अपना लाइक उर्फ अपनी लाइफ

0
315

आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार  :

किसी वेबसाइट से खरीदारी करनेवाले जानते हैं कि कोई आइटम वहाँ से खरीदकर लौटना आसान नहीं होता, खरीदारी के फौरन बाद वेबसाइट बताती है कि जिन्होने आप जैसे ये सामान खऱीदा था, उन्होने ये, ये और ये भी खरीदा था, ये, ये आइटम लाइक किये थे।

अरे भई, क्या जरूरी है यह बताना कि उन्होने वो, वो और वो भी खऱीदा था और ये-ये लाइक किया था। जो हमारी मर्जी थी, वह हमने खरीद लिया, अब हमें यह क्यों बताया जा रहा है कि उन्होने ये ये खरीदा था। उनकी जरुरत थी उन्होने खरीद लिया अपने हिसाब से। हमारी जरुरत है, तो हम अपने हिसाब से खऱीदेंगे।

हर साल दिल्ली के पास लगनेवाले सूरजकुंड मेले के आसपास दिल्ली के कई घरों में कुछ इस तरह का संवाद चलता है-

पड़ोसवाली मिसेज गुप्ता तो हो आयीं सूरजकुंड के मेले में।

ठीक है, उनको जाने की जरुरत थी, वो हो आयीं। हमें तो कुछ खरीदने की जरुरत नहीं है, हम क्यों जायें सूरजकुंड मेले में।

अरे पड़ोस की मिसेज गुप्ता जाकर आयी हैं, तो एक बार जाना बनता है। मेरे आफिस की कलीग मिसेज सिंह भी हो आयीं सूरजकुंड। वह सूरजकुंड के अपने किस्से ठेलती हैं, तो मेरे पास चुप रहने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। जरूरी है कि मिसेज सिंह जब अपना सूरजकुंड बघारें, तब मैं भी मुकाबले में अपना सूरजकुंड खड़ा कर दूँ।

मिसेज सिंह सूरजकुंड हो आयीं, तो हमारा सूरजकुंड जाना कंपलसरी हो जाता है।

शापिंग वेबसाइट पर और कोई तमाम आइटम ले गया है, लाइक कर गया है, तो हमारा भी नैतिक कर्तव्य बनता है, कि उन आइटमों को लाइक करें और लें मारें।

मिसेज सिंह के लिए जैसे यह संवैधानिक दायित्व है कि वह लौटकर सबको बतायें कि वह सूरजकुंड मेले से होकर आयी हैं।

वैसे ही तमाम शापिंग वेबसाइटें इसे कानूनी जिम्मेदारी समझती हैं कि वह बता दें कि ये, ये आइटम औरों ने लाइक करके खरीदे हैं।

सबकी अपनी-अपनी लाइफ है, सबके अपने-अपने लाइक हैं। हरेक को अपनी लाइफ जीने दो, हरेक को अपने लाइक करने दो। पर ना बेचनेवालो ने लाइफ को लाइक बना दिया है, फेसबुक पर दोस्तों की पोस्ट लाइक करके राहत मिले, तो इधर आ जाओ, दूसरों के खरीदे गये और लाइक किये आइटम खरीदो। मतलब यह सवाल कोई पूछ सकता है कि मिसेज सिंह को यह बताना क्यों जरुरी है कि मिसेज गुप्ता ये ये लाइक कर गयी हैं। पर जरूरी है, बहुत जरूरी है। खरीदनेवाले के लिए जरूरी ना भी हो, तो बेचनेवाले के लिए तो बहुत ही जरूरी है।

कभी-कभी मुझे शापिंग वेबसाइटें गजब की फँसाऊ कारोबारी लगती हैं, साड़ी बेचनेवालों से ज्यादा फँसाऊ। स्मार्ट साड़ी बेचनेवाले स्मार्ट-सेलिंग की शुरुआत यह कहकर करते हैं-देखने में क्या जा रहा है। देख लीजिये, देखने के पैसे थोड़े ही हैं। दिखाना शुरू करते हैं। फिर सामनेवाली की आँखें पढ़ कर समझ में आ जाता है कि अब मामला सिर्फ देखने तक नहीं रुकेगा। स्मार्ट साड़ीवाले एक साथ सौ साड़ियाँ पटक मारते हैं दिखाने को।

स्मार्ट शापिंग वेबसाइट कुछ क्लिक में हजारों साड़ियों, हजारों टी-शर्ट दिखाने की क्षमताएँ रखती हैं। देखो, देखो, यह भी देखो। इंटरनेट पर माल बेचनेवाले बहुत ही स्मार्ट हो रहे हैं। नयी तरकीबों पर काम कर रहे हैं। कुछ दिनों में इंटरनेट खरीदारी करनेवालों-करनेवालियों पर ऐसे मैसेज आना शुरू हो जायेंगे-साड़ी का यह नया डिजाइन आया है, सोचा आपको दिखा लें। वरना तो आपकी पड़ोसी मिसेज सिंह इसे लाइक कर सकती हैं इसे। या सूट का नया डिजाइन आया है, पहले आप ही देख लें, वरना तो आपकी किटी पार्टी की मिसेज मिश्रा आपसे पहले ही इसे लाइक कर सकती हैं, तब क्या होगा। किटी पार्टी में आप किसी को अपना चेहरा और साड़ी दिखाने काबिल न रहेंगी।

उफ्फ, हाय, हम क्या खऱीदें, यह और लोग ही तय कर ले रहे हैं। इन फेक्ट तय कर चुके हैं, यह बताकर आप जैसे दूसरे कस्टमरों ने ये, ये आइटम भी खरीद लिये हैं।

कई बार गुस्से में मन करता है कि इन शापिंग वेबसाइटों को ई-मेल कर मारुं कि औरों ने खरीद लिये वो आइटम तो मैं क्या करुं। जाओ भाड़ में।

फिर डर जाता हूँ कि कहीं शापिंग वेबसाइट वाले सबको ये ना बता दें कि आलोक पुराणिक ने इन-इन आइटमों को देखा था, पर ये खरीद नहीं पाये।

डर सच्चा है ना मेरा।

(देश मंथन 27 जुलाई  2016)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें