संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
हजार जन्मों के चक्र से गुजरता हुआ मैं भी ‘समय’ के कालखंड पर मनुष्य के शरीर में मौजूद हूँ।
हर शरीर को नाम की दरकार होती है, मुझे नाम मिला संजय। जिस घर में मेरा जन्म हुआ, वहाँ मुझे सिन्हा सरनेम मिला। इस तरह मेरा नाम हुआ संजय सिन्हा।
पूरी दुनिया घूम चुका हूँ। पर कहीं ठौर नहीं मिला।
अब कलम का ही सहारा है। वो भी क्यों?
रोना, गाना सबको आता है। इसी का विस्तार है लिखना।
जैसे संसार के सभी बच्चों को उनकी माँ पालती है, मेरी भी माँ ने मुझे पाला। माँ कहती थी कि मैं उसका अच्छा बच्चा हूँ, फिर भी पता नहीं क्यों मुझे बचपन में ही छोड़ कर चली गयी। लेकिन माँ ने कहा था कि ‘समय’ का पहिया घूमता रहता है। इसी समय के पहिए पर सवार होकर मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगी।
माँ एक रूप में चली गयी थी, पर वह कई रूपों में लौट कर मेरे पास आ गयी।
वो मेरी बहन के रूप में मेरे पास आयी। मेरी पत्नी के रूप में मेरे पास आयी। वो फेसबुक पर मेरे ढेरों परिजनों के रूप में मेरे पास आयी। समय के चक्र में मुझे फंसा कर माँ कुछ दिनों के लिए भगवान के पास क्या चली गयी, वो फेसबुक पर मेरे ढेर सारे रिश्तों में बदल कर वापस आ गयी। यहाँ उसने मुझ पर दोगुना, तिगुना, चौगुना प्यार लुटा दिया।
इस तरह मैं संसार का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति बन गया।
बचपन में माँ मुझे पढ़ाती थी कि ऊर्जा का न तो निर्माण होता है, न उसका क्षय होता है, ठीक आत्मा की तरह। आदमी मिट्टी से बनता है, फिर मिट्टी बन जाता है।
मैं पूछता, “माँ, संसार क्या है?”
माँ कहती, “सब ‘समय’ है। ब्रह्मांड में सारे ग्रह घूम रहे हैं। ग्रहों का यह चक्र ही समय है। हम सभी इसी चक्र पर सवार हैं। यही संसार है।”
“माँ, ‘रिश्ते’ क्या हैं?”
“संसार में रहते हुए हम जिनके साथ कुछ पल गुजारते हैं, वही रिश्ते होते हैं। जिनके पास रिश्ते होते हैं, उनका समय सुखद होता है।”
“माँ, फिर ‘जिन्दगी’ क्या है?”
“यह समय का एक छोटा-सा क्षण है। धरती पर आने और जाने के बीच के इसी क्षण को जिन्दगी कहते हैं। लोग रोज आते हैं, रोज चले जाते हैं।”
“फिर उसके बाद?”
“फिर समय का पहिया घूमता हुआ आता है और हमें एक नये संसार में ले जाता है। नये रिश्तों से जोड़ देता है। नयी जिन्दगी मिल जाती है।”
“फिर इतनी छोटी सी जिन्दगी के लिए इतनी मारा-मारी क्यों, माँ?”
“अज्ञान की वज़ह से। अज्ञान समय की चाल को न समझ पाने का।”
“अज्ञान की वजह?”
“अहंकार है अज्ञान की वजह। जैसे आँखें सब कुछ देखती हुई भी स्वयँ को नहीं देख पातीं, उसी तरह अज्ञान हमारी आत्मा में छिप कर हमें खुद के वजूद का पता नहीं चलने देता।”
“इसका मतलब सब कुछ समय के हाथों में है?”
“हाँ, समय ही नियति है। जो समय का मर्म समझ जाता है, वो जी लेता है। बाकी लोग तो जीने की तैयारी करते हुए सफर पर निकल जाते हैं।”
“फिर मुझे क्या करना चाहिए, माँ?
“तुम जीना। तुम जीने की तैयारी में अपनी जिन्दगी खर्च मत करना।”
“मैं जीऊँगा, माँ। मैं तुम्हारी कही हर बात को याद रखूँगा। मैंने जिन्दगी के रहस्य को समझ लिया है। अब मुझे किसी बात की चिंता नहीं। अब मैं जीने लगा हूँ।”
***
मैं जीने लगा हूँ, इसलिए आइए, आप भी चलिए मेरे साथ ‘समय’ के सफर पर।
(देश मंथन, 09 नवंबर 2015)