संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
कल रात लौट आया माया के पास।
दो दिनों तक अपना ही वजूद तलाशता रहा। जब भी अपने वजूद की तलाश पर निकलता हूँ, माया मेरी ओर देख कर मुस्कुराती है। कुछ नहीं कहती। पर मैं उसकी आँखें पढ़ता हूँ। वो कहती हैं-
“जाइए आप कहाँ जाएँगे, ये नजर लौट के फिर आयेगी, दूर तक आप के पीछे पीछे, मेरी आवाज चली जायेगी…।”
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खैर, अपनी इस बार की यात्रा में मुझे खुद से मिल पाने का बहुत समय मिला। अपने आप से मिलने की कड़ी में ही उज्जैन में अपने परिजन धर्मेन्द्र शर्मा, Satish Sharma से मैं पल भर के लिए ही सही, पर मिल पाया। यह मुलाकात एक धरोहर की तरह मेरे पास सुरक्षित है।
दिल्ली जैसे महानगर में, जहाँ आदमी खुद से भी अक्सर नहीं मिल पाता है, वहाँ झमाझम बरसात में कोई आपसे मिलने की तड़प दिल में संजोये हुए महाकाल के द्वार पर खड़ा दिखे, तो खुद को भाग्यशाली समझना चाहिए।
झमाझम बरसात में ही उज्जैन से ओंकारेश्वर और ओंकारेश्वर से इंदौर की यात्रा में न जाने कितनी बार माया की आहट मैंने सुनी।
ओंकारेश्वर पहुँचा ही था कि खंडवा से Harsh Upadhyay का फोन पीछा करता हुआ मेरे कानों तक पहुँचा।
भैया, “आपको कई फोन किया। फोन नहीं लगा, नहीं तो खंडवा से ओंकारेश्वर मैं दौड़ा चला आता।”
हर्ष का फोन रखा, तो Jambu Chopra Jain का फोन आया। आप इंदौर से निकल गये। आपका फोन नहीं लगा। आपकी वापसी की क्या योजना है?
मैंने बहुत चाहा कि मैं किसी को परेशान न करूँ, लेकिन जंबू इंदौर हवाई अड्डे पर अपने दो साथियों के साथ मुझसे पहले से मौजूद थे। कुल मिला कर पाँच मिनट का भी वक्त नहीं था। पर पाँच मिनट से भी कम वक्त के लिए घन्टा भर सफर तय कर जंबू हवाई अड्डे पर मिले।
कई लोगों ने मुझे सन्देश भिजवाया कि मिलना है। पर खुद से भटका हुआ आदमी क्या जवाब देता कि कहाँ मिलूँगा, कब मिलूँगा, कैसे मिलूँगा। कई सन्देश मेरे फोन में अटक कर रह गये।
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बहुत साल पहले सिद्धार्थ ने माया को छोड़ दिया था। मुझे यकीन है कि माया ने तब भी गुनगुनाया होगा “जाइए आप कहाँ जाएँगे, ये नजर लौट के फिर आयेगी…।”
पर सिद्धार्थ नहीं लौटे थे। माया की आवाज दूर तक उनके पीछे-पीछे चल कर नहीं पहुँच पायी थी।
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आज सोचता हूँ कि सिद्धार्थ के पास भी अगर संजय सिन्हा के फेसबुक परिवार की तरह एक ऐसा परिवार होता, जिसमें कोई महाकाल के द्वार पर भी बरसते बादलों के बीच उनका इंतजार कर रहा होता, कोई ओंकारेश्वर तक उनपर स्नेह लुटाता मिल जाता, कोई ओंकारेश्वर से इंदौर तक उन पर अपना प्यार न्योछावर करता नजर आता, तो सिद्धार्थ भी लौट आते, माया के पास।
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मेरे दफ्तर में आने वाले ज्योतिष मुझसे कहते हैं कि मेरी कुंडली में लिखा है, वैभव और सन्यास के बीच युद्ध होगा। जीत किसकी होगी, ये तो वो भी नहीं बता पाते। छह महीने, साल में कुछ दिनों के लिए मेरी कुंडली का सन्यास मुझे झकझोरता है। लेकिन माया की मुस्कुराहट वापस खींच लाती है, अपने संसार में।
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माया के गीत मुझ तक जैसे ही पहुँचते हैं, “संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे, इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे…।”
बस मेरा विमान आसमान में मुड़ जाता है दिल्ली की ओर।
अब कुछ दिन शान्ति से बैठूँगा। फिर निकल पड़ूँगा किसी और यात्रा पर।
वहाँ कोई अपना परिजन मिलेगा। उसका प्यार खींच लायेगा, मुझे मेरे संसार में।
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आज छोटी पोस्ट लिखने के पीछे मेरी एक मंशा है। मंशा उन पलों को जीने की, जिसमें मेरे परिजन मुझसे मिल कर मुझे खुद में समाहित हो जाने देते हैं। माया की चाहत भी तो यही है। कल देर रात लौटा हूँ, आज का दिन माया के नाम। दिन भर रिश्तों के नाम, जिन्दगी के नाम।
(देश मंथन 20 जुलाई 2015)