परिवार और रिश्ते

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मेरी साली के बेटे से स्कूल टीचर ने उसके परिवार की तस्वीर बनाने के लिए कहा।

बच्चे ने जो तस्वीर बनायी, उसमें उसने मम्मी-पापा और अपनी तस्वीर के अलावा मॉसी, मौसा और मौसेरे भाई की तस्वीर बना कर उसने दे दी।

टीचर दंग रह गयी। परिवार में छह लोग?

उसने बच्चे को बुला कर पूछा कि ये कौन लोग हैं?

बच्चे ने बहुत सहजता से तस्वीर को बयाँ किया कि मम्मी-पापा के अलावा ये मेरी मॉसी-मौसा हैं। और एक बच्चा वो खुद है, दूसरा बच्चा मॉसी का बेटा है। यही उसका परिवार है।

टीचर ने उससे पूछा कि क्या तुम्हारी मॉसी-मौसा और उनका बेटा, तुम लोग सब साथ रहते हो?

बच्चे ने कहा कि नहीं, वो अलग रहते हैं। हम कभी-कभी मिलते हैं।

इस पर टीचर बिदक गयी। उसने बच्चे को समझाया कि परिवार का मतलब होता है, जो साथ रहते हैं। तुमने यह तस्वीर गलत बनायी है और इसके लिए तुम्हें एक भी नंबर नहीं मिलेंगे। साथ ही उसे ये कहा गया कि तुम मम्मी-पापा को बुला लाना।

बच्चा बहुत उदास हो गया।

बारहवीं में पढ़ने वाले उस बच्चे की उदासी का सबब पूछा गया, तो उसने कहा कि उसकी टीचर ने मम्मी-पापा को बुलाया है।

मम्मी-पापा स्कूल गये। टीचर मिली। उसने बच्चे की शिकायत की कि उसे परिवार का मतलब नहीं पता। इतना बड़ा हो गया है, कह रहा है कि उसके परिवार में मम्मी-पापा के अलावा, मॉसी-मौसा और मौसेरा भाई भी हैं। क्या आपने बच्चे को यही सिखाया है?

माँ-बाप सहम गये कि कहीं कम नंबर के चक्कर में बच्चे का भविष्य ही ये टीचर न खराब कर दे। 

खैर, मामला इतने से शान्त नहीं हुआ। मामला स्कूल की प्रिंसिपल तक पहुँचा और स्कूल की प्रिंसिपल ने माँ-बाप की मौजूदगी में बच्चे से पूछा कि क्या तुम्हारा कोई और भाई-बहन है? बच्चे ने कहा, “हाँ मेरा एक बड़ा भाई है।” बच्चे ने मेरा बड़ा भाई है, इतना कहा ही था कि माता-पिता दोनों एक साथ बोल उठे, “नहीं ये अकेला है।”

प्रिंसिपल उलझ गयी। “ये क्या दुविधा है?”

बच्चा कह रहा है कि उसका एक बड़ा भाई भी है, आप कह रहे हैं कि आपकी एक ही सन्तान है। 

तब मेरे साढ़ू ने सहमते हुए प्रिंसिपल को समझाया कि वो अपने मौसेरे भाई को अपना बड़ा भाई कहता है। उसने जन्म से ही मॉसी-मौसा और उनके बेटे को परिवार के रूप में देखा है। हम कहीं घूमने जाते हैं, तो साथ जाते हैं। जीवन के हर महत्वपूर्ण फैसले हम मिल कर लेते हैं। इस तरह बच्चा इन सबको मिला कर परिवार मानता है। इसमें बच्चे का कसूर नहीं। हमारी गलती है, जो हमने उसे परिवार का सही मतलब नहीं समझाया।

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पिछले दिनों हम सपरिवार उदयपुर घूमने गये थे। सपरिवार का मतलब हम छह लोग। 

वापसी में मेरी साली ने मुझसे कहा कि उसके बेटे की स्कूल टीचर बहुत परेशान कर रही है। मैंने उससे पूरे मामले के विषय में पूछा, तो ये सच सामने आया। 

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मेरा एक बेटा है। मेरी साली का भी एक ही बेटा है।

बहुत साल पहले एक दिन मेरा बेटा स्कूल से आया था और उसने मम्मी से पूछा कि बुआ की बेटी जिसे वो दीदी बुलाता है, क्या वो उसकी बहन नहीं है?

मेरी पत्नी चौंकी। उसने पूछा कि किसने तुमसे ऐसा कहा? वही तुम्हारी बहन है।

बेटे ने कहा कि नहीं, वो तुम्हारी बेटी नहीं। वो बुआ की बेटी है। वो हमारे साथ नहीं रहती, इसलिए वो मेरी बहन नहीं है।

माँ ने समझाने की कोशिश की कि बेटा हर साल राखी पर वो तुम्हें राखी बाँधने आती है। तुम उसे दीदी बुलाते हो। वही तुम्हारी बहन है। बुआ तुम्हारे पापा की बहन हैं, इस तरह पापा के बहन की बेटी तुम्हारी बहन हुई। फिर तुम्हारे मन में ये संदेह क्यों आया कि वो तुम्हारी बहन नहीं?

बेटा फूट-फूट कर रोने लगा। तब वो चौथी कक्षा में पढ़ता था। उसने बताया कि स्कूल की टीचर ने उसे समझाया है कि जो बच्चे एक माँ-बाप से पैदा होते हैं, वही परिवार होते हैं। 

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टीचर का ये परिवार ज्ञान मुझे तब बहुत अखरा था। उसके रिश्तों की समझ पर मुझे तरस आया था। मैं उस टीचर को जाकर परिवार का मतलब समझा आता। लेकिन उसकी किस्मत अच्छी थी, जो उन्हीं दिनों मेरा बेटा उस स्कूल को छोड़ कर अमेरिका चला गया, आगे की पढ़ाई के लिए। फिर पाँच साल उसने वहीं पढ़ाई की।

वहाँ उससे किसी ने नहीं पूछा कि तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं। 

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मुझे मेरे चाचा ने पाला है। मुझे मेरे मामा ने पाला है। मुझे मेरी बुआ ने पाला है।

एक बार मेरे चाचा से किसी ने कह दिया था कि संजय तो आपके भाई का बेटा है न! मुझे याद है मेरे चाचा ने पूछने वाले को बिठा कर समझाया था कि खबरदार जो कभी बच्चे के सामने ऐसी बातें की। तब तो मैं बहुत छोटा था। मामा के पास जब मैं पढ़ने और रहने गया तब मैं बहुत बड़ा हो चुका था। मामा के तीन बच्चे थे। लेकिन मुझे नहीं याद कि मेरे मामा ने कभी अपने दोस्तों के बीच मुझे चौथे बच्चे की तरह नहीं मिलवाया हो। मुझे एक पल के लिए नहीं लगा कि मैं परिवार का हिस्सा नहीं हूँ। मैं उन बच्चों का फुफेरा भाई हूँ। 

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जब हम छोटे थे, तो हमें सालों साल नहीं पता चलता था कि कौन चचेरा भाई है, कौन चचेरी बहन है। कौन ममेरा भाई है, कौन ममेरी बहन है। हम ढेर सारे बच्चे एक साथ एक बिस्तर पर पले। ना माँ-बाप ने फर्क किया, न हम बच्चों ने। तब तो घर में जो समर्थ होता, बच्चे उसके घर पढ़ने और रहने चले जाते थे। माँ-बाप के दिमाग में एक पल को भी ख्याल नहीं आता था कि बच्चे-बच्चे में फर्क होगा। स्कूलों में रिश्तों का ऐसा लेखा-जोखा पेश किया जायेगा। 

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बहुत साल पहले मेरे छोटे भाई की बेटी हुई थी। एकदिन हम किसी रिश्तेदार के घर बैठे थे, तो उन रिश्तेदार ने मुझसे कहा कि अब आपकी भी एक बेटी हो जानी चाहिए। मैंने कहा कि क्यों मेरे छोटे भाई की बेटी मेरी नहीं है क्या? इसपर उन्होंने हौले से कह दिया कि अरे वो तो भाई की बेटी है न!

इतना सुनना था मैं फूट-फूट कर रो पड़ा। उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने मुझे चुप कराने की बहुत कोशिश की, पर मेरा गला रुँध गया, रोते-रोते मेरी साँस उखड़ने लगी। पहली बार मुझे लगा कि क्या सचमुच मेरे भाई की बेटी मेरी नहीं है। जो मेरी पत्नी की कोख से पैदा नहीं हुआ वो मेरा बच्चा नहीं है? 

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उफ! ये दुनिया इतनी जालिम क्यों है?

रिश्तों का पाठ वो क्यों पढ़ाने की कोशिश करते हैं, जिन्हें नहीं पता कि रिश्ते क्या होते हैं।

मैं पिछले हफ्ते बनारस गया था। मैंने वहाँ ऐलान किया कि संजय सिन्हा का परिवार दुनिया में सबसे बड़ा परिवार है। फेसबुक पर उसके पाँच हजार मित्र और आज की तारीख तक 7404 लोग बतौर फॉलोअर जुड़े हैं। यानी आज की तारीख में कुल 12 हजार 404 लोग तो इस परिवार के घोषित सदस्य हैं। इसके अवाला ढेरों लोग और हैं जो इस परिवार से जुड़े हैं, बेशक उनकी गिनती यहाँ दर्ज नहीं, पर हैं तो हमारे परिवार के हिस्सा ही।

वो तो फेसबुक के अविष्कारक मार्क जुकरबर्ग को नहीं पता कि रिश्तों की गिनती नहीं हो सकती, वर्ना उसे पाँच हजार की सीमा नहीं लगाने की जरूरत थी। 

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रही बात स्कूल की उस टीचर की, जिसने मेरी साली के बेटे को परिवार का अर्थ समझाने की कोशिश की है, तो वो घृणा की नहीं दया की पात्र मुझे लगने लगी है। उसने परिवार देखा ही नहीं। जिसने देखा ही नहीं, उसे क्या पता कि रिश्ते क्या होते हैं। अगर उस टीचर में जरा भी बुद्धि होती, तो वो मेरी साली के बेटे से ही रिश्ते का पाठ पढ़ लेती और समझने की कोशिश करती कि माँ की बहन को मॉसी क्यों कहते हैं। वो जानने की कोशिश करती कि माँ शब्द से ही माँ जैसी यानी ‘मॉसी’ शब्द बना है। जिस बच्चे ने अपनी माँ के साथ मॉसी की तस्वीर बनाई उसे तो इनाम दिया जाना चाहिए था, बजाए नंबर काटने की धमकी देने के।

पर ऐसा तो वही कर सकता है न जिसे रिश्तों की अहमियत पता हो। 

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अपने मुँह से अपने परिवार की तारीफ क्या करूँ। पर कुछ दिन पहले ही बनारस वाले Piyush Tiwari ने किसी की वाल पर अपनी टिप्पणी में लिखा था कि जिन्हें रिश्तों पर संदेह हो, जिन्हें सोशल साइट पर भरोसा न हो, वो संजय सिन्हा के परिजनों से मिले। वो इस परिवार के किसी एक सदस्य से मिल लेगा, तो समझ जाएगा कि रिश्ते क्या होते हैं, रिश्तों की अहमियत क्या होती है। 

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यह सिर्फ इत्तेफाक है कि आज मैं रिश्तों के इस अध्याय पर चर्चा कर रहा हूँ और कल हरदोई में बैठी मेरी माँ Urmila Shrivastava ने अपनी वाल पर कुछ लोगों के लिए एक कविता की दो पंक्तियाँ लिखी थीं – 

“हमारे रिश्ते बोन्साई जैसे हो गये हैं,

शाखों में ऊँचाई और जड़ों में गहराई नहीं हैं।”

(देश मंथन 13 जुलाई 2015)

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