संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
प्रेम की बात करते-करते मैं निकल पड़ा हूँ धर्म यात्रा पर। एकदम अचानक, एकदम अप्रायोजित।
कुंडली देख कर पन्डितों ने बताया था कि मेरा जन्म सिंह लग्न में हुआ है। और पिछले दिनों गुरु ने सिंह में प्रवेश किया है। बस यही समझ लीजिए कि सिंहस्थ के इस मौके पर मैं निकल पड़ा हूँ, उज्जैन यात्रा पर। पिछले दो वर्षों से में लगातार उज्जैन जा रहा हूँ। अगर मेरी किसी पुरानी पोस्ट को आप याद करेंगे, तो आपको याद आयेगा कि अपने छोटे भाई के अचानक निधन के बाद एक सुबह मैंने पोस्ट में एक सपने की चर्चा की थी।
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सपना तो सपना ही होता है, उसके देखे जाने की वजह क्या होती है, पता नहीं। लेकिन मैंने तड़के तीन बजे सपना देखा था कि मैं मर गया हूँ और अपने भाई से मिलने उसके पास चला गया हूँ। मैंने देखा कि मैं पहाड़ जैसी उँची जगह पर कोई छेद है, उससे जमीन के नीचे जा रहा हूँ। जमीन के बहुत नीचे। वहाँ हजारों लोग मुझे फर्श पर लेटे हुए नजर आये। कोई रेंग रहा था, कोई घिसट रहा था। मेरा भाई मुझे अपनी पीठ पर बिठा कर सब घुमा रहा था। फिर मैंने देखा कि कोई बहुत उँची सी मूर्ति जैसी चीज है, जिसका चेहरा मैं नहीं देख पा रहा था, वहाँ कोई व्यक्ति बैठा था। भाई ने मुझे उससे मिलवाया। उस व्यक्ति ने मेरी ओर देखा और कहा कि अभी तुम्हें यहाँ नहीं आना। तो भाई ने धीरे से कहा कि चलो तुम्हें छोड़ आता हूँ। मैं हतप्रभ था। फिर मैंने भाई से पूछा कि तुम कैसे हो?
भाई ने कहा कि मैं बिल्कुल मजे में हूँ। यहाँ सब ठीक है। इतने सारे लोग हैं, सबके साथ ही खाना खाता हूँ। मैंने पूछा कि तुम्हारे पास पैसे हैं, कैसे खाना खाते हो?
मेरा यकीन कीजिए, एक प्रतिशत भी गप नहीं मार रहा, लिखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं। भाई ने कहा कि यहाँ पैसे नहीं चलते। यहाँ ‘कोट मुक्ति’ के बूते खाना खाते हैं।
कोट मुक्ति?
ये क्या है?
उसने कहा कि यहाँ की करंसी है। आप वहाँ अपनी दुनिया में अपनी मेहनत से जो कमाते हैं उसे रुपया कहते हैं, यहाँ वो नहीं चलता। यहाँ कर्मों के फल चलते हैं और उसे कोट मुक्ति कहते हैं। उसने आगे फिर कहा, “भैया आप ‘कोट मुक्ति’ जमा करना। वही यहाँ काम आयेगा। बाकी चीजें वहीं रह जाएँगी।”
मैंने तुरन्त अपनी पत्नी को जगाया। पूरा सपना जस का तस सुनाया, ताकि मुझे याद रहे, वरना सपने भूल जाता हूँ।
उसके बाद मैंने अपने भाई के संसार में झाँकना शुरू किया। मैंने इस बात पर सोचना शुरू किया कि क्यों वो सबसे जुड़े रहना चाहता था? क्यों सबको एक दूसरे से जोड़ना चाहता था? बहुत मन्थन के बाद इतना ही समझ में आया कि इस संसार के परे भी एक संसार है। बेशक बहुत से लोग संसार के इस सबसे बड़े सच को नहीं मानेंगे, लेकिन मैं मानने लगा। जैसे आप अपने भावी जीवन की तैयारी करते हैं, वैसे ही हमें उस संसार में जाने और रहने की तैयारी भी करनी चाहिए जिसकी मेरे भाई ने की थी। भले आपको मेरा सपना काल्पनिक और बे सिरपैर का लगे, लेकिन मैंने वो जगह देखी थी, जहाँ हजारों लोग रेंग रहे थे और मेरा भाई मौज में दस लोगों साथ खाना खा रहा था।
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दो साल पहले जब मैं पहली बार उज्जैन में महाकाल के दर्शन के लिए गया था, तो आधी रात को मेरी निगाह अचानक उस सरोवर पर गई, जिसके बाहर लिखा था, कोट मुक्ति सरोवर।
तो क्या मैंने सपने में यही देखा था? क्या यही वो शब्द था, जिसे मेरा भाई मुझे समझाना चाहता था।
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मैंने दो दिनों तक प्रेम की चर्चा की थी। मेरा मन आज भी प्रेम की कहानी को ही आगे बढ़ाने का था। मुझे बताना था कि जब मैं दिल्ली नौकरी के लिए आया था, तब मेरे मामा ने पहली बार मुझे जिस परिचित के घर ठहरने का पता बता दिया था, उनकी छोटी बिटिया ने हफ्ते भर में ही मुझे एक पत्र पकड़ा दिया। उस दो लाइन के पत्र की ही मुझे आज चर्चा करनी थी और चर्चा करनी थी उस पत्र की भी जिसे मैंने शादी के दूसरे महीने में अपने दफ्तर में प्राप्त किया था। पर आज पता नहीं क्यों मैं अटक गया, धर्म और प्रेम की सामूहिक यात्रा पर।
जब कभी मैं बहुत गंभीरता से सोचता हूँ, तो मुझे लगता है कि धर्म और प्रेम ये दोनों ऐसे विषय हैं, जिनसे हमारा पाला रोज पड़ता है, पर सबसे कम इन्हीं दो विषयों पर सोचते हैं, मन्थन करते हैं। मैं कभी इस बात पर चर्चा करूँगा कि प्रेम और धर्म दोनों मन्थन के विषय नहीं होते, दोनों आत्मसात के विषय होते हैं। जब हम प्रेम को आत्मसात करते हैं, तब हम प्रेम को जीने लगते हैं। जब हम धर्म को आत्मसात करते हैं, तो ईश्वर में समाहित होने लगते हैं। जब धर्म को समझने लगते हैं, तो ये भी समझने लगते हैं कि कृष्ण ने गांधारी से क्यों कहा था कि ‘युगों-युगों तक जो अश्वथामा भटकेगा, वो कोई और नहीं मैं ही हूँ।’
इन सबको विस्तार से समझूँगा, समझाऊँगा। यह भी बताऊँगा कि हम क्यों ये सवाल कभी-कभी खुद से पूछते हैं कि ईश्वर है कि नहीं? और अगर ईश्वर है, तो क्या वो पत्थर की मूर्ति में ही है?
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अभी ट्रेन उज्जैन पहुँचेगी। मैं महाकाल के दर्शन करुँगा। ‘कोट मुक्ति’ इस शब्द को मैं आत्मसात करुँगा, जिसे मेरे छोटे भाई ने अपनी मृत्यु के बाद आकर मुझे समझाने की कोशिश की थी।
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भाई ने कहा था कि उस संसार में कोई और करेंसी नहीं चलती, बस कर्म की करेंसी चलती है और उसे हम जीवित में रहते हुए ही अर्जित कर सकते हैं।
मैं भाई के कहे को सच मानता हूँ। भाई को संसार छोड़े हुए दो वर्ष हो चुके हैं। इन दो वर्षों में मैंने कोशिश की है कि भूल कर भी भूल हो न!
इन दो वर्षों में मैंने रिश्तों का नया पाठ पढ़ने की कोशिश की है। इन दो वर्षों में मैंने जिन्दगी को नए तरीके से समझने की कोशिश की है। पिछले दो वर्षों से मैं प्रेम को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। पिछले दो वर्षों से मैं धर्म को समझने की कोशिश कर रहा हूँ।
इसी कोशिश में आज मैं उज्जैन में हूँ। कल ओंकारेश्वर में रहूँगा।
फिर कल शाम इन्दौर से ही उड़ कर दिल्ली पहुँच जाऊँगा, एक बार फिर जिन्दगी की जद्दोजेहद में फँसने के लिए।
(देश मंथन 18 जुलाई 2015)