संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
छोटा था तो मेरे स्कूल जाने से पहले माँ जाग जाती थी। चाहे रात को सोने में उसे कितनी भी देर हुई हो, पर वो मुझसे पहले उठ कर मेरे लिए नाश्ता तैयार करती, लंच बॉक्स सजाती, मेरी यूनिफॉर्म प्रेस करती और फिर मुझे प्यार से ऐसे जगाती कि कहीं अगर मैं कोई सपना देख रहा होऊँ तो उसमें भी खलल न पड़ जाए। मैं जागता, रजाई मुँह के ऊपर नीचे करता, फिर सोचता कि रोज सुबह क्यों होती है, रोज स्कूल क्यों जाना पड़ता है, रोज भरत मास्टर को वही-वही पाठ पढ़ कर क्यों सुनाना पड़ता है। मुझे लगता था कि स्कूल को मंदिर की तरह होना चाहिए, जिसकी जब श्रद्धा हो चला जाए।
स्कूल जाने से मुझे कभी परहेज नहीं था, पर मन तो मन ही है, कभी-कभी सुबह जागने का मन नहीं करता था। मैंने देखा था कि बहुत-से बच्चे रोज स्कूल जाने को व्याकुल रहते थे, वो वहाँ जाते ही क्रिकेट के अगले मैच की तैयारी में डूब जाते या फिर फुटबॉल खेलने की योजना बनाने लगते। पर मेरे लिए ये सारी चीजें पीछे छूट जातीं, मुझे लगता कि इससे तो बेहतर होता कि अभी घंटा भर और माँ की गोद में दुबक कर सोता रहता, मन ही मन कोई कहानी गुनता रहता, बजाए इसके कि बाबर भारत कब आया इस पाठ को बेंच पर खड़ा होकर भरत मास्टर को सुनाता।
माँ नियम की पक्की थी। उसका कहना था कि मुझे रोज सुबह जागना चाहिए। मुझे रोज स्कूल जाना चाहिए। मुझे रोज एक पाठ पढ़ना चाहिए।
और मैं रोज स्कूल जाऊँ, इसके लिए माँ खुद सुबह जल्दी जागती थी।
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माँ जब तक इस संसार में रही, उसकी तरफ से एक दिन भी मुझे जगाने में चूक नहीं हुई।
मैं अक्सर सोचता था कि माँएं ऐसी क्यों होती हैं? उनके भीतर वो कौन सा तत्व होता है जो अपनी तकलीफ की परवाह किये बिना वो अपनी संतान के लिए सबकुछ छोड़ देने पर उतारू होती हैं।
माँ के चले जाने के बाद एक सुबह मैं देर तक सोता रहा। मेरा मन उस दिन स्कूल जाने का नहीं था। पर अचानक मैंने महसूस किया कि कोई मुझे जगा रहा है।
मैं बहुत हैरान था, अब मुझे कौन जगा रहा है?
मैंने देखा कि मेरी बहन मेरे सिरहाने खड़ी है और मुझे ठीक वैसे ही जगा रही है, जैसे माँ जगाया करती थी।
मैं और मेरी बहन दोनों हमउम्र ही थे। हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे, पर हम झगड़ा भी खूब करते थे। पर उस दिन बहन ही मुझे जगा रही थी, “उठो संजय, स्कूल नहीं जाना क्या?”
मैंने बहुत गौर से देखा, माँ ही सामने खड़ी थी। मैं चौंक कर उठा। देखा मेरी यूनिफार्म प्रेस कर सामने रखी है, नाश्ता टेबल पर लगा है, लंच का डिब्बा पैक है।
मेरी बहन मुझसे दो साल बड़ी थी। शुरू में तो हम दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे। मैंने शायद कभी इस बात की चर्चा यहीं की हो कि मैं पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा में पढ़ने गया ही नहीं। सीधे चौथी कक्षा में मुझे दाखिला मिला था। मैं अड़ गया था कि मैं बहन वाली क्लास में ही पढ़ूँगा, नहीं तो स्कूल ही नहीं जाऊँगा। तो मुझे दीदी वाली क्लास में ही दाखिला मिला और उस साल फेल कर मुझे उसी क्लास में रोक लिया गया, दीदी पास हो कर अगली कक्षा में पहुँच गयी। खैर, आज मेरी कहानी में मेरी वो सारी यादें नहीं।
मुझे सिर्फ इतना याद करना है कि उस दिन मैंने पहली बार बहन में माँ को देखा था।
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आज मेरा मन सुबह जल्दी जागने का नहीं था। कल रात दिल्ली में हल्की सी बारिश हुई थी और मैं सुबह एकदम जागने के मूड में नहीं था।
मैंने मन ही मन तय कल लिया था कि इतने बजे जागूँगा, फिर फेसबुक पर आप सबसे मिल कर गुडमॉर्निंग कहूँगा और अपने काम में लग जाऊँगा।
पर पत्नी मुझे धीरे-धीरे जगा रही थी।
“उठो संजय, टहलने नहीं चलना क्या?”
“नहीं, बाहर बारिश हो रही है।”
“कोई बारिश नहीं हो रही।”
“अरे कल बारिश हुई थी न, तो पानी जमा हो गया है सड़क पर।”
“कहीं कोई पानी नहीं जमा हुआ है।”
“मेरा बिल्कुल मन नहीं है, आज बहुत दिनों बाद नींद सी आ रही है।”
“कोई बहाना नहीं चलेगा। उठो। टहल कर आना, फिर सो जाना।”
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पत्नी योगा करने जाती है। उसका वजन भी नियंत्रित है। उसे सुबह उठ कर टहलने की जरूरत नहीं। पर वो अपना ट्रैक सूट पहन कर मुझे जगा रही थी। वो रोज ऐसा करती है, मैं रोज नये बहाने ढूँढता हूँ नहीं टहलने के। पर वो कभी-कभी अड़ जाती है। 21 नवंबर को तुम्हारा फेसबुक मिलन समारोह है। लोग क्या कहेंगे, संजय मोटा हो रहा है।
“ओहो! मेरे मोटे और पतले होने से मेरे रिश्तों पर क्या असर पड़ता है?”
“पतले रहोगे तो स्मार्ट दिखोगे।”
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बहुत मन मार कर उठा। तैयार होकर टहल आया। अब पोस्ट लिखने में देर तो होनी ही थी।
पर टहलते हुए सारे रास्ते मैं सोचता रहा कि महिला आपकी जिन्दगी में चाहे जिस रूप में हो, उसमें एक माँ छुपी ही रहती है।
(देश मंथन, 29 अक्तूबर 2015)