संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मुझे बचपन में तैरना नहीं आता था, लेकिन अमेरिका में जब मैं अपने बेटे को स्वीमिंग क्लास के लिए ले जाने लगा, तो मैंने उसके कोच की बातें सुन कर तैरने की कोशिश की और यकीन मानिए, पहले दिन ही मैं स्वीमिंग पूल में तैरने लगा।
बेटा छोटा था और स्वीमिंग कराने के लिए जो कोच वहाँ था, उसने कहा कि पानी में खुद को छोड़ दो। जब तुम पानी पर खुद को भय रहित होकर छोड़ दोगे तो तुम तैरने लगोगे। उसका पहला अध्याय ही यही था कि पानी की सतह पर तुम ऐसे लेट जाओ, जैसे तुम बिस्तर पर लेटते हो। तुम कोशिश करो। तुम ये देख कर हैरान रह जाओगे तुम पानी में डूब नहीं रहे। तुम्हारा शरीर पानी में तब डूबने लगेगा, जब तुम शरीर को छोड़ नहीं पाओगे।
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कई बार आदमी को खुद को यादों की लहरों पर छोड़ देना चाहिए।
उसे सिर्फ यह याद करने की कोशिश करनी चाहिए कि जिन्दगी का सफर कहाँ से शुरू हुआ, कहाँ पहुँचा। मैं अक्सर खुद को यादों की लहरों पर छोड़ देता हूँ। बिना इस बात की परवाह किए कि मैं डूब जाऊँगा या तैरने लगूँगा।
सच कहूँ तो जिन्दगी चंद यादों के सिवा कुछ है ही नहीं।
तो, कल मैंने एक टेलीग्राम की चर्चा की थी। मैंने लिखा था कि भोपाल में रहते हुए मेरे पास जनसत्ता से लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के लिए वो टेलीग्राम आया था, जिसमें लिखा था कि भोपाल से दिल्ली आने-जाने का खर्चा मिलेगा। मैं 31 जनवरी को दिल्ली आया था और परीक्षा देकर 1 फरवरी की सुबह मैं भोपाल पहुँच गया था।
मुझे बहुत उम्मीद नहीं थी कि मुझे जनसत्ता में उप संपादक पद के लिए चुन लिया जाएगा।
मैं सरकारी नौकरी नहीं करूँगा, ये तय कर चुका था। पर करुँगा क्या, ये नहीं पता था।
अब आगे क्या?
मुझे भोपाल दैनिक भास्कर में काम करने का मौका मिल चुका था। मामा कहते थे कि अगर पत्रकारिता ही करनी है, तो दिल्ली के अखबार में काम करना चाहिए। तो मैं दिल्ली वाले अखबार में टेस्ट दे आया था और तीन सौ लोगों के बीच कितने चुने जाएँगे, ये पता नहीं था।
फरवरी का आधा महीना बीत चुका था। 18 फरवरी 1988। हाँ, यही तारीख थी।
अचानक दोपहर में दरवाजे की घंटी बजी।
“टेलीग्राम है।”
मैंने टेलीग्राम रिसीव किया। खोला। पढ़ा। उछल पड़ा।
उसमें अंग्रेजी में लिखा था, “बधाई! जल्द आइए और ड्यूटी ज्वॉयन कीजिए।”
मैंने पूरे घर में घूम-घूम कर सबको बताया कि मुझे जनसत्ता में नौकरी मिल गयी है।
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मैं भाग कर अपनी टीचर के पास पहुँचा। मैंने उन्हें बताया कि मुझे जनसत्ता में नौकरी मिल गयी है। टीचर ने मुझे गले से लगा लिया। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। वो मुझे अपनी संतान की तरह प्यार करती थीं। उन्होंने कहा कि “जाओ, संजू। अब दिल्ली तुम्हारी है। पर हमें भूलना मत।” और गले लगाए हुए ही वो सुबक पड़ीं।
मैंने फटाफट एक टेलीग्राम किया कि मैं 1 मार्च को ज्वॉयन करूँगा।
अब शुरू हुई दिल्ली आने की तैयारी।
आदमी भी कितना अजीब होता है। उसकी योजनाएँ भी अजीब होती हैं। मैं दिल्ली आ रहा था, पर मन के किसी कोने में ये बात थी कि मैं तो कुछ दिनों के लिए ही दिल्ली जा रहा हूँ। मैं भोपाल लौट आऊँगा। मेरा शहर भोपाल है, दिल्ली नहीं।
मेरे साथ रूसी भाषा पढ़ने वाली एक लड़की को जब मेरे दिल्ली आने के विषय में पता चला तो वो भागी-भागी मेरे पास आयी। “तुम जा रहे हो, संजय?”
“हाँ, मैं जा रहा हूँ।”
“मेरा क्या होगा? तुमने कभी सोचा?”
“तुम क्यों परेशान हो? मैं तो वापस लौट आऊँगा।”
“पर माँ तो कह रही थी कि दिल्ली जाकर लोग वहीं के हो जाते हैं।”
“मैं आऊँगा।”
“मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी।”
“पक्का।”
“वादा?”
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मैं एक महीने बाद लौट कर भोपाल गया था। पर रुकने के लिए नहीं। दुबारा दिल्ली चले आने के लिए।
रूसी भाषा संस्थान वाली लड़की फिर मेरे पास आयी थी। “अब तुम दिल्ली मत जाओ, संजू।”
“जाना पड़ेगा।”
“तुम्हें यहाँ किस चीज की कमी है? तुम यहीं रुक जाओ। यहीं रहो। भोपाल में बहुत कुछ है।”
“नहीं, जाना ही पड़ेगा।”
“मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।”
“ऐसे कैसे तुम मेरे साथ रहोगी?”
