कौन माने, कौन नहीं माने

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार  :

वैधानिक चेतावनी-यह व्यंग्य नहीं है, हालांकि यह व्यंग्य पर ही है।
मैं अपने से ज्यादा युवा व्यंग्यकार से बात कर रहा था, बात यूँ चली-
जी वो तो मुझे व्यंग्यकार नहीं मानते।

अच्छा अगर वो अगर तुम्हे व्यंग्यकार मान लें, तो क्या तुम व्यंग्यकार हो जाओगे। मतलब एक उनके सर्टिफिकेट पर ही अगर तुम्हारा व्यंग्यकार होना टिका है, तो बहुत कमजोर आधार है तुम्हारे व्यंग्यकार होने का। अलाना जी फलानाजी तुम्हे व्यंग्यकार मानें, तो तुम व्यंग्यकार हो, और अगर ये कल तुम्हे व्यंग्यकार ना मानें, तो तुम व्यंग्यकार नहीं हो, ऐसी डोर किसी के हाथ में ना दो। हरेक की राय को उसकी राय समझो, आखिरी राय नहीं। तुम खुद को मान लो व्यंग्यकार इतना काफी है। बाकी कौन क्या मानता है, यह उसका फैसला है। उसके फैसले पर तुम्हारा दखल ना हो सकता। रचनात्मकता की दुनिया गणित की दुनिया नहीं होती कि सबको दो प्लस दो चार ही मानना पड़े। हरेक को यह हक हासिल है कि वह हरेक खारिज कर दे, यह रचनात्मकता की दुनिया है। खारिज और स्वीकार करने के तमाम गुणा गणित हैं। मैं जानता हूँ कि एक नौजवान को, एक खलीफा के तमाम रेल टिकट कराते हैं, चांदनी चौक से धाँसू मिठाई लाकर खलीफा को देते हैं, खलीफा को दारु की बोतल लाते हैं। खलीफा के प्रतिद्वंदियों के विफलताओं, कलंक गाथाओं को बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं। वो खलीफा उस नौजवान को ब्रह्मांड का सबसे रचनाशील कवि मानते हैं। यह चाइस है, तुम चाहो तो ऐसा कर सकते हो। वह नौजवान अपने समय, धन और ऊर्जा का निवेश कर रहा है, उसे रिटर्न मिल रहा है। तुम भी ऐसा रिटर्न चाह सकते हो।
मिर्जा गालिब के समकालीन जौक मुगल बादशाह जफर के उस्ताद थे, जफर की शायरी दुरुस्त करते थे। जफर जौक को गालिब से बड़ा शायर मानते थे। अब करीब 170 साल बाद गालिब जौक से बहुत ऊपर के शायर माने जाते हैं। समय जब मूल्याँकन करता है, तो यह नहीं देखता कि कौन किसके घर जलेबी पहुँचाता था, कौन किसका रिजर्वेशन करवाता था, कौन किसके विरोधियों की कलंक-गाथाओं का प्रक्षेपण करता था और कौन किसकी शायरी दुरुस्त करता था। वह सिर्फ काम देखता है, काम वक्त के पार जलेबी और दारु के बूते नहीं सिर्फ काम के बूते ही जाता है।
जी पर वो फलानाजी एक बहुत घटिया व्यंग्यकार को बहुत महान व्यंग्यकार मानते हैं।
ये भी उनका फैसला है, इसमें किसी का दखल नहीं है। रचनात्मकता की दुनिया में कोई किसी को कुछ भी मान या नहीं मान सकता। घटिया और बढ़िया सापेक्ष टर्म हैं। रचनात्मकता की दुनिया में ज्यादा सटीक वर्णन यूँ हो सकता है कि उस रचना ने मुझे छुआ या उस रचना ने मुझे ना छुआ। किसी को कौन सी रचना छू जाये, इसका कोई भी सर्वमान्य फार्मूला नहीं है। ज्यादा लोगों को कोई रचनाकार या रचना छूती है, तो उसे हम पापुलर कह सकते हैं, पर उस रचनाकार को सब को महान मानें या महान रचनाकार भी मानें, ऐसी जिद सिर्फ दुराग्रह है। सिर्फ अपने काम पर ध्यान लगाओ, अपना काम बेहतर कैसे हो। खूब पढ़ो, खूब आबजर्व करो, खूब सोचो। समय कीमती है, वह जलेबी-दारु पहुँचाने में लगाना है, अपने खलीफा के सामने उसके प्रतिद्वंदियों की कलंक-गाथाओं के प्रक्षेपण में लगाना है, खुद सोच लो। अपने मन का लिखो, मन का लिखना अपना आपमें रिवार्ड है। इसके बाद जो कुछ मिले, उसे अतिरिक्त मानो। कोई लेखक भी ना माने, तो धन्यवाद दो कि उसने आपकी रचनाओं में अपने समय, धन और ऊर्जा का निवेश किया। इस निवेश के बाद ही वह आपको लेखक ना मानने के फैसले पर पहुँचा। अपने समय से ज्यादा कीमती कुछ नहीं है, इस दुनिया में। उसे कैसे इस्तेमाल करना है, इस पर सिर्फ आपका हक है, उसे ढंग के कामों में लगाओ।
जी पर कोई आपको खारिज करे, तो दुख होता है ना।
कोई आपको स्वीकार कर ले, तो भी आप सर्वमान्य नहीं हो जाते। किसी के स्वीकार-खारिज करने की मोहताजी सिर्फ कमजोर आदमी और कमजोर रचनाकार ही बनाती है। इस सबकी चिंता नहीं करनी चाहिए। व्यंग्यकार खुद को मानते हो तुम, इतना काफी है। पर ये जिद ना रखो कि सब भी ऐसा मानें। रचना को रिवार्ड मानो और लगातार बेहतर करने पर जान लगाओ और आखिरी फैसला वक्त पर छोड़ दो। पढ़ने के लिए, सोचने के लिए, आबजर्व करने के लिए वक्त बहुत कम है भाई। सिर्फ और सिर्फ इन सब पर ध्यान लगाओ। संक्षेप में आप खुद को व्यंग्यकार मान लें, शुरु इससे करें, अलाना-फलानाजी की तरफ देखें भी मत। काम दमदार होगा, तो कई पाठक भी आपको व्यंग्यकार मान लेंगे, अलाना-फलाना के रिजेक्शन के बावजूद पाठक आपको व्यंग्यकार मानें, यह बहुत कीमती बात है। और फिर आखिरी बात समय पर छोड़ दें, कई सालों बाद जो रचना और रचनाकार वक्त की छलनी के पार जाता है, वह साबित करता है कि उसका काम मजबूत काम था, जो वक्त के पार गया। जलेबी-दारु-रिजर्वेशन से हासिल महानता बहुत आगे नहीं जाती।
(देश मंथन 13 जून 2016)

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