आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार
हवा पर इन दिनों हवा-हवाई तरीके से ना बोला जा सकता। एक बस स्टैंड पर मैं खड़ा था, बारिश का सीन था, हवा चल रही थी। मैंने ऐवैं ही कह दिया – हवा बहुत तेज चल रही है।
साहबों, ठीक सामने कांग्रेस कार्यकर्ता निकल रहे थे समूह में, तेज हवा चलने की सुन कर सब मुझ पर टूट पड़े – अबे तुझे बहुत हवा तेज लग रही है। ठहर तेरी हवा निकालते हैं।
मैंने निवेदन किया – मैं मोदी की हवा की नहीं, नॉर्मल हवा की बात कर रहा था।
मुश्किल से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने छोड़ा।
पर हवा तो चल ही रही थी।
मैंने देखा कि कई लोग बस स्टैंड में आये, मैंने पुराने तजुर्बे से चोट खा कर अब की बार कहा – हवा बिलकुल नहीं चल रही है। कहाँ चल रही है, देखो, नो हवा।
ये भाजपा कार्यकर्ता थे। मुझ पर टूट पड़े – अबे अंधे, तुझे हवा चलती ना दिख रही है। इतनी तेज हवा चल रही है।
मैंने फिर निवेदन किया – मैं मोदी की हवा की नहीं, नॉर्मल हवा की बात कर रहा था।
मुश्किल से भाजपा कार्यकर्ताओं ने छोड़ा।
हवा पर बोलो, तो आस-पास देखकर बोलो, या सिर्फ हवा में बोलो, वरना…………….।
एक सरकारी दफ्तर में काम क्लियर करने वाले अफसर ने पूछा – हवा किसकी चल रही है।
मैंने निवेदन किया – इस सवाल का जवाब तो धोनी जी दे रहे हैं कि किस पंखे की हवा सबसे अच्छी। मैं आम आदमी, कैसे कुछ कह सकता हूँ इस बारे में।
अफसर उखड़ गया, बोला – ज्यादा चालू ना बनो, साफ बताओ – हवा किसकी है।
मैंने कहा – मोदी की है, राहुल की भी है, आम आदमी पार्टी की भी है। जो आपको अच्छी लगती हो, उसकी मान लो।
अफसर उखड़ गया – मोमता दीदी का हवा नहीं दीखता आपको दिल्ली में, उनका कैंडीडेट भी था दिल्ली में।
उफ्फ, अफसर पश्चिम बंगाल से निकला, ममता बनर्जी समर्थक निकला। हाय, क्या-क्या देखें, सुनामी, आंधी, हवा को देखें, फिर उप-हवाओं को देखें, ममताजी की अलग, नवीन पटनायक की अलग। हाय, हवाओं के चक्कर में अपनी हवा निकली जा रही है।
अब मैंने तय किया है कि हवा शब्द मुँह से ना निकालूँगा। जब कोई हवा विषयक चर्चा चलेगी – मैं निवेदन कर दूँगा कि मुझे सुनायी ना देता कुछ। हवाओं के मौसम में बचने का इससे बेहतर उपाय हो, तो बताइये।
(देश मंथन, 18 अप्रैल 2014)