संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैंने कल लिखा था कि अगर मुझे किसी ने याद दिलाने की कोशिश की तो मैं हिटलर की उस कहानी का जिक्र जरूर करूंगा, जिसमें एक फौजी अफसर का बेटा कैसे अपने पिता के बनाए नर्क में फंस जाता है और फिल्म खत्म होने के कई महीनों बाद तक मेरी नाक में आदमी के जलने की दुर्गंध छोड़ जाता है।
मुझे लगता है कि मेरी ही नाक में नहीं, जिसने भी ये फिल्म देखी है उसकी नसिकाओं में ये दुर्गंध जरूर भरी होगी।
मैंने बार-बार कहा है कि भूकम्प, आतंकवादी हिंसा और दूसरी ऐसी विनाशकारी घटनाओं की रिपोर्टिंग करते हुए हम पत्रकारों को थोड़ा संयम से काम लेना चाहिए, क्योंकि ऐसी तस्वीरें दर्शकों की नाक में मृत्यु से उगने वाली वितृष्णा छोड़ जाती हैं, जिसका असर बहुत दिनों तक मानव मन पर रहता है।
खैर, मैं हिटलर के जमाने की उस फिल्म की चर्चा जरूर करूं। और सौरभ सेनगुप्ता ने मुझे बताया कि फिल्म का नाम था- ‘द ब्वॉय इन द स्ट्राइप्डर पायजामा’।
अगर आपने धारीदार पायजामे वाले उस बच्चे की फिल्म देखी होगी तो मेरा दावा है कि उसे याद करके आज भी आपकी रूह काँप जाती होगी और अगर नहीं देखी तो मैं संक्षेप में कहानी सुनाऊंगा और सिर्फ ये बताने की कोशिश करुंगा कि लाशों की कहानी जब हम टीवी पर दिखा और सुना रहे होते हैं, तो कुछ देर की सनसनी भले हम अपने दर्शकों तक पहुँचा पाने में कामयाब रहते होंगे, लेकिन सच यही है कि हम ये भूल जाते हैं कि वो दहशत किसी भी दिन हमारी खुद की जिंदगी की दहशत भी हो सकती है।
ये फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के समय की है, जब हिटलर यहूदियों को चुन-चुन कर गैस चैंबर में डाल कर मौत के घाट उतारा करता था। कहानी ब्रुनो नामक आठ साल के एक मासूम बच्चे की है जो अपने एक यहूदी दोस्त के मिलने के चक्कर में गलती से अपने पिता के रचे उस बाड़े में पहुँच जाता है, जिसमें गैस चैंबर में डाल कर मारे जाने के लिए ढेरों कैदी रखे गये हैं।
पिता सेना का एक बड़ा अधिकारी होता है और उसे हिटलर की ओर से फरमान मिला है कि जर्मनी में रहने वाले सभी यहूदियों को एक-एक कर जला दिया जाए। पिता अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ शहर के किनारे एक बंगले में रहता है और उसकी जिम्मेदारी है कि वो सभी यहूदियों को गैस चैंबर में डाल कर खाक कर दे। घर में बच्चे की नाक में सुबह शाम आदमी के जलने से उठने वाले धुएं की दुर्गंध आती है तो वो पिता से पूछता है कि उस चिमनी से ऐसी बदबू क्यों आती है। पिता बच्चे के सवाल को टाल जाता है। पिता बहुत ध्यान रखता है कि घर के किसी सदस्य को ये पता नहीं चले कि बतौर सेना अधिकारी उसका काम क्या है। वो बच्चों से बहुत कम बात करता है, बच्चों पर इस बात का प्रतिबंध रहता है कि वो अकेले बाहर न खेलें, वो आदमी के जलने की उस प्रक्रिया को न समझें और न ही बाप की तरफ से बोये गये दहशत के उस कारोबार से उनका कोई सामना हो।
