संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरे आज के लिखे को पढ़ कर प्लीज नाक भौं मत सिकोड़ियेगा। इन दिनों इस विषय को सरकार जोर-शोर से उठा रही है। ये आदमी की नैसर्गिक जरूरत है।
आदमी की उत्पति के साथ ही इस विषय की उत्पति हुई होगी, लेकिन पता नहीं क्यों इन दिनों इस पर चर्चा चल रही है। मुद्दा गरम है और हमारे दफ्तर में भी इस पर चर्चा चलती है। इस विषय पर हमें काफी कुछ करना है। बस मुश्किल इतनी है कि इस विषय पर अक्सर लंच टाइम में हमारी चर्चा शुरू होती है। हो भी क्यों न! आखिर ये सरकारी चिंता का विषय बना हुआ है।
मैं लंच टाइम में आपसे इसपर चर्चा नहीं करना चाहने की वजह से सुबह-सुबह अपनी बात आपके सामने रख रहा हूँ। आप नाक पर रूमाल रख कर ही सही, प्लीज ब्रेकफास्ट से पहले अपना कमेंट जरूर पोस्ट कर दीजियेगा। देखिए विषय को हल्का समझ कर टाल-मटोल की कोशिश मत कीजिए, ये आजकल बुद्धिजीवियों की चिंता का विषय है। इश्क-मुहब्बत, खाना-पीना और रिश्ते सब के सब धरे रह जायेंगे, अगर इस पर मुकम्मल चर्चा न हुयी तो।
वैसे भी आज क्रिकेट जैसे राष्ट्रीय विषय पर चिंता की सुबह नहीं, क्योंकि जो होना था, कल हो चुका है और सुना है कि आलिया भट्ट ने कह दिया है कि आदमी को उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिये। सेमीफाइनल में हार गये तो कोई बात नहीं, फाइनल में ठीक से खेलने की सलाह उन्होंने टीम इंडिया को दे दी है।
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मुझे नहीं याद कि पहली बार कब मैंने अपनी पॉटी खुद धोयी होगी, लेकिन माँ बताती थी कि बहुत दिनों तक मैं इस काम के लिए माँ पर निर्भर करता था। फिर पता नहीं वो कौन सी तारीख आयी जब पहली बार मैं इस मामले में एकदम आत्मनिर्भर हो गया।
खैर, सभी लोग इस मामले में एकदिन आत्मनिर्भर हो जाते हैं, मैं भी हुआ।
पर आज का मेरा विषय पॉटी धोने के मामले में आत्मनिर्भर होना नहीं। मेरा विषय शौचालय को लेकर उठ रहे सवाल पर है।
बचपन में जब एक बार मैं अपने गाँव गया तो मेरे मनोज चाचा सुबह-सुबह मुझसे पूछने पहुँच गये, “संजय तुम्हें ‘खेत’ जाना है क्या?”
मैंने पूछा इतनी सुबह खेत जाकर क्या करेंगे?
“अरे तुम एक लोटा ले लो और खेत चलो।”
हम खेत में पहुँच गये और पहली बार मैंने देखा कि गाँव के कई लड़के खेत में इधर-उधर लोटा लिये बैठे हैं और बिना लज्जा-शर्म के एक दूसरे से बात करते हुये पॉटी कर रहे हैं। तब गाँव में शायद कम ही घरों में शौचालय की व्यवस्था थी, पर हमारे घर में थी। मैंने चाचा से कहा कि चाचा मैं यहाँ ‘खेत’ नहीं कर सकता, मैं घर में ही करुंगा। चाचा ने कहा, अरे वो महिलाओं के लिए होता है, हम लड़कों के लिए तो खेत ही है। आराम से खुले में करो, फिर लोटे में पानी है, उससे धो लो, और फिर तालाब चलेंगे वहाँ तैरते हुए नहा लेंगे।
“नहीं चाचा, मुझसे नहीं होगा।”
“तुम लोग शहर में रह कर ना मऊगा हो गये हो।”
“चाचा ये मऊगा क्या होता है?”
“जो जनानियों की तरह काम करते हैं, वो मऊगा होते हैं। देखो यहाँ कितने लड़के बैठे हैं।”
मुझे ठीक से याद नहीं कि चाचा के ललकारने के बाद भी मैंने किया या नहीं, पर जब भी चाचा की बातें याद आती हैं, हंसी छूट जाती है।
खैर, जब मैं इंटरमीडिएट में था, तब अपने एक मित्र उदय की बहन की शादी में बिहार के एक गाँव चला गया। बिहार में बक्सर और दिलदार नगर के बीच किसी गाँव में शादी थी। रात में खूब पूड़ी-सब्जी खाना हुआ और सुबह मैंने उदय से पूछा कि टॉयलेट कहाँ है, तो वो हंस पड़ा। अरे ‘दिशा’ फिरने के बारे में पूछ रहे हो न?
अब ये ‘दिशा’ फिरना क्या है?
“अरे वही टॉयलेट करना।”
मैं समझ गया कि संजय बेटा, आज फिर फंसे खेत में।
मैंने कहा कि ये मुमकिन नहीं।
उदय मुस्कुराता रहा, “अरे शहरी बाबू, जरा गाँव के मजे भी लो। यहाँ पूरी बारात सुबह-सुबह लोटा लेकर निकल पड़ी है, दूल्हा भी गया है और तुम कह रहे को नहीं जाओगे?”
“दूल्हा भी?”
“काहे, दूल्हा आदमी नहीं है क्या?”
“अरे उदय, घर में महिलाओं के लिए तो शौचालय होगा ही।”
“नहीं, महिलाएँ भी दिशा खेत में ही फिरती हैं।”
“महिलाओं को शर्म नहीं आती?”
“नहीं, रात में एक झुंड बना कर जाती है।”
“मतलब उनका शौच चक्र ही बदल गया है।”
“ई सब हमको नहीं पता। जाना है तो खेत में, नहीं तो तुम जानो…”
मुझे अचानक लगा कि जो पेट गुड़गुड़ कर रहा था, वो एकदम शांत हो गया है और अब मुझे कब्ज की बीमारी हो गयी है। अब मैं पूरा दिन नहीं जाऊँ तब भी चलेगा।
खेत और दिशा वाली घटना के बीच में और भी कई घटनाएँ घटीं, जिसमें मुझे नानी के घर समझाया गया कि इसे खेत या दिशा नहीं कहते, बल्कि पखाना करना कहते हैं। पर माँ ने समझाया था कि ये सारे गंदे शब्द हैं, टट्टी करना सबसे मुफीद है। माँ … बचपन में हमें टट्टी बोलना ही सिखाया था। घर में टट्टी, गाँव में खेत, उदय के गाँव में दिशा फिरने की इस कहानी में एक बार किसी ने कहा कि मैदान जाना भी वही होता है। समझाने वाले ने समझया कि विशेषण जब क्रिया बन जाये तो उसका अर्थ बदल जायेगा। बड़ी लंबी कहानी है शौच के इस चक्रव्यूह की।
दिन बीतते जा रहे थे, मेरे लिए कहीं आने जाने में सबसे बड़ी समस्या यही थी कि मैं खेत नहीं जा सकता था, दिशा नहीं फिर सकता था, मैदान होना मुमकिन नहीं था। छोटे शहर से मझोले शहर और मझोले से बड़े शहर के बीच की दूरी में शौच क्रिया के जितने नाम बदले उतने मैंने किसी और चीज के बदलते नहीं देखे। मैं जानता हूँ कि आपके पास और भी कई नाम होंगे, जिसमें एक शब्द हगना भी है, जिसे सुनते ही मेरी पत्नी नाक भौं सिकोड़ने लगती है। कहती है “इतने घिनौने शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।”
“बेशक शब्द घिनौने हैं। पर विकल्प क्या है?”
“पॉटी ठीक शब्द है।”
“पर पॉटी तो शहरी बच्चे करते हैं। गाँव के लोग?”
“वो गाँव वालों की समस्या है।”
“नहीं वो गाँव वालों की समस्या नहीं है। देश की समस्या है।”
“टट्टी, पखाना, शौच, हगना, पॉटी बोलना देश की समस्या है? क्या देश के पास दूसरी समस्याएँ नहीं बचीं?”
“नहीं, समस्या बोलना नहीं है, समस्या ये है कि गाँव के लोग आज भी इस काम के लिए खेत में जाते हैं, मैदान में जाते हैं, सड़क के किनारे बैठते हैं और सरकार कह रही है कि उनके लिए शौच का पूरा प्रबंधन नहीं होना समस्या है।”
“क्या कह रहे हो? आजादी के इतने सालों बाद भी तुम्हारे लोगों के घर शौच की जगह नहीं, और तुम कह रहे को कि शौच की जगह नहीं होना समस्या है? फिर तो समस्या हमारे हुक्मरान हैं। जो भी व्यक्ति आजादी के अड़सठ सालों के बाद इस समस्या को उठाता है, वो समस्या है। जिसने इस नैसर्गिक क्रिया … की सुविधा मुहैया कराने में अड़सठ साल लगा दिये वो समस्या है। समस्या शौच की नहीं सोच की है। कोई इस पर भी राजनीतिक रोटी सेंके समस्या वो है। संजय इस पर कोई पोस्ट मत लिखना। पहले मुझे ऐसे शब्दों से घिन आती थी, अब शर्म आ रही है। शर्म इस बात कि हम आज भी इस बुनियादी जरूरत पर बहस कर रहे हैं। तुम्हारे गाँव, शहर में इस क्रिया के नाम चाहे जितने नाम बदल जायें, पर सच तो यही है कि आज भी समस्या नहीं बदली है। जो समस्या इतने सालों बाद भी खड़ी रहे उसे समस्या नहीं कहते, उसे षड्यंत्र कहते हैं और जब सोच षड्यंत्रकारी होती है, तो ‘समस्या’ चिंता का विषय नहीं रह जाती, चिंता का विषय वो ‘सोच’ ही बन जाती है।
(देश मंथन, 27 मार्च 2015)