संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
माँ कहती थी कि वो लोग किसी काम के नहीं होते जो खुद पर भरोसा नहीं करते, खुद की इज्जत नहीं करते। माँ मुझे ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दिया करती थी जो खुद को कोसते हैं। वो कहती थी कि दुनिया को जीतना उतना मुश्किल नहीं होता, जितना खुद को जीतना होता है।
“लेकिन माँ, खुद को जीतने का क्या अर्थ होता है?”
“खुद को जीतना यानी अपने पर भरोसा करना। खुद को जीतना यानी अपनी इज्जत करना। खुद को जीतना यानी अपने पर संयम रखना।”
मैं जरा दुविधा में पड़ जाता और माँ की कहानी शुरू हो जाती। मैं जानता था कि माँ जो कहानी सुना रही है वो सिर्फ कहानी नहीं, जीवन का पाठ भी है।
माँ कहती कि यह तो तुम जानते ही हो कि शल्य पाँडवों का मामा था।
“हाँ माँ, सुना है। जैसे शकुनि कौरवों का मामा था, शल्य पाँडवों के मामा था।”
“बिल्कुल ठीक, बेटा। फिर तुमने यह भी सुना ही होगा कि शल्य पाँडवों की ओर से नहीं, बल्कि कौरवों की ओर से युद्ध लड़ रहा था।”
“हाँ माँ। पर क्यों?”
“यह बाद में बताऊँगी। आज मैं तुम्हें यह बताना चाहती हूँ कि शल्य अगर पाँडवों की ओर से युद्ध लड़ रहा होता, तो पाँडव युद्ध हार जाते।”
“हार जाते? पर कैसे माँ?”
“वो ऐेसे बेटा कि शल्य हमेशा अपनी ताकत से अधिक दुश्मन की ताकत को आँकने में जुटा रहता था। वो अपनी खूबियों की जगह दुश्मन की खूबियों पर निगाह रखता था। वो बेहद शक्तिशाली था, पर खुद को कोसता रहता था। जब कर्ण युद्ध में मारा गया तो उनकी शक्ति को देखते हुए दुर्योधन ने उन्हें ही अपना सेनापति नियुक्त कर दिया था। पर शल्य ने रथ पर बैठते ही उसे आगाह करना शुरू कर दिया कि देखो, उनके पास ऐसे हथियार हैं, उनके पास वैसे शक्तिशाली बाण हैं, उनके पास ये है, उनके पास वो है। इस तरह वो बहुत शक्तिशाली होते हुए भी कौरवों की सेना का मनोबल बढ़ाने की जगह तोड़ देता था। आलम ये था कि कौरव सेना पाँडव सेना के सामने जाने से पहले ही खुद को पराजित महसूस करने लगती। उन्हें लगता कि उनका सेनापति ही जब उन्हें अपने से बेहतर बता रहा है, फिर तो उन्हें पराजित करना नामुमकिन है।”
माँ शल्य की इस कोशिश को ऐसी शल्य चिकित्सा बताती, जिसमें मरीज की मृत्यु निश्चित है।
माँ कहती कि जो शल्य चिकित्सक यह सोच कर सर्जरी करने जाता है कि इस मरीज का बचना मुश्किल है, वो मरीज नहीं बचता है। अच्छा शल्य चिकित्सक वो होता है, जो खुद पर भरोसा करता है।
पता नहीं कैसे माँ शल्य को सर्जरी से जोड़ कर देखती थी।
***
माँ कहती थी कि युद्ध का पहला नियम होता है अपने मातहतों का मनोबल बढ़ाना, न कि उन्हें हतोत्साहित करना। जो सेनापति यह कहने लगे कि तुम कुछ नहीं हो, तुम दुश्मनों की ओर देखो, उनकी तैयारियों को देखो, उसकी सेना युद्ध लड़ने से पहले ही हार जाती है।
अब आप सोच रहे होंगे कि मैं सुबह-सुबह ये कहाँ की बात कहाँ से लेकर आपसे मुखातिब हो बैठा हूँ।
दरअसल बहुत छोटी-सी बात है। कल मैं अपने एक परिचित के घर गया था। मेरे परिचित ने मेरे सामने ही कई दफा अपने बच्चे से कहा, “तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकते। तुम फलाँ के बेटे को देखो। वो ऐसा कर रहा है, वो वैसा कर रहा है। ओह! मेरी तो किस्मत ही फूटी हुई है।”
मैंने उन्हें रोका। फिर उनसे पूछा कि आपने महाभारत पढ़ी है?
उन्होंने मेरी ओर देखा। कहने लगे कि हाँ पढ़ी है।
“फिर तो शल्य के विषय में भी पढ़ा ही होगा। वो अपनी ही सेना को कोसते थे। और उनकी सेना कैसे पराजित हुई, ये भी आपको पता ही होगा।”
“इस बात का संदर्भ नहीं समझा।”
“बात इतनी सी है कि जिस तरह आप अपने बच्चे को कोस रहे हैं, उससे तो मुझे यही लगने लगा है कि आपको खुद पर ही भरोसा नहीं रहा। आप जब खुद के विषय में यह मानने लगे हैं कि आपकी किस्मत फूट गयी है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप अपनी इज्जत भी नहीं करते। ऐसे में मुझे यकीन है कि आपका बच्चा सचमुच कुछ नहीं कर पाएगा।”
वो चुप बैठे रहे।
मैंने उनसे कहा कि आप जब तक ऐसा सोचना बन्द नहीं करेंगे कि वो कुछ नहीं करेगा, आपकी किस्मत वाकई फूटी नहीं है, सब ठीक हो सकता है, तब तक सब ठीक नहीं होगा। आप जो कर रहे हैं, वो एक बुरा शल्य चिकित्सक ही कर सकता है। अच्छा शल्य चिकित्सक मरीज को हौसला देता है। मरीज को हौसला वही देता है, जिसे खुद पर भरोसा होता है।
***
आपके आस-पास अगर कोई दोस्त शल्य की तरह हो, तो मेरा अनुरोध है कि आप उनसे दूर रहें। उनका संपर्क आपको फायदा कम, नुकसान ज्यादा पहुँचाएगा। आप ऐसे दोस्तों के संपर्क में रहें, जो खुद पर भरोसा करते हों, जो आप पर भरोसा करते हों। चिकित्सा चाहे तन की हो या मन की, भरोसे से बड़ा कोई इलाज नहीं।
(देश मंथन, 19 सितंबर 2015)