थीं, लेकिन मेरे कानों में बस गूंज रहा था, ” दमादम मस्त कलंदर…।”मुझे उनसे मिलने का समय नहीं मिला। अगले दिन मैं क्रिकेट मैच देखने चला गया और आधे पर ही मैच छोड़ कर मैं शाम को अपने कैमरामैन को लेकर निकल गया रूना लैला के घर की ओर।
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करीब आधे घंटे बाद मैं उस बंगले के सामने था। मैंने घंटी बजाई, कोई नीचे आया। मैंने फिर कहा, मैं संजय सिन्हा। मैं दिल्ली से आया हूँ, रूना जी से मिलना है। वो उपर चला गया। दस मिनट बाद फिर आया और बिना कुछ बोले हुए मुझे अपने साथ ऊपर ले गया। ड्राइंग रूम में मुझे बिठाया गया। वहाँ दीवारों पर कई तस्वीरें टंगी थीं। मैं हैरान था, ये सारी तस्वीरें रूना के पूर्व पतियों की थी। कहने की जरूरत नहीं कि रूना ने तीन या चार शादियाँ की थीं, और उनके घर में सबकी यादों को बहुत सहेज कर रखा गया था। घर बहुत करीने से सजा हुआ था, हर चीज अपनी जगह और ठिकाने पर थी। मेरा दिल धड़क रहा था। मेरे सामने रूना लैला आने वाली थीं। पता नहीं आने वाली थीं, या मना करने वाली थीं। मुझे भविष्य में फिल्मी पत्रकारिता तो करनी नहीं थी, लेकिन मेरे मन में हर उस व्यक्ति से मिलने की चाहत रहती है, जिसके मन के सीमेंट के नीचे गीली मिट्टी छुपी होती है। रूना लैला के बारे में मैंने पढ़ा था कि उन्होंने इतनी शादियाँ कीं। मैंने ये भी पढ़ा था कि उनकी बहन की मौत कैंसर से हो गयी थी। ये भी पढ़ा था कि बहन की मौत के बाद उन्होंने एक के बाद एक छह कंसर्ट किये और उन कंसर्ट की सारी कमाई कैंसर मरीजों की किसी संस्था को दान कर दिये थे। एक ऐसी महिला जिसने मंच पर उस उम्र में तानपुरा थामा, जब उसका खुद का आकार तानपुरे से कम था, एक ऐसी महिला जिसने एक बार नहीं कई-कई बार शादियाँ कीं, सिर्फ इस उम्मीद में कि उसे कोई एक प्यार करने वाला मिल जाये, एक महिला जो अब किसी से मिलना ही नहीं चाहती, एक महिला जिसने अपने चारों ओर सीमेंट की इतनी उंची दीवार खड़ी कर ली हो, उस महिला में मैं तलाशने गया था सीमेंट के भीतर छिपी गीली-गीली मिट्टी। करीब दस मिनट बाद मेरे सामने आँखों में काजल लगाए गोरी सी, बालों को करीने से संवारे एक महिला खड़ी थी।
मेरी आँखें धुंधला रही थीं। कहीं ये येलना तो नहीं? मैंने अपनी आँखें मलीं।
मेरे कानों में फिर गूँज रहा था, “मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूंगी…मेरा बलमा रंग रंगीला मैं तो नाचूंगी…।”हैलो, उधर से आवाज आयी और मेरे हाथ बढ़ गये उन हाथों की तरफ। उन्होंने बैठने का इशारा किया और कहा कि वो अब वो इंटरव्यू नहीं देतीं। मैंने कहा कि इंटरव्यू के लिए तो मैं आया ही नहीं। मैं तो आपसे मिलने आया हूँ। कैमरामैन हमारे साथ ही था। मैंने कहा, कि हम कैमरा खोलेंगे ही नहीं, बस आपसे मिलना भर था। रूना बैठ गईं। मैं उनसे दुनिया जहान की बातें करता रहा। धीरे-धीरे सीमेंट की दीवार टूट रही थी। मैं पाँच मिनट बाद ही उनसे उनके पूर्व पतियों के बारें में बातें कर रहा था। उनकी बहन के बारे में पूछ रहा था।। और कह रहा था कि आप क्या हमें एक कप ‘चा’ नहीं पिलाएंगी? रूना उठीं, कहने लगीं ओह, भूल ही गयी। आपसे बात करते हुए कुछ ध्यान ही नहीं रहा। रूना के साथ मैं भी उठ गया। उनके पीछे-पीछे रसोई तक। वहाँ एक काम करने वाली महिला खड़ी थी। रूना ने उससे कुछ कहा, फिर खुद ही रसोई में घुस गईं। मैंने पीछे से पूछा कि क्या मैं भी आ जाऊं?