पूरी जिन्दगी एक धोखे में कट गयी

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

कल जबसे मुरारी बापू का फोन आया कि संजय सिन्हा तुम बहुत अच्छी कहानियाँ लिखते हो, मैंने तुम्हारी तीनों किताबें पढ़ीं और अपनी कई कथाओं में तुम्हारा नाम लिया है, मेरे पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे। 

मैं मुरारी बापू से कभी नहीं मिला। पर उन्होंने फोन करके मुझे आशीर्वाद दिया, यही क्या कम है? अब तक मेरी कहानियाँ लोगों की फेसबुक वॉल पर और व्हाट्सऐप पर दौड़ रही थीं, कई लोग अपने नाम से भी छाप रहे थे, ऐसे में बापू के मुखारविंद से मेरी कहानियाँ जन-जन तक पहुँच रही हैं, तो मेरे साथ-साथ आपको भी खुश होने का हक है। आखिर मैं कौन हूँ?

मैं भी तो आप ही हूँ। 

हस्तिनापुर के मैदान पर जब युद्ध खत्म हो चुका था। दुर्योधन का शव जमीन पर पड़ा था और गाँधारी अपनी आँखों से पट्टी हटा कर पहली बार दुर्योधन के शरीर को देख कर चीत्कार उठी थीं। सामने कृष्ण खड़े थे। गाँधारी ने कृष्ण को देख कर कहा था कि जिस तरह मेरा पुत्र यहाँ युद्ध के मैदान में तड़प-तड़प कर मरा है, उसी तरह तुम भी तड़प-तड़प कर मरोगे।

माँ के मुख से यह शाप सुन कर कृष्ण मुस्कुराने लगे। 

मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा था, “माँ, मर गये जो तुम्हारे सौ पुत्र वो कौन थे? वो मैं ही था। बचे हैं जो पाँच पाँडव वो कौन हैं? वो भी मैं ही हूँ। यहाँ युद्ध स्थल पर पड़ा है जिस दुर्योधन का शरीर, वो कौन है? वो भी मैं ही हूँ। युगों-युगों तक भटकेगा जो अश्वथामा, वो भी कौन है? वो भी मैं ही हूँ। 

माँ, फिर भी तुमने मुझे दिया है जो शाप, वो मंजूर है मुझको।”

***

“मैं कौन हूँ?”

यह सवाल संसार का सबसे अबुझ सवाल है। हम सब कभी न कभी यह सवाल खुद से करते ही हैं कि मैं कौन हूँ। हम दूसरों को तो जानते हैं, पहचानते भी हैं, पर खुद को नहीं। सबसे कम राय हमारी खुद के बारे में होती है। 

मैंने ‘येलेना’ की कहानी आपको सुनाई। ‘एना’,’सोफिया’ और ‘ल्युदमिला’ की कहानी भी आपको सुनाई। फिर ‘रूना लैला’ की कहानी भी सुना दी। अब रह गयी है मैरियाना, ओल्गा और एलिजाबेथ टेलर की कहानी। 

सोच रहा हूँ उनकी कहानियाँ भी सुना दूँ तो ये अध्याय पूरा हो जाएगा। उसके बाद मैं आजाद हो जाऊंगा और उन भाई-बहनों की कहानी सुना पाऊंगा, जो रोज नींद में मुझसे आ कर पूछ रहे हैं कि मेरी कहानी कब?

मैं कौन हूँ? 

मेरी कहानी कब? 

येलेना ने भी यही पूछा था कि मैं कौन हूँ? रूना ने भी यही पूछा था कि मैं कौन?

फिल्म दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे में सिमरन की माँ ने भी यही पूछा था, मैं कौन?

