संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
नीरो कभी बाँसुरी नहीं बजाता था। उसे बाँसुरी बजानी भी नहीं आती थी। जिसे बाँसुरी बजानी आयेगी, वह नीरो नहीं हो सकता।
फिर यह मुहावरा कहाँ से चल पड़ा कि ‘जब रोम जल रहा था, तब नीरो बाँसुरी बजा रहा था’।
दरअसल जब आप अंग्रेजी में इसी मुहावरे को सुनेंगे तो उसका अर्थ यह होगा कि जिस दिन रोम की तमाम ऐतिहासिक इमारतें जल रही थीं, उस दिन वहाँ की जनता भाग कर अपने राजा नीरो के पास गयी, तो नीरो रोम से दूर एक नदी के किनारे खड़ा होकर चैन से मुस्कुरा रहा था।
जो चैन से होते हैं, वही बाँसुरी बजा सकते हैं। इसीलिए हिन्दी में कहावत बनी कि वह चैन की बंसी बजा रहा था। दरअसल बाँसुरी बजाने के लिए तन और मन को चिन्ता-फिक्र, आकांक्षा, महत्वाकांक्षा और दूसरी सभी चीजों से दूर करना पड़ता है। बंसी होठों से निकलने वाली फूंक से नहीं, दिल से निकलने वाली तरंगों से बजती है।
मैं नीरो से कभी नहीं मिला। लेकिन मेरी आदत है कि जब मैं किसी अनजान शहर की ओर निकलता हूं, तो वहां की सभी उपलब्ध जानकारियों पर एक नजर डालता हूं। और इसी क्रम में जैसे ही मुझे पता चला कि मुझे रोम जाना है, तो मेरा ध्यान सबसे पहले दो बातों की ओर गया।
एक तो यह कि ऐसा क्यों कहा जाता है कि रोम एक दिन में नहीं बना। और दूसरी बात यह कि जिस दिन रोम जल रहा था, नीरो को बाँसुरी बजाने की क्यों पड़ी थी।
दोनों सवालों के जवाब मैंने रोम में तलाशे।
आज नीरो की कहानी, फिर कभी रोम के निर्माण की कहानी।
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नीरो दरअसल महत्वाकांक्षा की कोख से निकले एक आदमी का नाम था। जिस व्यक्ति के बारे में मुझे पहली बार में ही पता चल गया कि वह महत्वाकांक्षा की कोख से निकला था, उसके बारे में मैं आश्वस्त था कि वह बंसी बजाना नहीं जानता होगा। इसकी तस्दीक हुई, रोम में मिलने वाले गाइडों से। मैंने ग्लैडिएटर्स के लिए लड़ने वाली जगह, कोलजियम से बाहर निकलते हुए इतालवी गाइड से पूछा था कि नीरो कैसा राजा था। और क्या वह बांसुरी बजाने के लिए जाना जाता है, यहाँ इटली में?
गाइड ने मेरी ओर घूर कर देखा। मानो मैंने उसके किसी जख्म पर नमक छिड़क दिया हो। उसने कहा कि इतने वर्षों से वह गाइड का काम कर रही है, पर आजतक किसी ने उससे नीरो के बारे में नहीं पूछा। मैं पहला पर्यटक था, जिसने नीरो की बात की। पर नीरो के साथ बाँसुरी वाली बात कहाँ से जुड़ी यह उसकी समझ के परे था। उसने कहा कि कई सौ साल पहले, शायद हजार से भी ज्यादा साल पहले नीरो नामक एक राजा हुआ करता था। उसने सुना है कि वह बेहद अत्याचारी था।
फिर वह रुकी। उसने मुझसे सवाल किया, “अत्याचारी बाँसुरी बजा सकता है क्या?”
मुझे मेरे सवाल का जवाब मिल गया था। मैंने भी कई जगह तलाशने की कोशिश की थी कि क्या सचमुच नीरो बंसी बजाया करता था?
