अपनों के लिये जियें, सामान के लिये नहीं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

दो हफ्ते बाद हम नये घर में शिफ्ट हो जाएँगे। नया घर, नया संसार। 

पत्नी की वर्षों पुरानी मुराद पूरी हुई। हम एक ऐसे घर में शिफ्ट हो जाएँगे, जहाँ ज्यादा जगह होगी, जहाँ लिफ्ट होगी, जहाँ स्विमिंग पूल होगा, जहाँ अपना गार्डेन होगा। वो सब होगा, जिसकी उसे चाहत थी। 

करीब बीस साल पहले हम इस अपार्टमेंट में रहने आए थे, जहाँ अभी हैं। इसी अपार्टमेंट में हमने तीन घर बदले। अभी जिस फ्लैट में है, उसमें पिछले दस वर्षों से हैं। बीस साल पहले जब हम इस अपार्टमेंट में रहने आये थे, तब यह जगह नयी थी। तब बहुत कम लोग यहाँ रहते थे। तब बहुत कम घरों में गाड़ियाँ थीं। मेरे पास एक फिएट कार हुआ करती थी। हम उसी में न जाने कहाँ-कहाँ घूम आया करते थे। तब हमारे पास सामान कम था। समय बहुत था।

हम हर हफ्ते कम से कम एक बार बाहर खाना खाने जाते थे। हर हफ्ते मेरे कई-कई दोस्त हमारे घर आकर रह जाया करते थे। 

धीरे-धीरे काम बढ़ता गया। हम दफ्तर जाते, घर के काम करते और इस तरह चुपचाप हमारी जिन्दगी गुजरती चली जा रही थी। हमने न जाने कितनी बार सोचा कि इस घर को बदलते हैं, पर हम रुक जाते। इस आपाधापी में सामान ज्यादा आने लगा, समय जाने लगा। 

अब जब दो हफ्ते बाद हम इस घर को छोड़ कर चले जाएँगे, तब मेरी यादों की यात्रा शुरू हो गयी है। पिछले साल हमने इस आलमारी को खरीदा था। जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ पहले से कई आलमारियाँ हैं, मतलब अब वहाँ इसकी जरूरत नहीं। वहाँ पलंग, कुर्सी, टेबल, लैंप सब तो है। फिर हमने ये सारी चीजें, जो खरीदी हैं सब यहीं छूट जाएँगी। जिस गद्दे पर अभी मैं लेट कर आपके लिए यह पोस्ट लिख रहा हूँ, उस गद्दे को महीना भर पहले हमने न जाने कितने अरमानों से खरीदा था। कई-कई बार बदलने के बाद ये गद्दा मेरे घर आया था। पर अब हमें नये घर में इसकी जरूरत ही नहीं। 

दीवार पर लटका एयर कंडीशनर भी मेरी पत्नी काफी शोध के बाद खरीद कर लाई थी। कुल दो गर्मियाँ अभी गुजरी हैं, इस ‘एसी’ के साथ। अब हम जहाँ जा रहे हैं, वो पहले से वातानुकूलित घर है। हमें यह एसी भी यहीं छोड़ना पड़ेगा। हमने ये सारी चीजें काफी मेहनत से कमाये पैसों से खरीदी हैं। अगर हम इस सच को स्वीकार कर लें कि इन सामान को खरीदने के पीछे हमने जिन्दगी को जीना ही छोड़ दिया था, तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगी। हमें हमेशा लगता रहा कि अभी हम अगर ये खरीद लेंगे तो जिन्दगी और आसान हो जाएगी। 

पर जिन्दगी आसान नहीं हुई। हमारे अरमान बढ़ते गए, हमारी जरूरतें बढ़ती गयीं। हमारी मेहनत बढ़ती गयी। हम यही सोचते रहे कि एक दिन हम जिएँगे। पर वो एक दिन नहीं आया।

अब सोचने बैठा हूँ तो याद आ रहा है कि ऐसी सैकड़ों चीजें हमने बहुत मेहनत से कमाए पैसों से खरीदी हैं, जिनकी हमें दरअसल कभी जरूरत ही नहीं थी। हमने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। पर अब जब हम घर बदलने जा रहे हैं, तो सारी चीजें सामने नजर आ रही हैं। 

अगर हमें इन चीजों की जरूरत नहीं थी, तो हमने इतनी सारी चीजें खरीदी ही क्यों? 

अगर हमारे मन में इतनी हसरतें न होतीं, तो हमें शायद उससे कम मेहनत करनी पड़ती, जितनी हमने की। मैं थोड़ा और वक्त अपनी पत्नी को दिया होता, अपने बेटे को दिया होता। पर हसरतों के समंदर से कौन बचा है, जो मैं बच जाता। 

***

बहुत साल पहले जब हमारे पास कम पैसे थे, कम सामान था, तब हमारे पास समय था। मैं और मेरी पत्नी दोनों एक ही ऑफिस में काम करते थे, हम साथ ऑफिस जाते, साथ आते, तब हम रोज सुबह चाय साथ पीते थे, हम नाश्ता साथ करते थे, हम दोपहर का भोजन साथ करते और रात में साथ मिल कर खाना पकाते-खाते। 

जैसे-जैसे पैसों की इच्छा बढ़ती गयी, हमारी मेहनत बढ़ती गयी। हम और पैसे कमाते गये। पहले हमने पहले नाश्ता साथ करना छोड़ा, फिर लंच और कई-कई बार डिनर भी। हमारे पास बहुत सामान हो गया, पर उससे ज्यादा समय निकल गया। 

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अब मैंने समझ लिया है कि हम जीने की तैयारी में जिन्दगी को गुजार देते हैं। हम सोचते हैं कि एक दिन जी लेंगे, पर वो एक दिन कभी नहीं आता। अब जब इस घर में पड़े सामान को देख रहा हूँ, तो मन बार-बार पूछ रहा है कि क्या सचमुच हमें इतनी मेहनत की दरकार थी, जितनी हमने की। क्या जिन्दगी में आदमी को इतनी चीजों की जरूरत रहती है, जितनी आदमी जुटा लेता है। 

अब जब घर बदल रहा हूँ। तो यह भी ख्याल आ रहा है कि सब तो यहीं छोड़ना पड़ता है, फिर क्या फायदा इतनी मारामारी का। 

आदमी को उतना ही सामान जुटाना चाहिए, जितने की उसे वाकई जरूरत हो। कई बार पहले भी कह चुका हूँ, फिर से कह रहा हूँ कि जरूरत से ज्यादा कि इच्छा करने वाले हमारी तरह जिन्दगी भर सामान जुटाते रह जाते हैं और फिर एक दिन उसे खुद हो छोड़ कर निकल पड़ते हैं नए घर की ओर।  

(देश मंथन, 26 मार्च 2016)

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