अफसोस

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मैंने कल लिखा था कि दिल्ली के मैक्स अस्पताल में एक बेटी अपने पिता के ऑपरेशन के बाद उनकी तस्वीर अपने भाई को भेजना चाहती थी, जो अमेरिका में रहता है। उसका सोचना था कि भाई वहाँ परेशान होगा और पिता की तस्वीर देख कर बहुत खुश होगा। पर डॉक्टर ने उसे पिता से बात कराने की ही अनुमति दे दी।

डॉक्टर ने उस लड़की से कहा कि आप स्पीकर ऑन करके पिता की बेटे से बात ही करा दीजिए। मैं वहीं खड़ा था, बेटे ने स्पीकर पर अपनी बहन से कहा कि अभी वो बात नहीं कर सकता, अमेरिका में उस वक्त रात थी। उसने कहा था कि सुबह वो बात कर लेगा।

मैंने अपनी पोस्ट में लिखा कि सचमुच उस वक्त वहाँ अंधेरा था, यहाँ उजाला था। और आखिरी लाइन में मैंने यह निष्कर्ष निकाला था कि मुझे बेटियाँ अच्छी लगती हैं, क्योंकि जहाँ बेटियाँ होती हैं वहाँ उजाला होता है। 

इस पोस्ट पर आप सबकी खूब प्रतिक्रियाएँ आईं। कई लोग भावुक हो गये। कई लोगों ने माना कि सचमुच जहाँ बेटियाँ होती हैं, वहाँ उजाला होता है। पर कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि यह एक काल्पनिक कहानी है, कुछ लोगों ने लिखा कि मुझे कोई हक नहीं कि मैं इस तरह लिंग भेद करूँ। कुछ लोगों ने कहा कि सारे बेटे ऐसे नहीं होते। कई लोगों नें मुझे मैसेज भेज कर कहा कि इस तरह तो आपने संसार के सभी बेटों को अंधेरे की गिरफ्त में करार दे दिया। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि संजय सिन्हा आप भी तो एक बेटा हैं, आप बेटों के विषय में ऐसा कैसे कह सकते हैं।

आम तौर पर मैं रोज एक पोस्ट लिखता हूँ। उस पर जो प्रतिक्रियाएँ आती हैं, उन्हें बहुत ही सकारात्मक अंदाज में लेता हूँ। मैं हर एक प्रतिक्रिया को बहुत गंभीरता से पढ़ता हूँ। उन पर अपनी प्रतिक्रिया भले न जताऊँ, लेकिन सच सही है कि आपके लिखे एक-एक शब्द मेरे लिए अनमोल होते हैं। ऐसे में आज मुझे अपनी पोस्ट पर सिर्फ इसलिए लिखना पड़ रहा है, क्योंकि मैं सचमुच इस बात की सफाई देना चाहता हूँ कि मैंने पोस्ट में यह कतई नहीं लिखा था कि संसार के सभी बेटे ऐसे होते हैं। मैंने एक घटना का जिक्र भर किया था। मैंने लिखा था कि दिल्ली में एक बेटी अपने पिता के सफल ऑपरेशन की खबर अपने भाई तक पहुँचाना चाह रही थी। यह एक भौगोलिक सच्चाई है कि उस वक्त अमेरिका में रात थी। मैंने उस भौगोलिक सच्चाई को अपनी भाषा में ट्रांसलेट भर किया था कि जहाँ बेटी थी, वहाँ उजाला था। 

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पहली बात तो यह कि यह एक सच्ची घटना थी जो मेरे सामने घटी थी। मुमिकन है, वहाँ मौजूद बाकी लोगों के लिए इसमें कुछ खास न रहा हो। मुमकिन है कि बेटे ने बहन से यूँ ही कह दिया हो कि अभी क्या बात करूँगा, अभी तो यहाँ रात है। यह तो पक्की बात थी कि उसे यह नहीं पता रहा होगा कि फोन स्पीकर पर है और ठीक ऑपरेशन थिएटर के बाहर यह सब हो रहा है। पर यह एक घटना भर थी। 

अब इसे इस तरह सोचिए। बहन को लग रहा था कि भाई अमेरिका में पिता की चिंता कर रहा होगा। अगर उस वक्त यहाँ दोपहर का एक बज रहा था, तो अमेरिका में उस वक्त रात का एक बज रहा होगा। जिस वक्त बहन ने अपने पिता को ऑपरेशन के लिए भेजा होगा, यहाँ सुबह रही होगी। मैं सबकुछ मान लेने को तैयार हूँ, पर मेरा दिल अब भी यह मानने को नहीं तैयार कि रात के चाहे जितने बजे हों, बेटे को पिता से फोन पर बात करने की इजाजत मिली हो तो वह उसे आधी रात कह कर गंवा दे। 

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बहुत सी वज़हों से बहुत से माँ-बाप और बच्चों के बीच मधुर संबंध नहीं होते। मैं इस बात के विस्तार में नहीं जा रहा कि किसी बच्चे और उसके पिता के बीच संबंध कब और कैसे कमजोर पड़ जाते हैं। जहाँ ऐसी परिस्थिति बन जाती है, वहाँ मैंने देखा है कि कई बच्चे तो माता-पिता की मरनी तक में नहीं आते। यह एक अलग विषय है। लेकिन मेरी कल वाली पोस्ट को लिखते हुए मेरे मन में यह बात लगातार बनी हुई थी कि बेटे को पिता के ऑपरेशन की पूरी जानकारी थी। संभवतया वह अपनी बहन के लगातार संपर्क में भी था। और जिस वक्त पिता बाहर आये, वह सो गया होगा। मेरी कहानी वहीं थम गयी। कोई कितनी भी गहरी नींद में हो, क्या वह अपने पिता या माँ के फोन पर नहीं जाग सकता?

बस इतना सा मेरा सवाल था। इसी सवाल पर मैंने एक घटना विशेष का जिक्र किया था। 

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जिस दिन गाँधी जी के पिता बहुत बीमार थे, गाँधी जी सारे समय अपने पिता के सिरहाने बैठे थे। पिता की अंतिम साँसें चल रही थीं और गाँधी जी यह समझ नहीं पाए कि पिता की हालत कितनी गंभीर है। वो अपने कमरे में चले गये। जिस घड़ी वो अपनी पत्नी के साथ अंतरंग संबधों में डूबे थे, उनके कानों में घर के लोगों के रूदन की आवाज आयी। गाँधी जी समझ गये कि पिता चल बसे हैं। गाँधी जी ने ऐसा अपनी आत्मकथा में ही लिखा है कि उन्हें जीवन भर इस बात का अफसोस रहा कि पिता के अंतिम समय में उनका साथ छोड़ कर वो पत्नी के साथ संबंध बनाने में व्यस्त थे। 

यकीनन यह अफसोस की बात थी। किसी भी पुत्र को इस बात का मलाल होना चाहिए कि जब उसके जन्मदाता असह्य पीड़ा से गुजर रहे हों, तब उसकी नींद इतनी गहरी नहीं होनी चाहिए कि वो उनसे बात भी न कर सके। 

मैं खुद अपने विषय में पहले कई बार यहीं फेसबुक पर लिख चुका हूँ कि मैं रात में आज भी पायजामा पहन कर नहीं सोता। मैं हमेशा तैयार सोता हूँ। मैं हमेशा पूरे कपड़ों में सोता हूँ। और इसकी वजह सिर्फ इतनी है कि मेरे पिता की रात में अक्सर तबीयत खराब हो जाया करती थी और मैं खुद को हमेशा इस बात के लिए तैयार रखता था कि उन्हें लेकर मुझे कभी भी अस्पताल भागना पड़ सकता है। पिता को संसार से गये करीब 19 वर्ष बीत चुके हैं, पर मेरी आदत नहीं बदली। मैं आज भी चैन की नींद नहीं सोता। सच सकूँ तो मैं कभी बहुत गहरी नींद में नहीं सोया। अब तो मुझसे डॉक्टर तक कहने लगे हैं कि मुझे गहरी नींद में सोना चाहिए। 

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मैं एक बार फिर दोहरा रहा हूँ कि कल जो मैंने लिखा था, वह सिर्फ एक घटना विशेष भर है। मैं खुद एक बेटा हूँ। मेरा भी एक बेटा है। फिर भी मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मुझे बेटियाँ अच्छी लगती हैं। सचमुच जहाँ बेटियाँ होती हैं, वहाँ उजाला होता है। 

(देश मंथन, 22 अगस्त 2015)

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