मुमकिन ही नहीं है।
हमारे धर्म ग्रंथों में भी कृष्ण के तभी तक बाँसुरी बजा पाने की चर्चा है, जब तक कि वो युद्ध, छल, प्रपंच से दूर थे। जिस दिन उन्होंने खुद को युद्ध की आग में झोंक दिया, उस दिन भले सिंधु की तरंगों में उनका चेहरा नजर आ जाये, हिमालय के शिखर पर भी उनका नाम दिख जाये, लेकिन कहीं से संगीत की तरंगें उनके आसपास उठती हुई नहीं नजर आती। ज्वालामुखियों के विस्फोट में धमाके गूँजा करते हैं, संगीत और प्यार की तरंगें तो उस विस्फोट की कल्पना मात्र से ध्व्स्त हो जाती हैं। इसीलिए युद्ध की लपटों की कहानियों में आपको एक बार भी संगीत प्रेमी कृष्ण नजर नहीं आता। न संगीत है, न प्रेम।
तो जैसे ही इतालवी गाइड ने कहा कि नीरो तो अत्याचारी शासक था, मेरे मन में यह स्पष्ट हो गया कि प्रेम और संगीत से वह हजारों मील दूर था।
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नीरो एक नाम है, क्लाडियस वंश के आखिरी उत्तराधिकारी का। उसकी माँ एग्रिपिना रोमन सम्राट आगस्तन की परपोती थी। नीरो उसके पहले पति का बेटा था, लेकिन उसने अपने मामा से इस लालच में शादी कर ली कि उसका बेटा नीरो ही रोम का सम्राट बनेगा।
जिस तरह महाराज शांतनु ने मल्लाह कन्या सत्यवती को वचन दे दिया था कि उनकी कोख से उत्पन्न संतान ही हस्तिनापुर की गद्दी संभालेगी, उसी तरह एग्रिपिना के मामा पति क्लाडियर प्रथम ने उसे वचन दे दिया कि नीरो ही राजा बनेगा।
नीरो छोटा ही था पर उसकी माँ को एक समय पर ऐसा लगने लगा कि शायद नीरो को सम्राट न बनाया जाये। इस ख्याल के मन में आते ही, उसने अपने पति को जहर देकर मरवा दिया और नीरो को रोम का राजा घोषित कर दिया।
नीरो को रोम के लोगों ने स्वीकार भी कर लिया। पर नीरो को लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। राजा बनने पर उसने हजार वादे किये। पर समय के साथ उसकी दिलचस्पी निजी सुख और महिलाओं तक सिमट कर रह गयी। लिखने बैठूंगा तो बहुत लंबी कहानी बन जायेगी, पर सच यही है कि उसने कई विवाह किए। अपनी कई पत्नियों को उसने जहर देकर मरवा दिया। कई लड़कियों से उसने जबरन शादी की कोशिश की, जिसने मना किया उसे भी उसने मरवा दिया।
इस तरह अपने शासन काल में वह बहुत अलोकप्रिय राजा घोषित हो गया।
नीरो का अपना मन था कि कई पुरानी इमारतों को मिटा कर उस जमीन पर वो अपने लिए एक अति आलीशान महल बनवाये। मुझे नहीं पता कि उन दिनों जमीन कब्जाने के लिए किस तरह के हथकंडे अपनाये जाते रहे होंगे, पर यह सच है कि एक दिन रोम की कई इमारतें धधक कर जल उठीं। उन दिनों टीवी और अखबार नहीं हुआ करते थे, जाहिर है कहीं यह ब्रेकिंग न्यूज नही चली या छपी कि रोम कैसे एकाएक झुलस उठा है। पर दबे-छुपे लोगों ने आरोप लगाया कि नीरो ने ही जमीन पर कब्जा करने के लिए यह आग लगवाई है, और खुद रोम के बाहर नदी किनारे आराम से बैठा है।
कई लोग जिन्हें अंत तक राजा की सत्ता और उसके न्याय पर भरोसा होता है, वो नीरो के पास पहुँचे। उन्होंने नीरो से गुहार लगायी कि हुजूर रोम जल रहा है और आप यहाँ बैठे हैं। चलिए, रोम चलिए। उस आग को बुझाने की कोशिश कीजिए, कुछ फरमान जारी कीजिए। पर नीरो मुस्कुराता रहा।
यही है राजनीति।
जब हम उससे कुछ उम्मीद कर बैठते हैं, जो खुद उसका कारक होता है, तो आपको मौन और मुस्कुराहट के सिवा कुछ नहीं मिलता।
भोली जनता इस सच को तत्काल नहीं समझ पायी। तो उसने यही कहा कि जब रोम जल रहा था, नीरो चैन से बैठा था।
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रोम जल गया। नीरो ने बाद में अपने लिए आलीशान महल भी बनवाया। महल के अवशेष रह गये, नीरो का अवशेष मिट जाना था, मिट गया।
नीरो की कहानी इतनी दिलचस्प नहीं कि उसे अंत तक आपको सुनाऊँ, पर इतना बताना तो बनता है कि बाद में नीरो अपने खिलाफ विरोध के युद्ध में फंस गया और गिरफ्तारी, फांसी के डर से उसने खुद को मार लिया।
दुनिया का इतिहास उठा कर पढ़ लीजिए। हर अत्याचारी का अंत ऐसे ही होता है।
ईसा मसीह के जन्म के सौ साल के भीतर की यह कहानी है। साल की गिनती शुरू हो चुकी थी। इस तरह इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि नीरो का जन्म 15 दिसंबर 0035 में हुआ था और 9 जून 0068 में उसकी मृत्यु हो गयी।
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पर मुझे लगता है कि नीरो मरा नहीं है। नीरो मरा नहीं करते। रोम अब भी जलते हैं, नीरो अब भी कहीं दूर चैन से बैठ कर मुस्कुरा रहे होते हैं।
मैं उनके मुहावरे में बंसी की बात नहीं लिख सकता, क्योंकि बंसी बजाने वाले रोम न जलाते हैं, न उसके जलने पर मुस्कुराते हैं।
(देश मंथन, 17 अगस्त 2015)