आम आदमी के नये ताजमहल की कहानी

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निर्देशक सुमित ऑजमंड शॉ की छोटी फिल्में सोशल मीडिया पर जबरदस्त ढंग से वायरल हो रही हैं। जर्मन दूतावास के लिए सुमित ऑजमंड शॉ की निर्देशित लघु फिल्म “लेबे जेट्ज कल हो ना हो” को यू-ट्यूब पर 10 लाख बार से ज्यादा देखा गया और अभी उनकी नयी फिल्म “द मैन हू बिल्ट ऐनदर ताज” को देखने वालों की संख्या 35 लाख को पार कर गयी है। उनकी वायरल हो रही फिल्मों और इस नये ऑनलाइन मंच के बारे में एक बातचीत। 

सोशल मीडिया अपनी लघु फिल्मों को ब्लॉक बस्टर बनाने के लिए आप क्या खास करते हैं?

दूसरे फिल्म निर्माताओं की तरह मैं भी फिल्म में अपना दिल और आत्मा लगा देता हूँ। परफेक्शन के लिए मेरे सतत प्रयास पर वाद-विवाद भी होते हैं, पर मैंने फिल्मों को अपने अनुरूप बनाने का रास्ता अख्तियार किया है, जिसका मतलब है इनको अपना सर्वश्रेष्ठ देना। बाकी जो कुछ भी होता है, ईमानदारी से वो मेरे हाथ में नहीं होता है। ये दर्शक हैं जो तय करते है कि फिल्म ब्लॉक बस्टर होगी या फ्लॉप।

“हू बिल्ट ऐनदर ताज” और इससे पहले “लेबे जेट्ज कल हो ना हो” जैसी फिल्में बनाने और सोशल मीडिया पर रिलीज करने के बारे में कैसे ख्याल आया?

मैं लोगों के आस-पास, रोचक कहानियों की श्रृंखला बना रहा हूँ। “हू बिल्ट ऐनदर ताज” उनमें से एक है। इन खामोश वास्तविक लोगों की दुनिया से मुलाकात कराना और उनका उधार प्यार और सम्मान के रूप में दिलाने का विचार है। ये वो लोग हैं जिनके पास बड़ी पीआर फर्म्स को किराये पर रखने और अपना ढिंढोरा पीटने के लिए पैसे नहीं है। 

“लेबे जेट्ज कल हो ना हो” प्रोजेक्ट उस वक्त भारत में जर्मनी के राजदूत माइकल स्ट्रेनर के साथ था। ये मेरी नवीनतम कहानी “द मैन हू बिल्ट एनॉदर ताज” से बिल्कुल अलग एक प्रोजेक्ट था। वह एक हास्य-विनोद था, जबकि ताज वाली कहानी भावनात्मक है। पर पूरा विचार वो है जो फिल्म को दर्शकों से जोड़े। यह कोई भी विषय या भावना हो सकती है, लेकिन जुड़ाव का होना जरूरी है।

आपकी पृष्ठभूमि क्या है और इन डिजिटल फिल्मों का निर्माण कैसे हुआ?

मैं भारतीय जन संचार संस्थान से प्रशिक्षित एक पत्रकार हूँ। लेकिन मैंने जिस माध्यम को चुना, वो दृश्य है न कि प्रिंट। मैने प्रिंट पत्रकार के रूप में शुरुआत की थी, लेकिन अखबार में भी मैंने कहानियों के चित्रण के लिए दृश्य माध्यम की भाषा का इस्तेमाल किया। इसलिए मैंने फिल्में बनाने का निर्णय लिया। जन सेवा के लिए कई विज्ञापन फिल्मों का निर्माण किया, मुख्य धारा की विज्ञापन फिल्में, वृत्तचित्रों, कॉर्पोरेट फिल्में, म्यूजिक वीडियो बनाये और अब नये जमाने के मीडिया के लिए इन वीडियो का निर्माण किया है। मैंने डिजिटल फिल्म बनाने का चुनाव नहीं किया, बल्कि इसने मुझे चुना है। नयी तकनीक और नयी मीडिया धीर-धीरे मुझमें और मेरे काम में समाहित हो गया और मैं इसे करने लगा। अब मैं इसमें आनंद का अनुभव करने लगा हूँ।

दूसरी किन योजनाओं पर आप काम कर रहे हैं?

मैं अपनी पहली फीचर फिल्म पर संजय मिश्रा, प्रशांत नारायण और अंजलि पाटिल के साथ काम कर रहा हूँ। ये एक ट्राईलोजी है जिसमें काफी दिमाग भी है और काफी मसाला भी है। हम 2016 में इसके रिलीज होने की उम्मीद कर रहे हैं। फीचर फिल्म के अलावा कई योजनाएँ साथ चल रही हैं – मजाकिया रियल्टी शो से लेकर हास्य सिटकॉम्स तक।

मैं इस डिजिटल स्पेस के लिए लघु फिल्मों की संभावनाओं की तलाश जारी रखूँगा। कुछ स्क्रिप्टें पूरी  होने अवस्था में हैं, इसलिए उनके निर्माण की उम्मीद करता हूँ। सोशल मीडिया का यह नया डिजिटल प्लेटफॉर्म हमें नये प्रयोग करने की कई संभावनाएँ प्रदान करता है, क्योंकि इसके दर्शक पूरी दुनिया में हैं। इसलिए लोगों के लिए रचनात्मक वीडियो बनाने का विचार है।

(देश मंथन, 07 नवंबर 2015)

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