अलाउड नहीं है…

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सोनम झा :

बस चल रही थी टी.आर.वन ये बैरागढ़ के पहले से आती है और शायद आकृति से दूर तक जाती है मुझे ठीक से नहीं पता। यह भोपाल शहर की खासियत है कि यहाँ कोई भी सवारी हो जल्दी से एक जगह से दूसरी जगह पहुँच जाती हैं और जबसे पिछले चार सालों से ये लाल बसे भोपाल की सड़कों पर सरपट दौरने लगी हैं तब से भोपाल शहर की तो रौनक हीं बढ़ गयी है।

बहुत सारे नामों के साथ इन बहुत सारी लाल बसों ने शहर भर के लोगों का मन मोह लिया है कुछ उन लोगो को छोड़कर जिनको नहीं पता कि बस की भी एक अलग दुनिया होती है। जब ये बसे चलती हैं तो शहर भर की दूसरी सारी बसे अपनी किस्मत को कोसने लगती है कि हम भी लाल बस क्यों नहीं हैं, बसों के समाज में इन लाल बसों का ब‌ड़ा जबरद्स्त रुतबा है, और इन बसों की चाल के दिवाने तो पूरे शहर भर के लोग हैं, जब ये किसी एक मोड़ से दूसरे मोड़ के लिए मुड़ती है तो लगता है गुलमोहर की फूलो से लदी डालिया लचक उठी हो और जब एक स्टैण्ड पर खड़ी हो जाती है, तो मानो लाल फूलो से लबा लब भरी डलिया हो।

उस शाम को सवा आठ बजे होंगे मैने बोर्ड ऑफिस से बस ली और संयोग से मुझे सीट मिल गयी शाम के समय सीट मिल जाना अपने आप में बड़ी बात है और साथ ही गौरव की बात आखिर कुर्सी मिलना मालूली बात नही होती, कोई कुर्सी बिना प्रतियोगिता के नही मिलती बस की सीट भी नही, इसके लिए चौकन्नी आँखों की प्रतियोगिता होती है जैसे हीं आप चुके कुर्सी किसी और की हुई।

बस चुपचाप अपना काम करती हुई आगे बढ़ रही थी कभी कुछ लोग बस पर सवार हो जाते थे तो कुछ लोग़ बस से उतर जाते थे। तभी बस और जगहों की तरह हबीबगंज बस स्टैण्ड पर रुकी और यहाँ पर एक महिला, एक पुरूष, एक छोटी बच्ची और एक ट्रंक बस में सवार हो गये। सीट नही थी काफी लोग पहले से हीं सीट की ताक में चौकन्ने खड़े थे। महिला ने अपना ट्रंक जमाया और बेटी को गोद में लेकर बैठ गयी, ना जाने क्यों चमकते दमकते लोगों को छोड़कर मेरा पूरा ध्यान उस महिला पर था। मैने पहले बक्सा देखा तो मुझे याद आया ऐसा हीं एक जस्ते वाला ट्रंक मेरे “बा” के पास भी था जिसे लेकर वो प्रयाग कल्पवास करने जाती थी। मैने उसके पैरो में नयी लखानी की चप्पल जैसी चप्पल देखी तो मुझे बचपन याद आ गया कि कैसे मैं खुश हो जाती जब पापा पिचके भूरे डिब्बे में मेरे लिए चप्पल लेकर आते थे, तो मैं कितना खुश हो जाती थी पर चप्पल के डिब्बे को देखकर मन दुखी हो जाता था कि कितना पिचका है इसका तो घर भी नही बन पायेगा गुड़िया के लिए और मै चुपचाप प्यार से पापा से पूछती थी पापा इसका दूसरा डिब्बा मिल जायेगा क्या? पापा के कुछ बोलने से पहले दीदी कहती फेको चुपचाप इस डिब्बे को पूरा घर कबाड़ घर बना कर रखी हों, और मैं डर कर डिब्बे को ताखे में छुपाकर रख देती थी, ओह कितनी यादों की मोटरियाँ थी इस महिला के पास।

खैर ये सारी बातें तो अचानक दिमाग में कौध गयी थी, चक-चक लाल सिंदूर, दोनों हाथ भर कड़ा सहित लाल कामदार पक्की चूड़ियाँ, खिची-तनी साड़ी के प्लेट्स, और फिसलता ऑचल और बिखड़े रुखे बाल, बस यही वो श्रृंगार थे जिन्होने मेरा पूरा ध्यान अपने तरफ खिंच लिया था शहर के लोगो के लिए ये देहाती बातें थी और उनके लिए जिनकी ज‌ड़े गांव में है उनके लिए अपनी बाते, क्योकि मुझे पता है कुछ दिनो में वो श्रृंगार के नये- नये रुप सिख जायेगी, फिर वो भीड़ का हिस्सा हो जायेगी कोई उसे ध्यान से नही देखेगा।

महिला बक्से पर बैठी रही और उसका पति उससे दूर जाकर हो गया, महिला उसको बार बार बुला रही थी कि वो भी आकर उस बक्से पर बैठ जाये और उसके पास हीं रही पर पति शहरी होते है, तो उसे पता था कि बस के आगे के पोर्टन में पुरूषों का खड़ा होना अलाउड नही है। बस खचा खच रंग बिरंगे लोगों से भरा हुआ था। महिला की आँखों में चैन नहीं था उसकी बेचैन आँखे परेशान हो जाती थी जैसे हीं उसका पति किसी और के पति के पीछे छिप जाता था। सो वो लगातार बेटी को सीने से चिपकाये एकटक पति को निहारे जा रही थी। तभी अचानक एक सीट खाली हो गयी, तो महिला उसको पकड़ कर खड़ी हो गयी और जोर जोर से आवाजें लगाने लगी “इहां आ जाइये” सीट खाली है दूसरी महिलाओं ने समझाने की कोशिश की पर वो किसकी सुनने वाली थी नहीं “इहां उ बैठेंगे” “बहुत देर से खड़े हैं जनरल डिब्बे से आये हैं हमलोग जबलपुर में गाड़ी चार घंटे बाद पकड़ायी है, वो अपने आप में बड़-बड़ाती रही तभी 12 न. बस स्टैण्ड आ गया पति ने आवाज लगायी यहाँ उतरना है वो भुनभुनाई अभी सीट मिला तो उतरने का समय हो गया। पति ने आकर बक्सा उठाया और बोला एकदम देहाती हो हम इस सीट पर नही बैठ सकते यहाँ आदमी का बैठना अलाउड नही हैं, वो सब उतर गये और मैं खिड़की से जब तक उनको देख पा रही थी देखती रही, उस छोटी सी मुलाकात ने मेरे गॉव, मेरे बचपन से जुड़ी यादों की पोटली को मेरे सामने खोल कर रख दिया और अच्छा लगा जानकर पुरूषो को भी अब पता चल रहा है कुछ बातें उनके लिए भी अलाउड नही हैं।

(देश मंथन, 29 अप्रैल 2014)

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