संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
एप्पल कम्प्यूटर, आईफोन, आईपैड और आईपॉड जैसे खिलौने पूरी दुनिया को देने वाले स्टीव जॉब्स अपने कॉलेज के दिनों में जब पहली बार यूँ ही भारत भ्रमण पर आए थे तो यहाँ के अध्यात्म को अपने साथ ले गये थे।
संचार और मनोरंजन के वो तमाम खिलौने, जिनसे पूरी दुनिया भविष्य में खेलने वाली थी, वो जिन दिनों स्टीव जॉब्स के दिल और दिमाग में आकार ले रहे थे, उस दौरान स्टीव एक दिन के लिए भी भारत के गौरवपूर्ण अध्यात्म को नहीं भूले।
वो ध्यान किया करते थे और ईश्वर में उनकी अगाध आस्था थी। और कैंसर होने के बाद तो स्टीव करीब-करीब हर साल चुपचाप भारत आते और तन-मन की शांति के लिए प्रार्थना करते।
स्टीव जिन दिनों पहली बार भारत आये थे, पूरा अमेरिका हिप्पी संस्कृति से जूझ रहा था। खुद स्टीव लंबे बाल और लंबी दाढ़ी के बीच एक ऊबे हुए इंसान की तरह बहुत समय तक भटकते रहे, लेकिन भारत आने के बाद उन्हें पहली बार अहसास हुआ कि इस संसार के परे भी एक संसार है और अपने इसी अहसास को वो आखिरी दिनों तक जीते रहे।
गीता के कर्मयोग को उन्होंने दिल से आत्मसात किया और जो लोग स्टीव के बारे में ठीक से जानते हैं, जिन्होंने उनके विषय में पढ़ा है, उन्हें पता है कि पूरे संसार को एप्पल नामक इलेक्ट्रानिक खिलौने देने वाला ये शख्स दरअसल कर्मयोगी ही था। जिन दिनों आईपॉड नामक संगीत का छोटा सा और बेहद खूबसूरत खिलौना अमेरिका में आकार ले रहा था, उन दिनों मैं अमेरिका में ही था और मैं खुद उस जश्न का हिस्सेदार रहा हूँ। मैंने अपनी आँखों से एप्पल के छोटे से पौधे को विशाल वृक्ष बनते देखा है और देखा है स्टीव जॉब्स को पूरब की संस्कृति को पश्चिम में पूजते हुए।
पश्चिम के जो लोग भारत आते हैं और यहाँ की संस्कृति से प्रभावित होते हैं, वो एक बार में ही उसे आत्मसात कर लेते हैं। यहाँ के ध्यान और ज्ञान का संपूर्ण संसार में डंका बजता है। गीता के श्लोक उनके कानों में गूंजते हैं। अमेरिका में तमाम लोग ‘हरे रामा-हरे कृष्णा’ की धुन जब झूमते हैं, तो लगता है कि सचमुच भारत के पास कितना कुछ है, पूरी दुनिया को देने के लिए। यहाँ के मंदिर वहाँ भी हैं। यहाँ के लंगर वहाँ भी लगते हैं। जीवन के बाद भी जीवन है, इसे वो भी समझते हैं।
इतनी कहानी सुनाने के पीछे आज मेरा मकसद सिर्फ इतना बताना है कि जिन्हें सीखना होता है, जिन्हें समझना होता है, वो एक बार में सीख और समझ जाते हैं। स्टीव जॉब्स का नाम तो मैंने सिर्फ उदाहरण के लिए लिखा है कि एक बार की अपनी भारत यात्रा में उन्होंने ये समझ लिया कि आत्मा और परमात्मा हैं।
हमारे हुक्मरान भी विदेश जाते हैं। न जाने कितनी बार जाते हैं। हम वहाँ के अनुशासन, वहाँ की भौतिक सुविधाएँ और वहाँ के विकास को सीखने जाते हैं। हम वहाँ की शिक्षा, ट्रैफिक सिस्टम, नाली व्यवस्था, शौच के इंतजाम, आम आदमी की जिंदगी के मोल आदि को हजार बार देख कर आते हैं, लेकिन किसी चीज को आत्मसात नहीं करते।
विदेशी लोग जब भारत आते हैं तो यहाँ की अच्छी चीजों को मन में बसा कर ले जाते हैं। उसे जीवन में उतारते हैं। हम वहाँ देख कर ‘ऊई माँ, ऐसा भी होता है!’ करते हुए दाँतों तले उंगलियाँ दबाते हैं और यहाँ आकर सब भूल जाते हैं। पहले तो जब टीवी और अखबार उतने नहीं थे तो आपको पता भी नहीं चलता था कि किस तरह गली-मुहल्ले के नेता भी आपके पैसों पर हर साल, हर महीने अमेरिका और इंग्लैंड जाते हैं तरह-तरह की विद्याएँ सीखने। संविधान बनाने से लेकर शौचालय बनाने की पढ़ाई हमने विदेश जाकर सीखी है। हम वहाँ देख कर आते हैं कि कैसे सामान्य जन-जीवन रोज की तकलीफों से नहीं गुजरता। कैसे वहाँ की सड़कें सचमुच चमचमाती हैं।
ढेरों चीजें हैं वहाँ सीखने के लिए। वहाँ से लाने के लिए। ढेरों चीजें सीखने के लिए हमारे नेता लोग वहाँ जाते हैं।
और आते हैं तो आपको क्या मिलता है?
असल में किसी भी चीज को सीखने के लिए सबसे बड़ी चीज होती है ईमानदार चाहत। कहने की दरकार नहीं कि हमारे यहाँ के हुक्मरानों में उसकी पर्याप्त कमी है। हमारे यहाँ के लोग विदेश जाने को घूमने-फिरने और समय काटने का शानदार जरिया मानते हैं और रही बात नहीं सीखने की, तो स्कूल-कॉलेज जाने वाले तमाम विद्यार्थी ज्ञानी भी हो जायें जरूरी तो नहीं।
खैर, आज संजय सिन्हा के छोटे भाई सलिल सिन्हा का जन्मदिन है। करीब चालीस साल पहले मेरा भाई इस संसार में आया था और दो साल पहले चला गया।
आज मैं उसकी चर्चा सिर्फ इतने के लिए कर रहा हूँ कि जब वो इस संसार में आया था, तो मैंने सीखा था कि आदमी जब इस दुनिया में आता है तो ढेरों खुशियाँ साथ लाता है। जब तक वो रहा, मैंने खुद को खुशियों में सराबोर पाया।
फिर दो साल पहले ऐसे ही अप्रैल की एक तारीख को वो अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के चला गया, तो मैंने सीखा कि जो आता है वो चला भी जाता है। जब वो जाता है, तो उसके पीछे जो रह जाती हैं, बहुत उदास यादें।
अपनी उदास यादों से मैंने सीख लिया कि संसार की हर कहानी का परम सत्य इतना ही है कि आदमी आता है, आदमी चला जाता है। उसके आने-जाने के बीच में कुछ कहानियाँ होती हैं, जिसे जीना कहते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि अपने आने और चले जाने के बीच कैसी कहानी लिखना चाहते हैं।
सीखने वाले तो कुरूक्षेत्र में युद्ध के मैदान में खड़े होकर भी सीख लेते हैं। नहीं सीखने वाले हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठ कर भी नहीं सीखते।
(देश मंथन, 15 अप्रैल 2015)