पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
हम चार भाइयों के परिवार में कुल छह बेटे और छह बेटियों में सबसे छोटी है श्वेता। बीस बरस की श्वेता राखी के दिन उदास थी। अकेले कमरें में आँसुओं के बीच उसने अपना दर्द कविता में उड़ेल दिया। छह मे तीन भाई विदेश में तो बचे तीन दूसरे शहरों में। चिकन पाक्स हो जाने से बंगलोर में निफ्ट से फैशन डिजाइनिंग कर रही श्वेता हास्टल से बाहर नहीं निकली। डर था कि घर जाने से माँ इन्दिरा, भाभी रिंकू, भतीजी मिहिका और भतीजा प्रांशु भी कहीं चेचक की चपेट में न आ जाएँ।
सोचिए कि आधा दर्जन भाइयों के बावजूद सन्नाटा किस कदर काटने को दौड़ता होगा। मैंने उसकी लिखी पंक्तियों में बस विराम अर्ध विराम ही चेक किया होगा। पढ़िये एक बहन की पाती अपने भाइयों के नाम….
पंगत की तरह जैसे मिल कर बैठ जाते थे, ये भाई बहनो के ही आगे ऐंठ जाते थे,
पेंसिल, रबड़, रुपये जो भी लाते थे, पाकेट में खजाना ही तो छिपाते थे,
मिठाई चाहे कहीं की भी हो, चटखारा तो अमृत पीने जैसा लेते थे।
कलाई छह छह राखियों से भर कर नवाबों सा रूआब दिखाते थे।
वो दिन तो छोटे थे, जीवन में बड़ा संघर्ष था, पर उस धूप-पसीने में भी सबके दिलों में हर्ष था।
सम्पन्नता जेबों में नहीं, दिलों में हुआ करती है, जिससे हर दिन घर की तिजोरी भरा करती थी,
पर आज सब कुछ है, पर नहीं वो शोर है, दिन के होते भी तम घनघोर है।
जिन धागे की डोरियों को हम राखी बुलाते थे, प्यार से थालियों में सजाते थे,
आज लिफाफों में यूँ ही सहेज देते हैं,
दूर बैठे भैया को भेज देते हैं,
संजो कर प्यार और दुआ की लड़ियाँ, भेज देते हैं रोली चावल की पुड़िया
लिख देते हैं कि जल्दी वापस आना, अगले बरस हमसे ही राखी बंधवाना।
मन के दर्द को तो दोनो छुपाते हैं, आँसुओं को हँस कर टाल देते हैं।
बस दिल में छोटी सी एक आस है, कहना है कि यह पर्व बड़ा खास है।
जानते हैं कि काम बहुत सारा है, पर ये रिश्ता तो उन सबसे भी प्यारा है।
भगवान देता है मौका साथ होने का, बीते लम्हों को फिर से पिरोने का।
तो इस साल भले ही सब दूर हो, वक्त के मारे बड़े मजबूर हो।
पर अब कभी इस मौके को न खोना, अगले बरस राखी पर साथ होना
(देश मंथन, 31 अगस्त 2015)