मेहनत से शहद बनाया तो खुद खायें

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

ओह! आपको बताना ही भूल गया कि मैं अपने नये मकान में शिफ्ट कर गया हूँ। दो महीने की लंबी कवायद के बाद आखिर मैं पिछले हफ्ते अपने नये मकान में चला आया और यहाँ आते ही दो पार्टियाँ भी कर चुका हूँ।

अब मेरे रूटीन में थोड़ा बदलाव हुआ है। सुबह पोस्ट लिखता हूँ, फिर टहलने जाता हूँ और टहल कर आने के बाद स्विमिंग करने जाता हूँ। वहाँ से लौट कर फोन पर दफ्तर की मीटिंग-मीटिंग खेलता हूँ और फिर चाय-नाश्ता और दफ्तर की ओर।
दफ्तर से घर लौटते हुए देर हो जाती है, ऐसे में वापसी के बाद थोड़ी देर पत्नी से बातचीत और फिर डिनर।
एकदम सिंपल लाइफ।
अब ऐसे में कल देर रात किसी ने फोन किया और पूछ बैठा कि संजय सिन्हा, जिन्दगी कैसी चल रही है?
पता नहीं कैसे पर मेरे मुँह से निकला कि आजकल मैं शहद खा रहा हूँ।
“शहद? पर शहद क्यों भला?”
मैं खुद अपने कहे पर हैरान था कि मैंने ऐसा क्यों कहा। मैं कुछ देर सोचता रहा कि क्या मेरे अंतर्मन में कहीं कोई बात बैठी है, जो मैंने ऐसा कहा।
अगर मैं कभी कोई बड़ा लेखक बन गया तो मेरा यकीन कीजिए कि मेरे ढेरों डॉयलाग भविष्य में संजय सिन्हा के नाम से व्हाट्सएप और फेसबुक पर पढ़ने को मिलने लगेंगे। मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों होता है, पर कई बार मैं खुद ही खुश होता हूँ कि वाह! मेरे मुँह से कितना सुंदर डॉयलाग निकला है। और खास बात ये है कि मैं बहुत सोच कर नहीं बोलता, हाँ बोलने के बाद जरूर सोचता हूँ।
तो मेरे प्यारे परिजनों, कल जब मेरे पास फोन आया तो मैंने कहने को कह तो दिया कि आजकल शहद खा रहा हूँ, फिर सोचने लगा तो लगा कि मैंने ठीक ही कहा।
मैं बचपन में मधुमक्खियों को शहद के छत्ते लगाते देखता था। पहले छोटा सा छत्ता लगता, फिर उसका आकार बढ़ता। फिर ढेर सारी मधुमक्खियाँ फूलों के इर्द-गिर्द मंडरातीं और उनके पराग कणों को मुँह में दबाये उस छत्ते तक जातीं, जहाँ उससे शहद बनता।
एक बार ऐसे ही एक छत्ते को देख कर मैंने माँ से पूछा था कि मधुमक्खियाँ शहद का क्या करती हैं? माँ ने कहा था कि जब शहद बन जाएगा, तो मधुमक्खियाँ इन्हें खाएंगी।
मैं खुश हुआ था कि इतनी मेहनत करके मधुमक्खियों ने फूलों से पराग जमा किए हैं, अब जब छत्ते में शहद बन जाएगा तो इतनी सारी मक्खियों की मेहनत सफल होगी। ये रोज मीठा-मीठा शहद चाटेंगी।
पर एक दिन मैंने देखा कि एक आदमी कंबल लपेट कर आया। उसने हाथ में बहुत बड़ी डंडी पकड़ रखी थी। उसने उसमें आग जला कर धुआँ किया और छत्ते पर लगा दिया। देखते ही देखते सारी मधुमक्खियाँ उड़ गईं। उड़ कर कहाँ गईं, पता नहीं, पर उनके जाते ही उस कंबल वाले आदमी ने उनके छत्ते को तोड़ दिया और सारा शहद अपनी बाल्टी में डाल कर चलता बना।
मैं बहुत रोया।
मैंने माँ से पूछा था कि माँ मधुमक्खियों ने शहद तो अपने लिए बनाया था, फिर वो आदमी उनका शहद लेकर क्यों भाग गया?
माँ मुस्कुराती रही। फिर उसने धीरे से कहा कि जो लोग जिन्दगी भर इस बात की तैयारी करते हैं कि एक दिन वो सुख से रहेंगे, वो कभी सुख नहीं भोग पाते।
मेरे मन के किसी कोने में यह बात बैठी रह गयी थी।
आज जब मैं नये मकान में शिफ्ट हो गया हूँ, नए घर को एन्जवॉय कर रहा हूँ तो लग रहा है कि इतने वर्षों तक मैंने जो मेहनत की, उसे जी रहा हूँ। कई लोगों ने मुझसे पूछा भी कि इतना बड़ा फ्लैट क्यों लिया?
मुझे तब उनके सवाल का जवाब नहीं सूझा। पर जब फोन पर पूछने वाले से मैंने कह दिया है कि शहद खा रहा हूँ, तो मेरे पास अब हर सवाल का जवाब है।
जी हाँ, मैं शहद खा रहा हूँ। मैं जिन्दगी को जी रहा हूँ। मेरी मेहनत का शहद कोई कंबल वाला ले जाए, उससे पहले मैं उसे खा रहा हूँ।
आप भी अपनी मेहनत के शहद को बहुत दिनों तक छत्ते में जमा करके मत रखिए। उसे खाइए। अगर आप उसे नहीं खाएंगे और जमा करने के चक्कर में फँसे रहेंगे तो मेरा यकीन कीजिए, कोई कंबल वाला आएगा और धुआँ दिखा कर आपका शहद चुरा ले जाएगा।
मेहनत आपने की है, उसे खाने का पहला हक भी आपका ही है।
(देश मंथन 15 जून 2016)

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