सेना अधिकारी का वो आठ साल का बेटा किसी तरह एक यहूदी बच्चे के संपर्क में आ जाता है, वो उसका दोस्त बन जाता है। एक दिन उसका दोस्त लापता हो जाता है। वो अपने दोस्त की तलाश में चुपचाप पिता और दूसरे कर्मचारियों की नजर बचा कर घर के पीछे बने बाड़े की ओर जाता है। उसे लगता है कि उसका दोस्त वहाँ फँस गया है और ऐसे ही एक दिन वो बाड़े के उस पार पहुँच जाता है। बच्चा जब बाड़े के उस ओर पहुँच जाता है तो उसे वहाँ तमाम लोग मिलते हैं, जिन्हें अपने जलाये जाने की बारी की इंतजार है। हिटलर का पूरा तंत्र वहाँ काम कर रहा होता है और इसी क्रम में क्योंकि उस बच्चे को वहाँ का कोई अधिकारी पहचानता नहीं, इसलिए उसे भी कैदियों का पायजामा पहना कर कैद कर लिया जाता है।
इधर सैनिक अधिकारी के घर में कोहराम मच जाता है कि उसका बेटा लापता है। पूरे शहर में उसे ढूंढा जाता है। बच्चे का कहीं पता नहीं चलता।
उधर पीछे बंद कैदियों को एक-एक कर जलाया जा रहा होता है। एक दिन सैनिक अधिकारी को पता चलता है कि उसका बेटा गलती से बाड़े के उस ओर चला गया है, जहाँ ढेरों कैदी जलाने के लिए बंद किए गये हैं। वो अपने सारे आदमी उस बाड़े में दौड़ाता है। अफसोस जिस वक्त उस अधिकारी के आदमी वहाँ पहुँचते हैं, उसका बेटा गैस चैंबर में डाल दिया गया होता है।
कैदियों के लिए बने उस धारीदार पजामें में जब बच्चे को जलाया जा रहा होता है, तब उसकी चिमनी से पहली बार उस सैनिक अधिकारी की नाक तक आदमी के जलने की दुर्गंध पहुँचती है, जो उसके ही बनाए तंत्र की अनकही कहानी होती है।
मैं फिल्म देख रहा था, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे थे। मैंने ऐसी तमाम फिल्में देखी हैं, जिसमें नकली दवा का कारोबार करने वाले सेठ का बच्चा एक दिन अपने ही पिता की कंपनी के बनाये दवा को खाकर मर जाता है। ये सारी कहानियाँ जब रची जाती हैं, तो इसका मतलब सिर्फ मनोरंजन नहीं होता। बल्कि ऐसी कहानियाँ ये संदेश देने की कोशिश भी होती हैं कि हर बुराई एक दिन उसे रचने वाले को अपना शिकार बनाती है। हमारे पास तो रावण और कौरवों की पूरी दास्ताँ मौजूद है कि कैसे रावण अपने ही बनाए संसार में उलझ जाता है और राम के हाथों मारा जाता है, जिसे त्रिलोक में सबसे शक्तिशाली होने और न मरने का वरदान हासिल होता है, उसका भी मरना बेशक एक कहानी ही हो, लेकिन उसके हाथों रचे उस संसार का सच सामने लाने की ही वो कहानी है कि हर बुराई का अंत उसके बुरे अंत से जुड़ा होता है।
खैर, अभी बात रावण और कौरवों की नहीं। अभी बात है सफेद धारीदार पायजामें में अपने दोस्त की तलाश करने वाले उस मासूम की जिसे उसके पिता के सैनिक ही भूल वश जला देते हैं और आखिर में उस अधिकारी की बुझी हुई आँखें बिना कहे, बहुत कुछ कहती नजर आती हैं।
मुझे नहीं लगता कि इससे अधिक आज मुझे कुछ कहने की जरूरत है। मुझे नहीं लगता कि मैं अपनी बात इससे अधिक कारगर तरीके से किसी के सामने रख सकता हूँ। फिर भी दुबारा ये कहने की कोशिश करता हूँ कि खबरों में हम पत्रकारों को संवेदना बनाये रखनी चाहिए। चिमनी से उठने वाले धुएं की दुर्गंध चाहे जिसकी हो, है तो आदमी की ही।
आदमी कोई भी हो सकता है।
(देश मंथन, 28 अप्रैल 2015)