आपको याद होगा कि सिमरन की माँ अपने पति के साथ इतने वर्षों तक रहने के बाद भी अपनी बेटी और उसके प्रेमी को उकसा रही थी कि ‘तुम दोनों भाग जाओ, मैं तुम्हारे साथ वो नहीं होने दूँगी जो मेरे साथ हुआ’। रूना लैला ढाका के अपने बंगले में अपनी प्रेम कहानियाँ सुनाते हुए जब-जब अपनी आँखें पोछतीं तो, मुझे लगता कि सचमुच औरत अपने प्रेम के प्रयोग में जब नाकाम हो जाती है, तो उसके लिए जिन्दगी बहुत मुश्किल हो जाती है। दुर्भाग्य ये कि प्रेम का पहला प्रयोग गलत हो गया, तो फिर दुबारा गलती होने की आशंका और बढ़ जाती है। पर सबसे बुरा तब हो जाता है जब सिर्फ ‘सिमरन’ की माँ बनने के लिए उसे सिमरन के पिता से शादी करनी पड़ जाती है। जाहिर है, तिल-तिल कर गुजारी गयी जिन्दगी ही उसे मजबूर करती है ये कहने के लिए, “तुम भाग जाओ सिमरन, राज के साथ। मैं तुम्हारे साथ वो नहीं होने दूँगी, जो मेरे साथ हुआ।” फिल्म ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ अगर मैं बना रहा होता, और कहानी में ये वाला डॉयलाग मैं फिल्म बनाते हुए सुन लेता, तो फिल्म वहीं रोक कर लेखक से पूछता कि इतने वर्षों तक आखिर सिमरन की माँ ने अपने पति को क्यों पता नहीं चलने दिया कि वो उसके साथ जिन्दगी जी रही है, पर वो उसे पसंद नहीं। मैं कहानी रोक कर जरूर जानना चाहता कि सिमरन की माँ ने आखिर ऐसा कहा ही क्यों कि तुम दोनों भाग जाओ, मैं तुम्हारे साथ वो सब नहीं होने दूँगी…। तो क्या सिमरन की माँ के दिल में अपने ‘प्रेम’ के साथ नहीं रह पाने का दंश इतना गहरा छिपा था कि अपनी ही बेटी को ‘राज’ के साथ भाग जाने के लिए उकसा कर उसे संतोष मिल रहा था? तो क्या ज्यादातर महिलाएँ, जो अपनी चाहत के करीब नहीं पहुँच पातीं, वो नकली खुशी होठों पर लपेटे हुए रात, दिन, महीने, साल अपने पति के साथ गुजारती चली जाती हैं?या फिर ज्यादातर महिलाओं को पुरुष समझ ही नहीं पाते, और अपनी पंद्रह मिनट की खुशी के आगे उनका कजरा-गजरा सब धरा का धरा रह जाता है? 

मैं एकबार हॉलीवुड की सबसे खूबसूरत नायिका एलिजाबेथ टेलर से अमेरिका के लास वेगास शहर में मिला था। तब वो बहुत बूढ़ी हो चुकी थीं, और व्हील चेयर पर थी। उन्हे देख कर मुझे बहुत दुख हुआ था कि ये वही हुस्न की परी एलिजाबेथ है जिसने एक बार नहीं, आठ-आठ बार शादियाँ की थीं। आप में से बहुत से लोगों ने उनकी मुहब्बतों की कहानियाँ सुनी होंगी कि कैसे एक-एक कर उन्होंने आठ बार शादियाँ कीं। किसी के साथ साल गुजार कर उन्हें लगा कि ये उनके आँखों के ‘कजरे’ की भाषा नहीं समझ रहा, किसी के साथ दो साल रह कर उन्हें लगा कि उनके ‘गजरे’ की खुशबू उस शख्स के लिए कोई मायने नहीं रखती। 

मैं उनसे 2001 में मिला था, यानी उनकी मौत से करीब 10 साल पहले। 79 साल की उम्र में अगर उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, तो उसके दस साल पहले मुझे वो व्हील चेयर पर बहुत बीमार दिखी थीं, बीमार क्या, मैं तो कह सकता हूँ कि मर चुकी दिखी थीं।लोग बता रहे थे कि वो लास वेगास कभी-कभी यूँ ही आया करती हैं, उस सिन सिटी (पाप के शहर) में अपनी पुरानी खुशियों की याद को तरोताजा करने, अपने जख्मों को भुलाने। लेकिन अब वो किसी से मिलना पसंद नहीं करतीं। वो अपनी तस्वीर खिंचवाना नहीं चाहतीं। उन्हें अब ग्लैमर वर्ल्ड से नफरत है। आखिर क्यों?जिसकी पूरी जिन्दगी लाइट, कैमरा और ऐक्शन के बीच गुजरी हो, जो करोड़ों, अरबों डालर की मालकिन हो, जिसकी हर अदा पर कभी लाखों करोड़ मरने को तैयार रहे हों, क्या उसे किसी ‘एक जगह’ इतनी खुशी नहीं मिली होगी कि वहीं रुक जाती? क्या उसकी जिन्दगी में एक ऐसा पुरुष नहीं आया, जो उसे समझ पाता? यही सवाल रूना लैला के सामने भी था। क्या रूना लैला को अपनी जिन्दगी में भी एक ऐसा पुरुष नहीं मिला, जो वो उसी के साथ बाकी के जीवन खुशी से गुजार देती? क्या चार-चार शादियाँ करने के बाद भी उन्हें उनका ‘राज’ नहीं मिला और वो सिमरन के पिता के साथ जिन्दगी यूँ ही गुजारती रहीं? बड़ा अजीब सवाल है। सिनेमा के संसार में तो महिलाएँ ‘बोलने’ और ‘करने’ का दम रखती हैं। इसलिए वो अपने प्यार के वजूद की तलाश में रिश्तों के प्रयोग कर पाने का दमखम दिखा देती हैं। लेकिन हकीकत में हमारे आपके घर की महिलाएँ शायद अपनी-अपनी ‘सिमरन’ के पिताओं को जाहिर भी नहीं होने देतीं कि तुम नहीं हो, तुम कभी थे ही नहीं मेरे सपने के राजकुमार। तुम सिर्फ सिमरन के पिता हो, और पिता हो इसलिए मैंने तुम्हारे साथ जिन्दगी भले गुजार दी लेकिन तुम्हारे साथ मैंने अपना एक पल नहीं गुजारा है। वो पल मैंने अपने ‘राज’ को दिया है। उसकी यादों को दिया है। मुझे वो एक राज नहीं मिला इसलिए मैं भले रूना लैला और एलिजाबेथ टेलर की तरह बार-बार किसी और राज की तलाश न कर पाऊं और तुम्हारे साथ ही जिन्दगी गुजार दूँ, पर अपनी सिमरन के साथ वो नहीं होने दूँगी। फिल्म दिलवाले दुल्हनिया देख कर मुझे बहुत हैरानी होती थी कि आखिर सिमरन के पिता जब इस फिल्म को देखेंगे और उन्हें पता चलेगा कि उनकी पत्नी दरअसल अपनी बेटी से ये कह रही है कि तुम्हारे साथ वो नहीं होने दूँगी, जो मैं नहीं कर पाई…तो फिर क्या पूरी जिन्दगी एक धोखे में कट गयी? क्या सचमुच वो अपनी पत्नी की आँखों के कजरा और बालों में गजरा की भाषा को नहीं समझ पाए? नहीं समझ पाए तभी तो वो कह रही थी, “जाओ सिमरन, जाओ। भाग जाओ। बाऊजी को मैं देख लूँगी…।” सोचता हूँ कि सचमुच दुनिया की तमाम सिमरनों की मम्मियों अगर एक बार ये मौका दिया जाए कि जाओ जाकर अपनी जिन्दगी जी लो, तो क्या वो सब की सब निकल भागेंगी सिमरन के पिताओं की चंगुल से? 

क्या वो सब भी रूना लैला और एलिजाबेथ टेलर की तरह मुहब्बत के कई प्रयोग कर गुजरेंगी? ये भी सोचता हूँ कई-कई बार कि क्या मेरी पत्नी भी ऐसा सोचती होगी कि काश उसे एक मौका और मिल पाता अपनी जिन्दगी जीने का? इस सच का पता तो कभी सिमरन के पिता को भी नहीं चला और पूरी फिल्म खत्म हो गई। इस सच का पता दुनिया के किसी सिमरन के पिता को नहीं चलने वाला, चाहे उनकी भी पूरी फिल्म खत्म क्यों न हो जाए? इस सच का पता मुझे भी नहीं चलेगा। अब क्या चलेगा? अपनी फिल्म भी तो इंटरवल से ज्यादा पार कर चुकी है।

***

जिन्दगी की फिल्म पूरी हो जाए, उससे पहले जरूरी है कुछ सवालों के जवाब तलाशना। मैं तो तलाश ही रहा हूँ, आप भी तलाशिए।

(देश मंथन 07 अगस्त 2016)

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