रूना मेरी ओर देखीं, और कहने लगीं हाँ आ जाइए। मैंने कहा कि बातचीत का तारतम्य टूट न जाए, इसलिए चाय बनते हुए भी हम बातें करेंगे। रूना मेरी ओर देखीं, और कहने लगीं कि पूरा इंटरव्यू तो आपने कर ही लिया, ना ना करते हुए। मैंने कहा कैमरा तो बंद है। टेलीविजन में बिना कैमरे के इंटरव्यू की क्या अहमियत? उन्होंने हौले से मुस्कुराते हुए कहा, अब वो भी कर ही लीजिए। मैं जानता था, यही होगा। सारी कायनात मुझे रूना से मिलाने लाई है, तो मैं बिना इंटरव्यू लिए नहीं जाउंगा। मैंने वहाँ खड़ी काम करने वाली महिला से कहा कि तुम ‘चा’ बनाओ। और रूना से कहा कि आप इंटरव्यू के लिए आ जाइए। रूना ने कहा कि जरा तैयार हो जाती हूँ। मैंने कहा कि आप एकदम सुंदर लग रही हैं। आपको मेकअप की जरूरत नहीं। रूना फिर भी नहीं मानीं, भीतर गईं। बालों को जरा और संवारा और ड्राइंग रूम में जब तक हम कैमरा सेट करते वो सामने आ गईं। आते ही इठला कर उन्होंने पूछा कि मोटी तो नहीं लग रही? मैं हँस पड़ा। मैंने कहा कि आप रूना लैला हैं। हमारे देश में आपके गानों पर लोग थिरकते हैं। आप हर दिल अजीज हैं, सबकी धड़कन हैं। रूना शर्मा गईं, और बैठ गईं इंटरव्यू के लिए। हमने कई सवाल पूछे। रूना ने सबके जवाब दिए। हमने चाय पी ली तो वो कहने लगीं कि खाना खा कर जाना। सीमेंट की मजबूत दीवार टूट चुकी थी। लोहे की सारी रेलिंग पिघल चुकी थी। रूना किसी से नहीं मिलतीं, ये एक झूठ बन चुका था। वो इंटरव्यू नहीं देतीं ये कहना अपराध हो चुका था। रूना के साथ हम खाना खा रहे थे, उनकी बहन के बारे में बातें कर रहे थे…और उनकी आँखों से रिसते कतरों को देख रहे थे। मेरे सामने एक औरत बैठी थी।
वो हमारे घर की, आपके घर की वही औरत थी जिसके सपनों में उसका राजकुमार रंग रंगीला होता है, छैल छबीला होता है। वो उसके लिए कजरा लगाती है, गजारा सजाती है…उसका सारा संसार उस एक पुरुष के लिए होता है जिसके लिए वो होठों को लाल करती है, जिसके लिए वो सजती और संवरती है…सारा दिन…सारी रात उसका इंतजार करती है…वही औरत मेरे सामने थी। अपने हाथों से मेरी प्लेट में खाना परोस रही थी।
रूना, रूना लैला ने बहुत बातें कीं। मेरे सामने खूब गाने गाये। हमने वो सारे गाने रिकॉर्ड किए। फिर चलते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि उनके पास उन तमाम गानों का वीएचएस टेप है, जो वो मुझे दे सकती हैं, बशर्ते मैं वो उन्हें लौटा दू। मैं वो टेप लेकर भारत चला आया। जी न्यूज पर रूना का इंटरव्यू चला। उस टेप से कई अनसुने गाने निकाले गये, वो भी इंटरव्यू में शामिल हुआ। और मैंने वो टेप जी न्यूज की लाइब्रेरी में दे दिया ये कह कर इस पते पर भिजवा दीजिएगा। रूना से मिल कर लौटते हुए कैमरामैन ने कहा कि मान गया सर, आप किसी का इंटरव्यू ले सकते हैं। मैंने कहा कि किसी का नहीं। उन लोगों का जो लोग ‘असली’ होते हैं। उन लोगों से मिलना अच्छा लगता है जो नकली जिन्दगी जीते हुए असली होते हैं। उन लोगों का इंटरव्यू नहीं, जो असली की आड़ में नकली होते हैं। मुझे वो लोग अच्छे लगते हैं, जो अपने आँसुओं को छिपा लेते हैं, कजरा लगा के। मुझे वो लोग अच्छे लगते हैं जो दूसरों के लिए गजरा सजाते हैं, अपने बालों में। मुझे वो लोग अच्छे नहीं लगते जो उन आँखों के कजरों को बहने पर मजबूर करते हैं। मुझे वो लोग भी अच्छे नहीं लगते जो बालों के गजरों को रौंद देते हैं। मुझे उन लोगों से कोई शिकायत नहीं, जो एक प्यार की उम्मीद में तीन-चार लोगों से रिश्ते कामय कर लेते हैं। मुझे शिकायत उन लोगों से है जो एक रिश्ते में भी प्यार का पौधा नहीं उगा पाते। यहीं से मेरे दिल में फिल्म वालों, नकली लोगों, अपने पर हँस कर जग को हँसाने वालों के लिए प्यार जागा। रूना लैला की उस अधूरी तलाश की कहानी को सुनता-सुनाता हुआ मैं भारत में आज भी तमाम फिल्मी कलाकारों से मिल कर जानना चाहता हूँ कि जिसके लिए कजरा-गजरा लगाया…उसका असली हकदार मिला या यूँ ही इंतजार चल रहा है। मुझे फिल्म वाले इसलिए भी अच्छे लगते हैं क्योंकि एक बार उन्हें उनका प्यार नहीं मिला तो वो दूसरा प्यार तलाशने का दम रखते हैं।
कोशिश करते हैं।
लेकिन हमलोग? हम अपने अरमानों को कुचलने देते हैं। खुद ही कुचल देते हैं। हमारे लिए कजरा और गजरा बने ही नहीं। हमारे पास फुर्सत ही कहाँ है एक औरत की आँखों के कजरे में झाँकने की, उसके गजरों के अरमान को समझने की? हमारे लिए औरत हमारे बच्चे की माँ है। वो एक आदर्श बहू है। वो अच्छी पड़ोसन है। वो सुघड़ गृहणी है। वो रोटी बनाने की मशीन है।
हमारे लिए वो सबकुछ है, बस एक औरत नहीं है।
(देश मंथन 06 अगस्त 2016)