“मैं तुमसे शादी कर लूँगी। आई लव यू।”
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अब मेरे पास शब्द नहीं थे। आज सोचता हूँ तो यही लगता है कि काश उसने ये तीन शब्द नहीं कहे होते! अगर उसने नहीं कहे होते तो मैं कभी न कभी भोपाल लौट जाता। पर अब तो मेरी वापसी के सारे रास्ते बंद हो गये।
“नहीं, मैं शादी नहीं कर सकता। मैं अभी सोच भी नहीं सकता। मेरी उम्र ही क्या है?”
इसके बाद मुझे बिल्कुल याद नहीं। मैंने सिर्फ इतना देखा था कि लड़की आँसू पोछती हुई अपनी फिएट कार में बैठ कर चली गयी।
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मैं दिल्ली चला आया था।
जब मैं इंटरव्यू देने दिल्ली आाया था, तब तो एक दिन की बात थी, मैं ठहरा था झा अंकल के घर। पर नौकरी मिलने के बाद अब मैं वहाँ कैसे रहता? मेरा ममेरा भाई उन दिनों दिल्ली में ही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्पैनिश भाषा में एमए कर रहा था। वो झेलम हॉस्टल में था। उसने मुझे अपने पास बुला लिया। गर्मी शुरू हो चुकी थी। भाई कमरे में अकेला नहीं था। उसके साथ उसका कोई बंगाली रूममेट भी था।
हम दो बिस्तरों को जोड़ कर उस पर तीन लोग सोते। कुछ दिन तो ठीक चला। पर एक दिन उसके बंगाली दोस्त ने मेरा सूटकेस उठाया और हॉस्टल के पास झाड़ियों में फेंक आया। अब मेरे पास न तो कपड़े थे, न पैसे। सारा कुछ सूटकेस में चला गया।
मामा की पोस्टिंग तब जबलपुर में थी। अब मै क्या करूँ, समझ में नहीं आ रहा था। उस दिन अचानक हमारे पास हॉस्टल में सीबीआई का एक पुलिस इंसपेक्टर मिलने आ गया। मामा जब सीबीआई में ज्वांयट डाइरेक्टर थे, तब वो उनके साथ ही था। उस इंसपेक्टर से हमारा घरेलू संबंध था। जब वो मुझसे मिला, तो मैंने उससे कहा कि मेरा सूटकेस चोरी हो गया है।
इंसपेक्टर ने पुलिसिया दिमाग लगाया। उसने पूछा कि कमरे में जो लड़का रहता है, उससे आपके संबंध कैसे हैं? मैंने कहा कि ऐसे ही, कुछ खास नहीं। उसे परेशानी तो होगी, यह लाजिमी है।
अब इंस्पेक्टर ने उस लड़के से पूछताछ शुरू की। उसे थोड़ा डराया गया कि सच नहीं बोला तो पुलिस आएगी, पूछताछ होगी। लड़का थोड़ी देर में ही सच उगल पड़ा। सूटकेस वहाँ झाड़ी के पीछे है।
सूटकेस मिल गया। अब तय हुआ कि हॉस्टल में नहीं रहना।
मैं दफ्तर गया। अपने एक सीनियर इंद्र कुमार जैन से मैंने बात की। उन्होंने मुझे प्रस्ताव दिया कि वो दिल्ली से मुंबई जा रहे हैं, मैं उनके कमरे को किराए पर ले लूँ।
मैंने फौरन हाँ कह दी।
इंद्र कुमार जैन बेहद सुलझे हुए, शानदार सीनियर थे। उन्होंने न सिर्फ मुझे अपना कमरा दिया, बल्कि सारा सामान भी छोड़ गये। बिस्तर, चादर, तकिया। यहाँ तक कि एक नयी शर्ट भी कि तुम इसे पहनना, संजय।
यही वो घर था, जिसकी मालकिन एक आंटी थीं। आंटी के रूप में मुझे फिर माँ मिल गईं।
मेरी माँ दुनिया की निगाहों में मर कर भले इस संसार से चली गयी थी। पर वो मुझे मिलती रही, कई-कई रूपों में। भोपाल में मुझे मेरी रूसी भाषा की टीचर के रूप में मिली। यहाँ आंटी के रूप में मिली।
फिर तो कहानी आगे बढ़ती ही चली गयी। उसके बाद जिन्दगी की दिशा ने करवट बदल ली। मैं सोचता रहा कि भोपाल जाऊँगा, पर किस्मत ने मुझे बाँध लिया था।
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लिखते-लिखते मैं कई पन्ने लिख सकता हूँ, पर आप एक दिन में कितना पढ़ेंगे।
मैं कहानी यहीं रोक कर आगे बढ़ सकता हूँ। क्रमश: लिखना मुझे अजीब लगता है। यादें तो क्रमश: नहीं होतीं न!
अगर आप कहेंगे तो मैं यादों की कहानी आगे बढ़ा सकता हूँ। पर याद रखिएगा, एक बार आगे बढ़ गया तो कितनी दूरी तक चलता जाऊँगा, खुद नहीं जानता। सच इतना ही है कि मेरी जिन्दगी की किताब में एक भी पन्ना ऐसा नहीं, जिसे मुझे छिपाने की जरूरत हो।
मैंने तो खुद को यादों की लहरों पर छोड़ दिया है। एक-एक कर सारी तस्वीरें आंखों के आगे घूम रही हैं।
अगर मैं दिल्ली नहीं आता, तो क्या करता? मैं कहाँ होता? मेरी शादी किससे होती? मैं कौन होता?
(देश मंथन 01 फरवरी 2016)




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