विनीत कुमार, मीडिया आलोचक :
मयूर विहार में वो मेरी एक्सक्लूसिव और आखिरी मेड थी। वो मजाक में कहा करती – भइया, आप हमको काम करने के नहीं, बात करने के पैसे देते हो? बताओ, हमको खाना टाइम से बनाना चाहिए तो आते ही चाय बना कर मेरे साथ चाय पीने लग जाते हो।
बदले में मैं पलटकर कहता – आप मेरे यहाँ पैसे के लिए काम करने आती हैं दीदी या फिर टाइम पास करने? बताइये तो जरा, इस सोसायटी में किस घर की मेड टाटा सूमो से आती है?
मयूर विहार का वो मेरे लिए बेहद खराब दौर था। घर का एक-एक काम खुद करने की आदत और जिद के आगे हालात ने ऐसा कर दिया था कि उठ कर पानी तक नहीं ले सकते थे। हार कर सोसाइटी की गेट पर गार्ड से यह कहने के लिए गया कि कोई काम के लिए आये तो भेजना। तभी यह दीदी वहाँ खड़ी मिल गयीं। मैंने पूछा – आप करेंगी दीदी मेरे यहाँ काम? अकेले रहता हूँ. बस एक बार खाना बनाना होगा और थोड़ी सफाई। कहीं आता-जाता नहीं, सो कपड़े न के बराबर ही।
हम मुसलमान हैं भइया, आप मेरे हाथ का बना खायेंगे? यहाँ तो कोई काम देने को राजी नहीं है।
मुसलमान हैं, तभी तो पूछा… पुलाव तो जोरदार बनाती होंगी? और गर आज साथ चलती हैं तो झन्नाटेदार परांठे बनाइयेगा न, आलू-भुजिया के साथ।
वो मेरे साथ मेरे घर आ गयी और पूरे तीन घंटे लगाये उसने। घर का हाल देखा तो मुफ्त की सलाह दे दी – हम तो ठीक किये दे रहे हैं भइया, बाकी कुछ चीजें ऐसी हैं जो लुगाई ही ठीक कर सके है, सो जल्दी से ब्याह कर लो।
उसके बाद दीदी के साथ एक नया तार सप्तक ही शुरू हो गया। रोज उनका आना, पहले चाय पीना। फिर खाना क्या बनेगा भइया और पलट कर – आपका क्या मन है बनाने का? सीधा जवाब – जो बोलिये। अच्छा तो लौकी की सब्जी और रोटी… और उनका मीठी झिड़की के साथ कहना – क्या भइया, रोज-रोज वही घिया, तोरी… आपको अच्छा खाने का मन नहीं करता? कोफ्ता बना देती हूँ। आपको कढ़ी पसंद है तो वही, और बनाने लग जाती।
मैं तब तक लेटे-लेटे ही लैपटॉप पर कुछ करने लग जाता और वो बीच में आकर हाथ से लैपटॉप उठा कर मेज पर रख देती – काहे आँख फोड़ते हो भइया, सांस लेने की तो ताकत है नहीं देह में और लगे रहते हो। फिर जमीन पर बैठ जाती।
अपनी बहुओं की कहानी, एक बेटे के प्रेम विवाह करने के किस्से। दो साल की पोती के नखरे… सब कुछ। मेरी फोन की बातचीत से ही समझ लिया था कि मैं अपनी किस दीदी के सबसे ज्यादा करीब हूँ, कौन लड़की है जिसकी बात मैं टाल नहीं पाता, किस आदमी के फोन आने पर मैं भड़क जाता हूँ। ये कौन प्रोफेसर हैं जो मेरे गार्जियन की तरह हैं। ये जो पत्रकार है, वो कितना ईमानदार है… जब वो देखती कि मैं किसी से प्यार से बतिया रहा हूँ तो कहती – बुला लीजिये न भइया घर, लखनउ वाली बिरयानी खिलाते हैं बना कर…
होली आती, दीवाली, नवरात्र… और मैं वही लाइन दोहराता – दीदी, मैं कोई पर्व-त्योहार नहीं मनाता, सो बख्शीश नहीं दे सकता। वो कहती – भइया, हम आपसे माँग रहे हैं, लेकिन जो हम ईद आपके घर मनावें तो… वैसे एक बात बोलें भइया, मेरे घर में न सब कहतीं है कि ऐसा कौन पगलेट है जो तुमही को चाय बना कर पियाता है। एक दिन आपसे सब मिलना चाहते हैं… हम टीवी पर दिखाये एक बार आपको… पोती के जलमदिन पर आइयेगा न ई बार।
तो एक दिन ईद आ ही गयी।
भइया, ऐसा है कि हम छुट्टी तो नहीं करेंगे, बाकी एकदम से आठ बजे आवेंगे और आधे घंटे में चले जांगे।
आधे घंटे क्यों, मत ही आइयेगा न। हम कुछ कर लेंगे अपने से…
आप न, खूब पता है क्या कर लेंगे, दिन भर में कॉफी मग की बारात सजा देंगे टेबल पर और बहुत होगा तो मैगी सेहरा बांध जायेगा. हम आवेंगे, मना मत करना।
तो वो ईद की सुबह आ ही जाती। आधा लीटर मदर डेरी की फुलक्रीम दूध। कटे हुए ड्राई फ्रूट। जामा मस्जिद बाजार की खास भूरे रंग की सेवइयाँ और पूरे मनोयोग से पूरे आधे घंटे किचन में। उस दिन और कोई बात नहीं करती… और न ये पूछती – ब्रुश किया है आपने, खाना लाऊँ? बस एक बार आते ही, नहा लेते न भइया और फिर सीधे रसोई।
बाहर निकलती तो पूरी थाली सजा कर खास भोजन। मेरी आदत सुबह खाने की बिल्कुल नहीं है, लेकिन बिना कुछ कहे ईद मुबारक दीदी करके शुरू हो जाता। वो माथे पर पल्लू रख कर मेरे सामने तब तक बैठी रहती, जब तक पूरी तरह खा न लूँ।
देखिए भइया, आज इतना कुछ है किचन में कि यार-दोस्त भी बुला सकते हैं। ये नहीं कि सब पड़े रहने दीजिएगा और अगले दिन फेंकनी पड़े। हम कल नहीं आवेंगे। बोलियेगा तो अपने लड़के के हाथ कुछ पूरियाँ भिजवा देंगे…
अरे नहीं दीदी… आप परेशान मत हो।
दीदी की मुझे आदत हो गयी थी… 52 साल की महिला जिसके घर दो-दो टाटा सूमो, ट्रक, घर की सारी चीजें। जींस लाइये आपकी, वॉशिंग मशीन से धोकर ले आऊँगी कहते वक्त मेरा उस रहस्य में खो जाना कि आखिर यह मेरे यहाँ काम क्यों करती है और जितने पैसे मुझसे लेती है, आधी रकम तो मुझ पर ही लुटा देती है। कभी किचन की चीजें, सिलबट्टा, कभी मेरे लिए खाने की चीजें, समझना मेरे लिए मुश्किल था। उस बीमारी और अकेलेपन के दौर में घर का काम कितना पीछे छूट गया था… आप जो यह मुझे रोज-रोज शादी कर देने की नसीहतें दिया करती हैं न, कल अकेले मत आइयेगा, साथ अपनी पसंद की लड़की के साथ आइयेगा, या तो मत आइयेगा… मेरी झल्लाहट के बीच से उनकी फूटती हँसी। कितना कुछ सामान्य जो हमने बचपन में माँ के आस-पास घिरी महिलाओं में देखा था। मैं अक्सर कहता – आप लखनउ की नहीं, मेरे बचपन के शहर बिहारशरीफ की हैं।
आज छोड़ दीजिए दीदी, कुछ मत कीजिये। बैठिये और चाय पीजिये। ये बताइये, आपकी पोती टीवी देखती है। वो इस बात से हैरान भी होती कि अभी तो फोन पर किसी को कहा – बहुत बिजी हूँ, बाद में बात करता हूँ… हमसे गपियाने का समय कहाँ से निकल आया?
सिफत, हम दोनों एक-दूसरे को लेकर हैरान थे कि एक पैसे लेकर आधी रकम मुझ पर ही खर्च करती है और दूसरा पैसे देकर भी काम न करवा कर गप्प करता है, मेरे लिए ही चाय बनाता है। हम दिल्ली शहर के दो ऐसे वाशिंदे थे, जिन्होंने अपने भीतर के खालीपन को एक-दूसरे में खोज लिया था।
दीदी एक महीने के लिए लखनऊ चली गयी। जाते वक्त नसीहतों का पुलिंदा और आँचल से आँख की कोर पोछती हुई। वापस आवेंगे तो लुगाई तो आ ही जायेगी भइया, हम तब काहे आवेंगे रोज-रोज। इस बीच मेरी दोस्त वंदना ने अपनी मेड को एक महीने के लिए भेज दिया, जिसे दीदी कहा तो जाते वक्त टोक दिया – हम दीदी नहीं है, मेरा नाम मुन्नी है। खुद ही बता दिया, इस शहर में मेरी दूसरी दीदी नहीं हो सकती।
मयूर विहार का घर छूट रहा था और दीदी फफक-फफक कर रो रही थी… भइया, आप जहाँ जा रहे हैं, हम बस से आ सकते हैं?
आप जितना बस में खर्च करेगी, उतने पैसे मैं दूँगा भी नहीं।
कोई बात नहीं. पास बनवा लेंगे। आप हमरा काम छोड़वा देते भइया, बाकी यहीं रहते।
नहीं दीदी, कॉलेज बहुत दूर है न यहाँ से।
मयूर विहार आवेंगे आप तो बस एक फोन कर दीजियेगा, जहाँ कहेंगे हम वहीं आ जायेंगे.
ठीक है दीदी।
जाते वक्त मैंने सारा हिसाब कर दिया। वो एक पैसे लेने के लिए तैयार न थी।
जाते-जाते सितम काहे ढाह रहे हो भइया?
बहुत मनाने पर ले लिया।
गेट बंद करता कि वापस आ गयी और हाथ में मचोड़ कर सौ का नोट पकड़ा दिया – आपके लिए चॉकलेट लाना भूल गयी थी।
मयूर विहार छूटा, दीदी का नियमित फोन आना जारी रहा। हाल-चाल, तबीयत… लेख, तहलका,टीवी शो… अगली बार टीवी पर कब आवेंगे, सबकी खोज खबर… हमरी बहू पूछती रहती है आपके बारे में – आपके भइया तो धोखेबाज निकले अम्मी, बोल कर आये नहीं कभी घर?
कहाँ गयी वो नसीहतें कि मेड,कामवाली,मुस्लिम औरत, संभल कर विनीतजी, आजकल जमाना खराब है, किसी का भरोसा नहीं… सब कबाड़ में तभी चले गए थे। याद रह गया तो बस इतना कि सब काम करने वाली दीदी नहीं होती और कभी नाश्ता न करने वाला यह शख्स ईद की सुबह हचड़कर नाश्ता कर सकता है और बाहर प्लीज डोंट नॉक की चिट लगा कर देर दोपहर तक सो सकता है और वह भी बिना कोई दवाई लिये।
चलते-चलते दीदी के साथ एक तस्वीर ली। कुछ ही महीने बाद मोबाइल चोरी हो गया तो तस्वीर भी गयी और उनका नंबर भी। बस गूगल इमेज से हमने उनकी शक्ल मिलान करने की कोशिश की है।
(देश मंथन, 29 जुलाई 2014)