पापू यहीं कहीं हैं… क्योंकि शब्द रहते हैं हमेशा जिंदा

0
207

विद्युत प्रकाश मौर्य:

पापू नहीं रहे। हाँ, उनके बच्चे और उनसे करीब से जुड़े हुए लोग उन्हें इसी नाम से जानते थे। पापू यानी रॉबिन शॉ पुष्प। उन्होंने 30 अक्तूबर 2014 को अपने तमाम चाहने वालों का साथ छोड़ दिया। लेकिन पापू जैसे शब्द-शिल्पी कभी इस दुनिया से जाते हैं भला? नहीं जाते, क्योंकि शब्द मरा नहीं करते।

 

मैं जब बड़ा हो रहा था तो पटना से निकलने वाली पत्रिका आनंद डाइजेस्ट में उनकी कहानी पढी थी – यहां चाहने से क्या होता है। उनकी कुछ और रचनाएं पढ़ी थी। इसलिए मेरे जेहन में उनका नाम एक कहानीकार के तौर पर था। फणीश्वरनाथ रेणु के निधन पर उन्होंने अदभुत श्रद्धांजलि लिखी थी उनके लिए – सोने के कलम वाला हीरामन। जब 1995 के साल में भारतीय जन संचार संस्थान में पढ़ाई करने आया तो हमारे सहपाठी बने सुमित ऑजमांड शॉ। दोस्ती होने पर इस शॉ पर मैं चौंका। बाद में पता चला कि सुमित रॉबिन शॉ पुष्प के छोटे बेटे हैं।

मुंगेर से आने के बाद रॉबिन शॉ पुष्प का लंबा वक्त पटना के सब्जीबाग में किराये के घर में गुजरा। इस रविंद्रांगन में सैकड़ों साहित्यकार आये गये होंगे जो अपनी स्मृतियाँ बयां करते हैं। पुष्प जी के सानिध्य में बिहार के तमाम साहित्यकारों ने उनके आशीर्वाद से काफी कुछ सीखा। उनका मृदुल चेहरा… बातों में वात्सल्य का भाव… चाहे कोई भी मिलने पहुँचे वे उतनी ही आत्मीयता उड़ेलते थे… हर युवा लेखक साहित्यकार के साथ वैसा ही प्रेम जैसे अपने बच्चों से। ऐसे साहित्यकार, कथा शिल्पी कहाँ मिलते हैं भला। आसानी से नहीं मिलते।

वे जीवन भर अनवरत कुछ नया लिखते रहे। कहानी की विधा में महारत हासिल थी। उनका एक अपना अंदाज था, जो उन्हें बाकी कथाकारों से काफी अलग करता था। वे कभी पुरस्कारों और छपने की होड़ में शामिल नहीं हुए। पूरे जीवन कभी कथाकारों साहित्यकारों के गुट में नहीं रहे। पर 1957 के बाद हर साल उनकी कहानियाँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में जगह पाती रहीं।

उनकी जीवन संघर्ष से भरा रहा। मुंगेर में भी जिंदगी आर्थिक तंगी में गुजरी। पूरी जिंदगी उन्होंने कोई नौकरी नहीं की। फ्रीलांसर के तौर पर जीवन। कभी रेडियो से आने वाला चेक तो कभी कहानियों का पारिश्रमिक। पटना के महात्मा गांधी नगर में घर तो बना, पर उसमें गीता जी का सहयोग रहा जो कॉलेज में प्रोफेसर थीं। उनके दोनों बेटे जीवन में सफलता की सीढ़ियाँ लगातार चढ़ रहे हैं। बड़े बेटे संजय ओ नील शॉ मौसम विभाग में अधिकारी हैं, तो छोटे सुमित फिल्म निर्माण के क्षेत्र में।

उन्हें 1999 में जब बिहार सरकार राजभाषा विभाग से फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान मिला तो मैं पूरे समय उनके साथ था। सत्तर पार कर चुके थे, हार्ट अटैक भी हो चुके थे। पर कई बार वे बचपन में लौट आते थे। निश्चल खिलखिलाहट… पटना में उनके आवास पर कई बार उनसे मिलना हुआ। तमाम आत्मीय बातें करते थे। कई समस्याएँ भी थीं, लेकिन कभी निराश होते नहीं देखा। भले ही अब वे सशरीर इस दुनिया में न हों, पर शब्द तो यहीं कहीं हैं… आसपास… उनके रचना संसार के तमाम पात्र भी यहीं हैं… आसपास… तभी तो कहता हूँ… पापू यहीं कहीं हैं… क्योंकि शब्द रहते हैं हमेशा जिंदा…

(देश मंथन, 31 अक्टूबर 2014)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें