दुश्मन को अपना बनायें

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

ये कहानी मैंने नहीं लिखी। कहीं सुनी थी, लेकिन इसमें संदेश इतना अच्छा छिपा था कि आपसे साझा किए बिना नहीं रह पाऊंगा।

कहानी सुनाऊंगा, लेकिन पहले आपको एक सच्ची घटना सुनाता हूँ, जिन्हें मैंने खुद देखा है, महसूस किया है।

मेरे एक परिचित जो बिजनेसमैन थे, उनकी फैक्ट्री में एक कर्मचारी का परिवार रहा करता था, जो पूरी फैक्ट्री की देखभाल किया करता था। बहुत सालों से रह रहा था, इसलिये मेरे परिचित को उस परिवार से हमदर्दी सी थी, लेकिन परिचित का बेटा उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करता था। एक दिन पता चला कि वो परिचित बहुत बीमार हैं, मैं उनसे मिलने गया। पंद्रह साल पुरानी बात है, मेरे परिचित बिस्तर पर लेटे थे और आखिरी घड़ी का इंतजार कर रहे थे। मेरे वहाँ पहुँचते ही उन्होंने मेरी कलाई को पकड़ कर बहुत थकी और निराश आवाज में गुहार लगाई, “मेरे बेटे को समझाओ उसे घर से न निकाले।”

मैंने कहा, “आप निश्चिंत रहें, ऐसा ही होगा।”

कुछ देर बाद मैं उनके बेटे से मिला। मैंने उससे पूछा, “तुम उस परिवार को क्यों निकाल रहे हो।”

“पापा ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है। वो एक दिन इस फैक्ट्री में दावेदार बन जायेगा। अभी ही कहता है मुझे कोई निकाल नहीं सकता। चालीस साल से मैं यहीं हूँ। मेरा पूरा परिवार यहीं बना है और तो और वो एक बैठा बिठाया दुश्मन मिलने जा रहा है मुझे।”

मैंने पूछा कि वो काम क्या करता है? 

“वैसे तो वो पूरी फैक्ट्री देखता है। फैक्ट्री में काम करता है, यहीं रहता है तो रखवाली भी करता है।”

मैंने कहा कि तुम उसे मत निकालो। तुम उसे दुश्मन बनाने की जगह उसे दोस्त बना लो। बुजुर्ग आदमी है, वो भावनात्मक स्तर पर जुड़ा है तुम्हारे परिवार से। तुम उसे बुला कर कहो कि वो तुम्हारे लिए परिवार की तरह है और अब तक अपने कुछ कहे के लिए माफी माँग लो। उसे अपनी कमजोरी बनाने की जगह अपनी ताकत बना लो। वो तुम्हारी फैक्ट्री के एक कोने में बने हुए मकान में पड़ा रहेगा और कभी दावेदार नहीं बनेगा।

बहुत मुश्किल से मेरे परिचित का बेटा तैयार हुआ। 

मैंने अपने परिचित को बताया कि आपका बेटा उसे अब नहीं निकालेगा।

मेरे परिचित ने चैन की आखिरी सांस ली और मोक्ष को प्राप्त हुये।

बहुत दिन बीत गए। मैं एकबार अपने परिचित के बेटे से मिला। मैंने पूछा कि क्या हुआ उस परिवार का?

“ओह! आपके कहे मुताबिक मैंने उस परिवार को अपना लिया। उसे उस दिन बुला कर अपने कुछ भी कहे के बदले माफी माँगी और कहा कि आप जब तक हैं, तब तक यहीं रहेंगे। आपका पूरा परिवार हमारे परिवार की तरह है। वो बहुत खुश हुआ। अब ये आलम है कि सारी फैक्ट्री वही देखता है, उसका पूरा परिवार हमारा घर देखता है। उसकी पत्नी मेरी माँ की सेवा करती है। बच्चे बड़े हो गये हैं, सब इज्जत देते हैं, सेवा भाव से लगे रहते हैं। इस तरह वो एक ‘विस्तृत परिवार’ ही बन गया है और सच कहूँ तो मेरी ताकत।”

मैंने पूछा कि संपति में दावेदारी तो नहीं की, जिसका तुम्हें डर था?

“नहीं, नहीं। जब से मैंने कहा कि तुम हमारे साथ रहोगे, वो एकदम विनम्र हो गया और अब तो मुझे अपनी सोच पर खुद ही शर्म भी आने लगी है। सच कहूँ तो सच यही है कि अगर मैंने उसे निकाल दिया होता, तो मेरा एक दुश्मन इसी शहर में तैयार रहता, आज मेरा शुभचिंतक साथ बैठा है।”

अब इस बात को मैं यहीं रोक रहा हूँ। मैं वो छोटी सी कहानी सुनाता हूँ, जिसे मुझसे किसी ने साझा किया और मुझे वो कहानी अच्छी लगी। लिखने वाले का नाम मुझे नहीं मालूम, वर्ना मैं जरूर साझा करता।

“ एकबार नौ अंक ने आठ अंक को एक थप्पड़ लगा दिया। आठ अंक ने थप्पड़ का कारण पूछा तो नौ ने कहा कि मैं तुमसे बड़ा हूँ, तुम मेरे सामने कुछ नहीं, मैंने थप्पड़ मार कर तुम्हें अपनी ताकत दिखाई है। आठ को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन नौ का वो कुछ कर नहीं सकता था, उसने अपने बगल में बैठे सात को एक थप्पड़ मारा और यही कहा कि मैं तुमसे बड़ा हूँ, मेरी मर्जी। इस तरह सात ने छह को मारा, छह ने पाँच को मारा, पाँच ने चार को मारा, चार ने तीन को मारा, तीन ने दो को चांटा लगाया। दो ने भी एक को दिया जमा के।

वैसे तो एक चांटा खा कर बिलबिला उठा, लेकिन उसने अपने बगल में देखा कि शून्य बैठा है। एक ने बहुत सोचा। फिर उसने शून्य से कहा कि मैं तुम्हें थप्पड़ नहीं लगाऊंगा। मैं तुमसे प्यार करता हूँ। तुम आओ, मेरे पास आओ। तुम मेरी बगल में बैठो और इस तरह एक ने शून्य को उठा कर अपनी बगल में बिठा लिया। जैसे ही शून्य एक की बगल में बैठा वो दोनों मिल कर 10 बन गए।”

मुझे कहानी बहुत सारगर्भित लगी। सचमुच हम अगर अपनी ताकत दिखाने की जगह, किसी को थप्पड़ लगाने की जगह अपनी बगल में बिठा लें तो न सिर्फ खुश रह सकेंगे, बल्कि ताकतवार भी बन सकते हैं।

(देश मंथन, 17 मार्च 2015)

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