संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आपको बताया था न कि पिछले दिनों जब मैं कान्हा में टाइगर देखने गया था, उस रात जंगल के गेस्ट हाउस की बत्ती चली गयी थी। अब टाइगर तो वहाँ मिले नहीं, हाँ, पड़ोस के कमरे में एक डॉक्टर मिल गये।
डॉक्टर थे तो टूटी हड्डी जोड़ने वाले, पर फुल मस्त। बीच जंगल में जिन्दगी जीने का पाठ किसी को पढ़ना हो तो ऐसे लोगों से जरूर मिलना चाहिए। मेरी मुलाकात तो इत्तेफाक से हो गयी। पर उस डॉक्टर से मिलना मेरी जिन्दगी का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा।
जिन्दगी की कई सच्ची कहानियाँ उन्होंने मुझसे साझा कीं।
आज उन्हीं में से एक कहानी आपके लिए। कहानी का एक-एक शब्द सत्य है। सुनकर आप सदमे में जाएंगे, या खिलखिला कर हँस पड़ेंगे यह पूरी तरह आप पर निर्भर करता है।
खैर, अब संजय सिन्हा और बातें नहीं बनाएँगे, सीधे-सीधे आपको कहानी ही सुनाएंगे।
तो शुरू करता हूँ आज की कहानी।
कहानी डॉक्टर के एक और डॉक्टर दोस्त से जुड़ी है। उसके यहाँ एक बार एक दंपति पहुंचे। पत्नी गर्भवती थी और उसके पेट में जुड़वाँ बच्चे पल रहे थे। शादी के कई साल बीत चुके थे और बहुत दिनों बाद वो गर्भवती हुई थी। डॉक्टर लगातार उस महिला का मुयायना कर रहे थे। एक दिन डॉक्टर ने अल्ट्रासाउंड की जाँच में पाया कि गर्भनाल बच्चे की गर्दन में फंस गयी है। उन्होंने दंपति से कहा कि फौरन ऑपरेशन की दरकार है।
ऑपरेशन शुरू हुआ। ये जरा कॉम्लिकेटेड था। वैसे डॉक्टर ने कह दिया था कि इतनी चिंता की बात नहीं। जच्चा और बच्चे सब बच जाएंगे। ऑपरेशन थिएटर के बाहर पति चिंतित होकर लगातार टहल रहा था। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही थीं।
डॉक्टर भी चिंतित थे।
आपरेशन में एक बच्चा नहीं बचा।
इस दुखद खबर को बाहर उसके पिता तक पहुँचाया गया। आदमी इस खबर को सुन कर बहुत उदास हुआ। उसने डॉक्टर से पूछा कि दूसरा बच्चा?
“उसे सही सलामत निकालने की तैयारी चल रही है।”
आदमी खामोश रहा।
पर अजीब दुर्भाग्य था। दूसरा बच्चा भी नहीं बचा। अब सवाल उठा कि उस आदमी तक यह खबर कैसे पहुँचाई जाए। बहुत हिम्मत करके यह खबर भी उस तक पहुँचाई गयी। आदमी बहुत उदास हो गया। पर चुप रहा।
उसने पूछा कि बच्चे की माँ?
इसी बीच एक हादसा हुआ। तकनीकी तौर पर इसे क्या कहते हैं, मैं भूल गया हूँ, पर डॉक्टर मुझे बता रहे थे कि ऑपरेशन के दौरान कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी खास वजह से मरीज को अत्यधिक रक्त स्राव होने लगता है। ऐसे में स्थिति बहुत दुरूह हो जाती है। मरीज का शरीर पूरी तरह साथ नहीं देता। उस महिला के साथ भी ऐसा ही हुआ। बहुत तेजी से रक्त स्राव होने लगा और बहुत कोशिश के बावजूद महिला नहीं बची।
क्या दुर्भाग्य था। एक साथ तीन-तीन मौतें।
अब सवाल उठा कि बाहर खड़े उसके पति को कौन बताए कि उसकी पत्नी भी नहीं रही।
बहुत हिम्मत के बाद डॉक्टर खुद वहाँ गये और उन्होंने बहुत आहत मन से पूरी बात मरीज के पति को बताई।
उन्हें पूरी उम्मीद थी कि अब इस खबर को सुन कर वो कुछ भी कर सकता है। वो अपना दिमागी संतुलन खो सकता है, वो चीख सकता है, वो झगड़ा कर सकता है।
पर उस आदमी ने ऐसा कुछ नहीं किया।
यही इस कहानी का क्लाइमेक्स है कि उसने ऐसा कुछ नहीं किया। पर खबर सुन कर वो अचानक डॉक्टर के पाँव पर गिर पड़ा। दोनों हाथ जोड़ कर डॉक्टर से कहने लगा कि ओह डॉक्टर आपने मुझे आजाद कर दिया। पिछले पंद्रह सालों से मैं किस मानसिक यंत्रणा से गुजर रहा था मैं ही जानता हूँ। मैं मुक्ति चाहता था। पर किसी तरह मुक्ति नहीं मिल रही थी।
मैं आजाद हो गया। मैं आजाद हो गया। इतना कहता हुआ वो कमरे से बाहर निकल गया।
***
डॉक्टर हतप्रभ खड़े रहे। समझ नहीं पाए कि ये क्या हुआ। उसकी इस प्रतिक्रिया पर किस तरह की प्रतिक्रिया जताएं।
डॉक्टर जब कहानी सुना चुके तो डाइनिंग टेबल पर सन्नाटा पसर गया।
सन्नाटे के बीच मेरा मन कुलबुला रहा था यह सोच कर कि क्या सचमुच कोई रिश्ता इतना भारी भी हो जाता है?
सच क्या था, नहीं पता। पर जो हुआ, वो यही हुआ।
आज कहानी आपको जरा अधूरी सी लगेगी। पर इसका अधूरा होना ही इसकी पूर्णता है। इसकी पूर्णता आपके मन में उठने वाले सवालों से होगी। आपके मन के क्षोभ से होगी।
जो भी हो, आज जवाब आपको देना है कि सदमा था या ये आजादी थी?
(देश मंथन 29 जून 2016)