आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार
मिसेज गुप्ता इस बार मलेशिया हो कर आयी हैं और तुम मिस्टर श्रीवास्तव का क्या मुकाबला करोगे, वो तो यूरोप जा रहे हैं।
तुम से केरल जाने की कहो, तो काँय-काँय जो पतिगण इस कालम को पढ रहे हों, दिल पर हाथ रखकर बतायें, क्या इस टाइप के संवाद हाल में नहीं सुने क्या।
इंसानों में ही ऐसा चलन है, कहीं जाओ, फिर बताओ।
मुझे नहीं लगता कि सोनपुर के पशु मेले में जैसलमेर की ऊंटनी पटना की ऊंटनी से यह कहती हो-और कहाँ गयीं इस बार। हम तो जी इस बार बहुत ही घूमे। उदयपुर, जोधपुर हो लिया, अब सोनपुर।
अब पटना की ऊंटनी परेशान-क्या बतायें जी। हम तो पटना से बाहर ही ना जा पाये।
नहीं, ये सब ऊंट-ऊंटनियों में ना होता। इंसानों के सबसे करीब बन्दरों तक में ना होता। दिल्ली के ऊधमी बन्दरों को तड़ीपार किया जाता है, गाजियाबाद वगैरह, ये कुछेक घन्टों में फिर वापस कूद लेते हैं दिल्ली में फिर कूद लेते हैं। अपना ठिकाना क्यों छोड़ना।
मैं अकसर समझाता हूँ पत्नी को-देखो, सूरज को कभी देखा कि गया घूमने एलटीसी पर। रोज सुबह एक सैट रास्ते पर जाना, वहीं से वापस आना। जरा सोचो, सूरज चला जाये एलटीसी पर पच्चीस दिनों के लिए तो। मार मच जायेगी। पर जी कोई नहीं समझता।
इस दुनिया को टूरिस्टों ने अपनी तरह से बनाया है या बिगाड़ा है। गौर की बात है कि बाबर टूर करता हुआ अफगानिस्तान से इन्डिया में ना आया होता, तो उसके वंशज दिल्ली का लाल किला कहाँ बना पाते। यहाँ भी भद्दे टाइप्स मार्केट होते। दीवाने खास की जगह छोटे भटूरे बिक रहे होते, नीचे नाली होती। चांदनी चौक को तब छोले भटूरे बाजार के सामने के एरिया के तौर पर चिन्हित किया जाता। टूरिस्ट के तौर पर बाबर आ गये, तो कुछ बिल्डिंग्स देखने काबिल सी बन गयीं।
मेरे मित्र एक कंपनी में काम करते हैं, जो एलटीसी के भुगतान के लिए टिकट वगैरह नहीं चेक करती। सिर्फ लिख कर दे दो यहाँ-यहाँ गये थे, रकम मिल जाती है। मित्र कागजों में जाने कहाँ-कहाँ हो आये हैं, चेन्नई, कोचीन, श्रीनगर, मलेशिया, पर हकीकत में सिर्फ अपने दफ्तर से घर आते जाते हैं। कागजों पर इतना घूम लिये हैं कि पाँच सात सौ साल बाद उनकी कंपनी के बंदे इबनबतूता, ह्वेनसांग की कोटि के टूरिस्ट मान लिये जायेंगे।
वैसे मेरा एक दोस्त यह बताता है कि शोध कायदे से हो तो पता चले कि इबनबतूता और ह्वेनसांग टूरिस्ट वगैरह ना थे, बीबियों से, घऱबार की आफतों से परेशान पति थे। निकल लिये, घर वापस लौटने का मन नहीं किया। सफर की तकलीफें, घर की तकलीफों के मुकाबले आसान लगीं। ऐसे ही लोग लंबे टूरिस्ट हो सकते हैं। बीबी-बच्चों के साथ जाने का चलन होता, ह्वेनसांग एकाध हफ्ते में ही वापस हो लेता।
पर जी ये तर्क बेकार हैं। मिसेज गुप्ता मलेशिया के किस्से सुना रही हैं, तो उनकी काट तो करनी ही है ना। टूर पर जाने की एकमात्र वजह यही मान लीजिये कि मिसेज गुप्ता को जवाब देना है।
(देश मंथन 11 जून 2015)