संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
दूसरों की प्रेम कहानी सुनना बहुत आसान होता है, लेकिन अपनी प्रेम कहानी सुनाना मुश्किल। मैं तमाम लड़कियों को जानता हूँ, जो अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार और रवि शास्त्री जैसों से अपने लगाव की कहानी तो सुना देती हैं, लेकिन सामने वाले घर के ‘ही मैन’ की चर्चा करने में पसीने छूट जाते हैं।
उनके हँसते-मुस्कुराते और चमचमाते ‘दाँतों’ को देख कर यह यकीन कर पाना नामुमकिन होता है कि उनके मुंह में कुछ ‘दाँत’ पड़ोस वाले भैया से उधार के भी हैं। यह अलग सच है कि दुनिया की हर लड़की की अपनी एक प्रेम कहानी होती है। उसके एक-दो दाँत, किसी-न-किसी से, कभी न कभी माँगे हुए होते हैं, लेकिन उनकी खिलखिलाहट से आप कभी नहीं जान पायेंगे कि वे ‘दाँत’ किसके हैं। दुनिया भर में छिपी मेरी सभी प्रेमिकाओं, मुझे माफ करना।
पहली मुहब्बत अर्चना छूट चुकी थी, फिर पूर्णिमा आयी। पूर्णिमा मेरी दूर की मौसी की दोस्त थी। उन दिनों पता नहीं क्यों मौसी की दोस्त को मौसी, बुआ की दोस्त को बुआ और दीदी की दोस्त को दीदी बुलाने का रिवाज था। लेकिन मैंने उन्हें कभी मौसी नहीं बुलाया। वे भी मुझसे करीब चार साल बड़ी रही होंगी, लेकिन उनके घर आते ही दिल करता कि सामने वाले हलवाई से सारे समोसे लाकर उसके आगे रख दूँ। उन्हें समोसे बहुत पसंद थे, और जब वे चटनी में डुबो कर, चटकारे लेकर समोसे खातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता।
मेरी दूर की मौसी शायद मेरी आँखें पढ़ चुकी थीं, या अपनी हरकतों से मैंने इजहार ही कर दिया था कि पूर्णिमा बहुत अच्छी लगती हैं। तो, मौसी पूर्णिमा को जब भी घर बुलातीं, मुझे समोसे लाने का इशारा कर देतीं। मैं भक्ति-भाव से समोसे लेकर आता, और ईश्वर से दुआ करता कि पूर्णिमा मेरा वाला हिस्सा भी खा जाये।
उन दिनों शहर में ऋषि कपूर और रंजीता वाली लैला मजनूं फिल्म लगी थी, और मैं चुपके-से फिल्म देख आया था। जब ऋषि कपूर को स्कूल में मार पड़ती तो रंजीता के शरीर पर जख्म उभरते, और मुझे लगता कि सच्चा प्यार यही है। तो, कुछ उसी अंदाज में पूर्णिमा जी समोसे खातीं, और मेरा पेट भरता। आह! मेरा वश चलता तो मैं पूर्णिमा को अपने हिस्से का सारा खाना भी खिला देता और खुद डकार ले कर अपने पेट पर हाथ फेरता हुआ सो जाता।
आलम कुछ ऐसा था कि पूर्णिमा के आते ही लगता कि घर में रौनक आ गयी है।
पूर्णिमा दसवीं में पढ़ती थीं और मैं छठी में। एक बार मैंने अपने स्कूल में टीचर से यह भी जानने की कोशिश की कि अगर मैं सातवीं, आठवीं, नौवीं का इम्तेहान एक ही साथ दे दूँ और पास हो जाऊँ तो क्या मैं सीधे दसवीं में आ सकता हूँ?
