जब कड़ाही को हुआ बच्चा…

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक:

एक बार एक आदमी किसी मुहल्ले में नया-नया रहने आया। एक दिन उसने अपने पड़ोसी से कड़ाही माँगी, यह कहते हुए कि घर पर कुछ मेहमान आने वाले हैं और वह इस्तेमाल के बाद कल तक उसे कड़ाही वापस कर देगा। पड़ोसी ने बहुत कुनमुनाते हुए, अनमने ढंग से उसे एक पुरानी और टूटी हुई कड़ाही दे दी।

आदमी खुशी-खुशी कड़ाही लेकर अपने घर चला गया। अगले दिन वह अपने पड़ोसी के घर गया और उसने उसे उसकी कड़ाही वापस लौटा दी, साथ में एक छोटी कड़ाही उसे और दी। पड़ोसी ने पूछा कि यह छोटी कड़ाही क्यों?

उस आदमी ने कहा कि भाई आपकी कड़ाही कल मैं माँग कर ले गया था। इसमें दिन में खाना पकाया और रात में धो कर इसे रख दिया था। सुबह देखा कि कड़ाही को बच्चा हुआ है। रात में आपकी कड़ाही ने इस छोटी कड़ाही को जन्म दिया है। अब कड़ाही आपकी थी, तो उसका बच्चा भी तो आपका ही हुआ न! कड़ाही आपकी तो उससे होने वाला फायदा भी आपका।

पड़ोसी बहुत खुश हुआ। मन-ही-मन सोचा कि अच्छे मूर्ख से पाला पड़ा है। भला बताओ, कड़ाही को बच्चा हुआ है कह कर एक और कड़ाही दे रहा है, वह भी इस बेकार पुरानी कड़ाही के बदले। उसने खुश होते हुए कहा, “लाओ-लाओ। तुम बहुत अच्छे इंसान हो। सचमुच कड़ाही मेरी है तो उसका बच्चा भी तो मेरा ही हुआ।” यह कहते हुए उसने दोनों कड़ाही रख ली।

दिन बीतते गये। एक दिन वही आदमी फिर उसी पड़ोसी के घर पहुँच गया। पड़ोसी ने उसकी खूब आवभगत की और पूछा कि कैसे आये भाई?

उस आदमी ने कहा कि भाई आज कुछ मेहमान फिर घर आने वाले हैं। मेरे घर पर प्रेशर कुकर नहीं है। क्या आप अपना कुकर एक दिन के लिए उधार दे सकते हैं?

पड़ोसी मन-ही-मन बहुत खुश हुआ और उसने उस आदमी को घर का सबसे बड़ा और नया कुकर थमा दिया। वह मन-ही-मन सोच रहा था कि मूर्ख इसके साथ क्या लायेगा, यह देखने वाली बात होगी।

एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन भी बीत गये। पर वह आदमी पड़ोसी के घर कुकर वापस करने आया ही नहीं। आखिर में पड़ोसी खुद चल कर उस आदमी के घर पहुँचा। आदमी उसे मिला तो उसने पूछा कि भाई सब खैरियत तो है न? तुमने अब तक मेरा कुकर वापस नहीं किया?

आदमी इतना सुनते ही बिलख-बिलख कर रोने लगा। कहने लगा कि भाई किस मुँह से तुम्हारे सामने आता? उस दिन मैं कुकर तुम्हारे घर से लाया, उसके बाद खाना पकाते-पकाते ही कुकर की मौत हो गयी। जल्दी में मैंने कुकर का दाह संस्कार कर दिया। उसके बाद मेरी हिम्मत ही नहीं हुई तुम्हारे पास आने की।

पड़ोसी ये सुनते ही बिफर उठा। कहने लगा कि मूर्ख समझ रखा है क्या? कहीं कुकर भी मरते हैं?

उस आदमी ने बहुत संयत होकर जवाब दिया कि भाई, जब कड़ाही को बच्चा हो सकता है तो कुकर मर भी सकता है। इसमें हैरानी की क्या बात है?

पड़ोसी समझ गया कि उस आदमी ने उसके लालच का फायदा कम, उसकी चालाकी का फायदा ज्यादा उठाया है।

माँ कहा करती थी कि ज्यादा चालाक आदमी ज्यादा धोखा खाता है।

उसने मुझे एक बार ऐसे ही बताया था कि जब कहीं चलते हुए किसी सहज आदमी के पाँव में कोई गंदी चीज लग जाती है तो वह वहीं जमीन पर पाँव रगड़ कर साफ करता है और आगे बढ़ लेता है। अति समझदार और चतुर आदमी पाँव उठा कर देखता है कि क्या लगा है। उसे तब भी समझ में नहीं आता, तो अंगुलि से छू कर देखता है कि आखिर यह है क्या? इतने पर भी बात समझ में नहीं आती तो उसे सूंघता है कि आखिर सचमुच यह था क्या? फिर बोलता है कि छी-छी ये तो…।

सामान्य भाषा में माँ ने यह समझाने की कोशिश की थी कि आदमी को सहज होना चाहिए और सहजता ही आदमी का सबसे बड़ा आभूषण है।

जो अपनी चालाकी में कड़ाही के बच्चे पा कर खुश नहीं होते, उनके कुकर मरा भी नहीं करते। जो पाँव में लगी गंदगी को घास पर साफ कर आगे बढ़ चलते हैं, उन्हें उसे छूने और सूंघने जरूरत नहीं पड़ती। जीवन में कोई गलती हो जाये तो उससे बाहर निकल लेना चाहिए, न कि उसका पोस्टमार्टम किया जाये। लकड़ी छिलने से मुलायम होती है, बात छिलने से खुरदुरी हो जाती है।

(देश मंथन, 27 अक्टूबर 2014)

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