आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
कथा यूँ है – यमराज नौजवान के प्राण हरने पहुँचे। नौजवान ने कहा, महाराज बस कुछेक मैसेज चेक करने दो। यमराज ने कहा – ओ के। नौजवान ने फेसबुक मैसेज चेक किये, करीब बीस मिनट निकले। यमराज बोले – चलो। नौजवान बोला – जी बात मैसेज चेक करने की हुई थी, अब ट्विटर के चेक करने हैं।
ओके आधा घंटा निकला। यमराज बोले – अब तो चलो। नौजवान बोला, जी बात तो मैसेज चेक करने की हुई थी – अभी तो लाइन के मैसेज चेक करने हैं। फिर आधा घंटा निकला। फिर व्हाट्सअप, फिर इंस्टाग्राम, फिर हाइक, फिर जीमेल, कुल तीन घंटे निकल लिये।
यमराज ने सिर पीटा – हाय तेरी मौत का वक्त तो निकल लिया।
इस तरह मौत के मुँह से नौजवान को तमाम मैसेज निकाल लाये। पर मौत के मुँह से जो जिंदगी निकली, वह भी मैसेज में ही गयी। जब से होश संभालता है नौजवान, उसके बाद की उम्र का बड़ा हिस्सा मैसेज में जाता है। मैसेज चेक करने में या मैसेज भेजने में। उफ्फ, कैसे-कैसे मैसेज। मेरी एक जानकार हैं, उनका पहला बालक एक साल का हुआ है। सुबह से व्हाटसअप पर फोटो भेजना शुरु करती हैं – शंकी इन बेड 5.40 फिर 5.45, शंकी सिटिंग आन पौटी 6.45 शंकी वाचिंग टीवी, शंकी नॉट वाचिंग टीवी। उफ्फ।
मैंने परिचिता से कहा – देख और सब तो ठीक है, पर ये शंकी ऑन पौटी का फोटू ना भेजा कर। मतलब कुछ ठीक सा नहीं लगता। फिर एक महीने में शंकी आन पौटी के फोटू इतने हो गये हैं, सिर्फ इसी की अलबम बन लेगी।
परिचिता ने पलट कर डाँटा – आप कायदे से आब्जर्व नहीं करते। पौटी पर बैठे शंकी के चेहरे के भाव रोज अलग-अलग होते हैं, वो देखिये। पौटीरत शंकी की मुख-मुद्राओं के बदलावों को आप नहीं देखते, तो क्या देखते हैं? खाक व्यंग्यकार हैं! इतनी गहरी-महीन बातें नहीं देखते?
गहरी महीन बात है। कोई क्या करे?
बात यहाँ खत्म नहीं है। आगे आदेशनुमा आग्रह है कि इसे लाइक करो। अब शंकी ऑन पौटी में रोज-रोज क्या लाइक किया जाये? यह सवाल पूछना डिजिटल शिष्टाचार के खिलाफ है।
मुझे कुछ सीन ऊपर के दिखायी दे रहे हैं। इंद्र भगवान यमराज को डाँट रहे हैं – यमराज, नीचे से आत्माओं की डिलीवरी सही तरह से नहीं ला रहे हो।
यमराज पलट जवाब दे रहे हैं – महाराज ये चित्रगुप्त फँसा देते हैं। कैंडी क्रश सागा खेलने के इतने निमंत्रण भेजते हैं कि मजबूरन मुझे खेलना पड़ता है। काम सारा कैंडी क्रश में फँस गया है।
उफ्फ डिजिटल लाइफ-स्टाइल!
(देश मंथन, 25 जुलाई 2014)