टीचर अज्ञानी था, उसके दिल में ‘दिल’ के लिए ना कोई जगह थी, ना ‘मुहब्बत’ करने के लायक उसका चेहरा ही था। मैं जब से उसे देख रहा था, वो मुझे ‘ए. के. हंगल’ की तरह नजर आता था। टीचर ने इतने से सवाल पर मेरी मुलायम हथेली पर एक बेंत रसीदने की कोशिश की थी कि ऐसा उटपटांग सवाल मेरे दिमाग में आया ही क्यों?
खैर, एक दिन पूर्णिमा हमारे घर आयीं तो उनका मुँह सूजा हुआ था। वे बोल नहीं पा रही थीं। मौसी से पता चला कि वे कहीं गिर गयी थीं, और उनका एक दाँत टूट गया है। डॉक्टर ने अलग से दाँत लगवाने की सलाह दी है। उन दिनों तक मेरे ज्यादातर दाँत आ कर टूट चुके थे, और टूट कर दुबारा भी आ चुके थे। एकाध जो बचे थे उनमें से एक हिल रहा था।
मुझे बहुत बेसब्री से इंतजार था कि यह वाला दाँत टूटे तो माँ के कहे मुताबिक इसे मिट्टी में नहीं डालूँगा।
मेरा इंतजार ज्यादा लंबा नहीं था। उस दाँत को दो-चार बार ज्यादा हिलाया तो करीब हफ्ते भर में हाथ में आ गया। मैंने उसे धो-पोछ कर बिना किसी को बताये कागज की पुड़िया में लपेट कर रख लिया। कई दिनों तक पुड़िया जेब में लेकर सोता कि पूर्णिमा आये तो दाँत उन्हें दे दूँगा कि डॉक्टर से अपने टूटे दाँत की जगह मेरा वाला दाँत लगवा लें। मेरा क्या है? वहाँ तो दोबारा आ जायेगा, लेकिन पूर्णिमा को तो बाहर से लगवाना पड़ेगा।
बहुत दिन इंतजार किया। फिर एक दिन पूर्णिमा आयी। एकदम दुरुस्त। मैं हिम्मत करके उसके आगे पहुँचा भी, तो वह खिलखिला कर हँस रही थीं। सारे दाँत दुरुस्त थे। चमचमाते मोतियों की तरह।
मेरा दिल पस्त हो गया। मैं आ कर अपने कमरे में बैठ गया। इसका मतलब यह कि पूर्णिमा ने किसी और के दाँत लगवा लिये। उसे मेरे दाँत की दरकार ही नहीं थी। मैं चुपचाप उठा और घर के पीछे जाकर मिट्टी में अपना दाँत दबा आया।
जिन्हें आपके दाँत की दरकार नहीं, उन्हें देने से क्या फायदा? उस दिन उस दाँत के साथ पूर्णिमा की यादों को भी उसी मिट्टी में दबा आया था। साथ ही दबा आया था ‘इश्क’ की वो कहानी जिसे कभी किसी को सुनाने की तमन्ना ही नहीं हुई। आज जब आपको ये कहानी सुना रहा हूँ तो यकीनन यह जानने की इच्छा भी है कि पूर्णिमा ने आखिर दाँत लगवाया किसका था? क्या आज भी वह उन्हीं दांतों के सहारे है, या फिर कुछ और नये दाँतों का सहारा उसे मिला है?
मेरा क्या है, मैंने तो दाँतों की खेती की है। अपने जितने दाँतों को मिट्टी में दबाया था, सब पेड़ बन गये। ना जाने कितने लोग मुझसे मेरे दाँत उधार ले गये… सबका ब्योरा लिखने बैठ गया तो भारत से लेकर अमेरिका तक मुझे मेरे दाँतों के ‘कर्जदार’ मिल जायेंगे।
हाँ, यह अलग दुख है कि कभी किसी ने मेरा कर्ज लौटाया नहीं। सब-की-सब मोतियों से चमकते ‘दाँतों’ की चमक बिखेर कर चली गयीं।
(देश मंथन, 16 अप्रैल 2014)