इंसान सोच से ऊँचा होता है

0
296

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

पोप जॉन पॉल द्वितीय 1999 में भारत यात्रा पर आये थे। मैं उन दिनों जी न्यूज में रिपोर्टिंग करता था और मेरी ड्यूटी पोप के साथ लगायी गयी थी। पोप अपनी दिल्ली यात्रा में पालम स्थित सेना हवाई अड्डे पर उतरे थे और वहीं से मेरी रिपोर्टिंग शुरू हुई थी। सफेद लिबास में लिपटे, सिर पर छोटी सी टोपी लगाए पोप अपने विशेष विमान से दिल्ली पहुँचे थे। 

मैंने पहली बार पोप के लिए पापा शब्द का संबोधन सुना था। 

पोप वैटिकन में रहते हैं, इतना तो मुझे पता था। मैं यूरोप से वाकिफ था, पर वैटिकन को लेकर मेरे मन में पता नहीं क्यों ऐसा बैठ गया था कि यह किसी पहाड़ी पर बर्फ के बीच बसा कोई ऐसा देश होगा, जहाँ ईसाई धर्म को मानने वालों के अलावा और ढेर सारे लोग रहते होंगे। दिमाग पर बहुत जोर डालता तो मेरे मन में फिनलैंड जैसे देश की कोई कल्पना उभरती। 

जिस दिन मैं पहली बार पोप से मिला था, उसी दिन से मेरे मन में इस पवित्र देश तक जाने की इच्छा जाग उठी थी। मैंने मन में तय कर लिया था कि एक दिन वैटिकन सिटी जरूर जाऊँगा। 

जिन दिनों मैं रिपोर्टिंग करता था और किसी नये व्यक्ति से मिलता था, मुझे लगता था कि अगली बार जब मैं उससे मिलूँगा और कहूँगा कि मैं संजय सिन्हा हूँ, तो वो मुझे पहचान जाएगा। पोप दिल्ली आये थे और अगले दिन दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में उनका समारोह था। पूरा स्टेडियम खचाखच भरा था। मैं मंच के बहुत करीब था। दो बार ऐसे मौके आए, जब मैं एकदम पोप से मिल पाया। बस मेरे मन में बैठ गया कि पोप ने मुझे पहचान लिया है। उनका मुस्कुराता चेहरा मेरे दिल के बहुत भीतर तक बस चुका था। उसके बाद पोप तीन दिनों तक दिल्ली में रहे और मैं बस उनकी रिपोर्टिंग में लगा रहा। 

तीसरे दिन पोप सेना के एयरपोर्ट से ही लौट रहे थे, उन्हें विदा करने काफी लोग आए थे और सबकी जुबाँ पर बस इतना ही था कि पापा फिर आना, पापा फिर आना। बाय-बाय पापा। 

***

एकदिन खबर आई कि पोप जॉन पॉल द्वितीय नहीं रहे। मेरा दिल बैठ गया। अब अगर मैं वैटिकन सिटी गया, तो मुझे कौन पहचानेगा? 

मेरा वैटिकन जाने का इरादा टल गया। पर जब कभी वैटिकन की चर्चा होती, तो मुझे पोप जॉन पॉल द्वितीय की खूब याद आती। 

मैंने वैटिकन सिटी के बारे में खूब पढ़ा था, खूब सुना था। जब मुझे पहली बार यह मालूम हुआ कि वैटिकन सिटी इटली के भीतर मौजूद एक अलग देश है तो मैं बहुत हैरान हुआ था। किसी देश के भीतर मौजूद अलग देश? 

यहाँ हम एक ही देश में रहते हुए अलग-अलग राज्य और उसकी सीमाओं के लिए लड़ रहे हैं, वहाँ एक देश के भीतर दूसरा देश बसता है। 

मेरे मन में वैटिकन सिटी को लेकर उत्सुकता बनी हुई थी। 

*** 

इस बार की इटली यात्रा में वैटिकन सिटी जाना मेरे लिए कुछ ऐसा ही था, मानो साक्षात ईसा मसीह के दर्शन का मौका मुझे मिल रहा हो। भावनाओं से संचालित होने वाली सारी कहानियाँ सुन कर मुझे लगने लगा था कि वह सब ईसा की जिन्दगी से जुड़ी रही होंगी। माँ जब भी मुझे ईसा की कहानियाँ सुनाती, तो हर बार वह यह साबित करने की कोशिश करती कि आदमी का आदमी बन जाना ही ईश्वरत्व को प्राप्त होना होता है। जब वो यह कहती कि धोखा देने से धोखा खाना बेहतर होता है, तो मुझे लगता कि माँ मुझे यह क्या पढ़ा रही है! माँ, जब मुझसे यह कहती कि आदमी वही होता है, जो भावनाओं से संचालित होता है, तो मुझे लगता कि माँ भीतर तक ईसा से प्रभावित है। 

माँ अपनी सारी कहानियों में राम और ईसा को एक कर देती। कहती कि राम ही ईसा थे। ईसा ही मूसा थे। वह कहती कि भगवान अलग-अलग जगहों पर आते रहते हैं, लोग उन्हें अलग-अलग नाम भी दे देते हैं, पर वो होते तो एक ही हैं।

जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, धर्म को पढ़ने और समझने लगा, तो मैं यह भी समझ गया कि दुनिया का हर धर्म दरअसल आदमी के आदमी बने रहने का पाठ सिखाता है। धर्म की जरूरत ही शायद पहली बार तब पड़ी होगी, जब आदमी अपना वजूद भूला होगा। ईश्वर है, इस बात का अहसास ही पहली बार तब कराने की जरूरत पड़ी होगी, जब आदमी पहली बार अहंकार में डूब कर खुद को सर्वोच्च सत्ता मान बैठा होगा। अगर आदमी शुरू से इतना उदार होता कि वह यह समझ पाता कि यह संसार ईश्वर की सबसे सुंदर कृति मनुष्य का सिर्फ पर्यटन स्थल है, तो न देश होता, न राज्य होते न सीमाएँ होतीं। सब एक होते, तो ईश्वर की कल्पना की जरूरत ही नहीं पड़ती। सारा झगड़ा इसी झूठ से शुरू होता है, जब हम यह कल्पना कर बैठते हैं कि हम सदा के लिए यहाँ रहने आये हैं। 

***

खैर, मैं वैटिकन सिटी में था। 

यह पृथ्वी पर मौजूद सबसे छोटा देश है। रोमन कैथोलिक चर्च का केंद्र यहीं है। पोप यहीं रहते हैं। यहाँ कई चर्च हैं। 

कमाल की बात यह है कि रोम शहर के बीच में स्थित इस अलग देश की मुद्रा, उनका स्टेशन सब अलग हैं। इनका अपना डाकघर है, इनकी अपनी पुलिस है और कुल जमा सात सौ लोगों की आबादी वाला यह अलग देश है। 

रोमन साम्राज्य पहले चर्च के शासन को स्वीकार नहीं करता था। बहुत वक्त लगा दुनिया को यह मानने में कि लंबी दाढ़ी वाला वह नौजवान जो पूरी दुनिया को अहिंसा और मानवता का पाठ पढ़ा रहा था, वह सचमुच देवदूत था। उसे सूली पर लटका कर अपनी सर्वोच्च सत्ता साबित करने की आदमी की जिद ने यह समझने की जहमत भी नहीं उठाई कि एक दिन जब वह नहीं रहेगा, उसके बाद भी उसके विचारों की सत्ता से ही संसार जगमग होगा। 

आज सात सौ आबादी वाला यह देश दुनिया भर को अध्यात्म का पाठ पढ़ाता है। 

लोग हजारों मील की दूरी तक कर यहाँ पहुँचते हैं, यहाँ की मिट्टी को नमन करते हैं। 

मैं तो वैटिकन के गिरिजा घरों के निर्माण और उसकी सजावट को देख कर हतप्रभ था। टाइबर नदी के किनारे, वैटिकन पहाड़ी पर स्थित इस छोटे से देश से सीखने को बहुत कुछ मिलता है। सीखने वाला चाहे तो सबसे पहले यही सीख सकता है कि अलग हो कर भी कोई चाहे तो एक हो सकता है। छोटा हो कर भी कोई चाहे तो बड़ा बन सकता है। 

आबादी, क्षेत्रफल और पैसों से कोई बड़ा नहीं होता। बड़ा होता है अपनी सोच से, अपने विचार से। वैटिकन सिटी अपनी सोच के बड़प्पन से दुनिया भर में एक पूज्य देश है। एक बड़ा देश है। 

अमिताभ बच्चन ने फिल्म मुकद्दर का सिकंदर में यूँ ही नहीं कहा था कि मकान ऊँचा होने से इंसान ऊँचा नहीं होता। इंसान तो ऊँचा होता है, अपनी सोच से। 

***

वैटिकन को सलाम। 

उन लोगों को सलाम जो आज भी यह मानते हैं कि आदमी का आदमी बने रहना सबसे बड़ा काम है।  

(देश मंथन, 19 अगस्त 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें