पानी बचाएँ तभी बचेगी जिन्दगी और बचेंगे परिंदे

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विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार : 

कुदरत ने इंसान के ढेर सारी खूबियाँ बक्शी हैं पर उसे उड़ने का इल्म नहीं दिया। जिन पक्षियों को उड़ने को इल्म दिया है उन्हें प्रकृति से समन्वय बनाने की ताकत भी दी है। बदलते मौसम की मार से खुद को बचाए रखने के लिए पक्षी साल में कई महीने स्थान परिवर्तन करते हैं। ये परिवर्तन न सिर्फ मौसम से अनुकूलन के लिए होता है बल्कि प्रजनन के लिए भी होता है।

भरतपुर के केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान में आने वाले परिंदे अपने चार महीने के प्रवास में न सिर्फ प्रजनन करते हैं बल्कि अपने बच्चों के उड़ना भी सिखाते हैं। जब इन पंक्षियों को उड़ना भली प्रकार आ जाता है तब वे उन्हें अपने साथ ले जाते हैं। यह क्रम हर साल चलता है। पक्षियों की इस दुनिया को जितना गहराई में समझने की कोशिश करें उतना ही रूचिकर लगता है।

केवलादेव की कहानी शुरू होती है साल 1726 के आसपास से। साल 1726 से 1763 के बीच भरतपुर के प्रतापी जाट राजा महाराजा सूरजमल ने अजान बाँध का निर्माण कराया। तब ये इलाका नमभूमि (वेटलैंड) था और यहाँ परिंदों बसेरा करने आते थे। पर 1893 से 1900 के बीच भरतपुर के राजा राम सिंह ने यहाँ पक्षी उद्यान बनाने के बारे में सोचा। उन्हें ब्रिटेन प्रवास के दौरान बतखों के शिकार के दौरान इसकी प्रेरणा मिली। उसके बाद केवलादेव क्षेत्र का संरक्षण शुरू हो गया। मीठे पानी की झील होने के कारण यहाँ बड़ी संख्या में विदेशी और देशी मेहमान परिंदे आकर बसेरा करने लगे। 1956 में देश की आजादी के बाद महाराजा ने इस क्षेत्र को राजस्थान सरकार को सौंप दिया और इसे पक्षियों के संरक्षण क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाने लगा।

पर सच्चाई है कि पक्षी वहीं बसेरा करने आते हैं जहाँ उन्हें नमभूमि और पानी मिलता है। ताल, चौर जैसे इलाके उनके लिए प्रिय होते हैं। राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र में सूखा पड़ा रहता है पर भरतपुर जिले का इस क्षेत्र ताजे पानी का संकट नहीं रहा। लिहाजा हर साल यहाँ साइबेरियन क्रेन समेत कई विदेशी पक्षी आते थे। पर सन 2000 के आसपास यहाँ पानी का ऐसा संकट आया कि विदेशी मेहमान परिंदों का आवक घटने लगी। परिंदे कम आने लगे तो सैलानियों का आना भी कम होने लगा। एक समय तो ऐसा आया जब लगा कि केवलादेव से विश्व धरोहर स्थल (जो दर्जा इसे 1985 में मिला था) छिन लिया जा सकता है।

केवलादेव की खासियत ऐसी है कि यहाँ न सिर्फ ताल तलैया बल्कि नम भूमि, वन क्षेत्र, दलदली भूमि सब कुछ हुआ करती है। पर पानी के संकट ने इस गुलशन को वीराना कर दिया था। पर वन विभाग के अधिकारियों और राज्य सरकार के प्रयास से यहाँ पानी लाने की कोशिश की गई। साल 2012 में यहाँ 44 करोड़ की ज्यादा लागात से गोवर्धन ड्रेन से पानी लाने के इंतजाम किया गया। इसके लिए अंडरग्राउंड पाइपलाइन बिछायी गयी। इसके बाद से केवलादेव के वन क्षेत्र में पानी तो आने लगा है। एक बार फिर से मेहमान परिंदों की आवक शुरू हो गयी है। सैलानी भी आने लगे हैं। बाग गुलजार हो उठा है। पर अभी तक साइबेरियन क्रेन नहीं आया।

पानी बचाएँ तभी बचेगा जीवन 

पार्क के अंदर 2006 में सलीम अली पेवेलियन बनाया गया है। यहाँ पानी का महत्व बताते हुए कई रोचक जानकारियाँ दी गयी हैं। कई ग्रहों के बीच हमारी पृथ्वी ही ऐसी है जहाँ पर पानी है। पानी है इसलिए यहाँ जीवन है। हमारी धरती का 70% हिस्सा पानी है। इस पानी में 12% भूजल है। पानी का 80% से ज्यादा हिस्सा बर्फ के रूप में है। सिर्फ 2% ही मीठा पानी है जो पीने लायक है। हमें प्रकृति का दोहन इस तरीके से करना है कि हम पानी को बचाकर रख सकें , जिससे जिंदगी भी बची रहे।

आइए इन परिंदों से सीखें 

केवलादेव में आने वाले कई मेहमान परिंदे 5000 किलोमीटर से ज्यादा की उड़ान भर कर हर साल यहाँ पहुँचते हैं। कई परिंदे 200 किलोमीटर प्रतिघंटे की उड़ान भरते हैं। आसमान में 20 हजार फीट की ऊँचाई पर उड़ान भरने वाले परिंदे अपने रास्ते का पता सूरज और चाँद को देख कर लगाते हैं। इन परिंदों की खास बात है कि वे पहले साल जिस शहर के जिस उद्दान में जाकर बसेरा करते हैं, अगले साल फिर वहीं पहुँचते हैं। वे स्थान और रास्ता याद रखते हैं। यहाँ तक की अपना पेड़ और अपना घोसला भी याद रखते हैं।

गाइड सरदार राजू सिंह बताते हैं कि केवला देव में आने वाले 90% विदेशी परिंदे शाकाहारी होते हैं, जबकि 90% देशी परिंदे माँसाहारी। भला क्यों आते हैं परिंदे केवलादेव में। इतना सब कुछ भला किसलिए… क्योंकि यहाँ उन्हें जीवन के लिए जरूरी पानी मिलता है। तो आइए पानी बचाने का संकल्प लें। परिंदों को बचाने का संकल्प लें।

साइकिल रिक्शा की हो विदाई 

केवलादेव पार्क में फिलहाल साइकिल रिक्शा से सैलानियों को घूमाने की अनुमति है। पर साइकिल रिक्शा से 12 किलोमीटर से ज्यादा सैर करवाना रिक्शा चालकों के लिए थका देने वाला है। इसलिए माँग की जा रही है कि इसकी जगह बैटरी रिक्शा का इस्तेमाल किया जाये। बैटरी रिक्शा का एक और लाभ है कि इसमें बैक गियर होता है। इससे बार-बार सैलानियों को घूमाने के लिए साइकिल रिक्शा को पीछे मोड़ने में दिक्कत नहीं आयेगी। पार्क में रिक्शा चलाने वाले 130 से ज्यादा चालकों में से ज्यादातर बैटरी रिक्शा लेने को तैयार हैं। जरूरत है कि इसके लिए राजस्थान का वन विभाग पहल करे। खासकर वे रिक्शा वाले जो अनुभवी हैं पर उनकी उम्र ज्यादा हो चुकी है उन्हें बैटरी रिक्शा आ जाने से राहत मिलेगी।

हर डीजल पेट्रोल वाहन पर रोक लगे

साथ ही पार्क में किसी भी तरह के डीजल और पेट्रोल वाहन पर रोक लगायी जानी चाहिए। वन विभाग के अधिकारियों को भी चाहिए कि वे इलेक्ट्रिक स्कूटर से पार्क का दौरा करें। पार्क के पर्यावरण को बचाए रखने के लिए ये निहायत जरूरी है। राजस्थान के वन विभाग के इस मामले में सख्त नियम बनाना चाहिए। इसके अलावा पार्क के पास से गुरजने वाले नेशनल हाईवे को पूरी तरह नो हार्न जोन में तब्दील किया जाए। हार्न बजाने वालों पर भारी जुर्माना का प्रावधान किया जाये।

(देश मंथन, 10 सितंबर 2015)

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