दिल्ली चुनाव और दिल की बात

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अभिरंजन कुमार :

दिल्ली में कोई जीते, कोई हारे, मुझे व्यक्तिगत न उसकी कोई ख़ुशी होगी, न कोई ग़म होगा, क्योंकि मुझे मैदान में मौजूद सभी पार्टियां एक ही जैसी लग रही हैं। अगर मैं दिल्ली में वोटर होता, तो लोकसभा चुनाव की तरह, इस विधानसभा चुनाव में भी “नोटा” ही दबाता।

मैं अपने उन मित्रों से सहमत नहीं हूं, जो अब तक आम आदमी पार्टी को “पार्टी विद अ डिफरेंस” मानते हैं। वहां “ईमानदारी का इश्तेहार” ज़रूर है, लेकिन “ईमानदारी का व्यवहार” नहीं है।

आम आदमी पार्टी में भी ग़लत तरीके से चंदे आ रहे हैं, काले धन को सफ़ेद किया जा रहा है, एकाउंट्स में हेर-फेर की जा रही है, एक मद में ख़र्च किये गए पैसे को दूसरे मद में एडजस्ट किया जा रहा है। सवाल दो करोड़ या बीस हज़ार करोड़ का नहीं है, आज जिसके पास भ्रष्टाचार के जितने मौके हैं, वह उतनी मात्रा में लिप्त है। जिसकी औकात दो करोड़ के घपले करने की है, वह दो करोड़ के घपले कर रहा है। जिसकी औकात बीस हज़ार करोड़ के घपले करने की है, वह बीस हज़ार करोड़ की कर रहा है।

आप देखिए, आम आदमी पार्टी भी क्रिमिनलों और धनबलियों को चुनाव लड़ा रही है। इस पार्टी के उम्मीदवार के यहां से भी शराब जब्त की जा रही है। यह पार्टी भी खुलेआम सांप्रदायिक राजनीति करती है और इस चुनाव में तो खुलेआम जातिवाद का भी सहारा लिया ही गया है। स्वयं केजरीवाल ने बार-बार अपनी जाति को “बेचने” की कोशिश की है।

भाषा का मामूली ज्ञान रखने वाले को भी पता है कि “उपद्रवी गोत्र” में जातिवाद का “ज” भी नहीं है, लेकिन केजरीवाल ने उसे पूरी अग्रवाल बिरादरी का अपमान बताया। इसलिए अब मैं भी केजरीवाल की इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि वे “बनिये” हैं और “धंधा” करना ख़ूब जानते हैं। यह तय है कि राजनीति को वे भी “धंधे” की तरह ही करेंगे। “सेवा” वगैरह की बातें जनता को मूर्ख/बेवकूफ़/उल्लू/गधा बनाने के लिए हैं।

जहां तक भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का सवाल है, उनके चाल-चलन-चेहरे के बारे में बात करना अपना और आपका- दोनों का समय बर्बाद करना है। इसलिए सीधा मुद्दे की बात यह है कि “मोदी-शाही राजनीति” का हमेशा बीजेपी को फ़ायदा ही हो, यह ज़रूरी नहीं। दिल्ली में हर्षवर्धन के नेतृत्व में पार्टी की जीत पक्की थी, लेकिन अगर आज के “बिकाऊ मीडिया” में आ रहे सर्वेक्षण “बिके हुए” नहीं हुए और “सच्चे” हुए, तो यह साफ़ है कि चुनाव से चंद रोज़ पहले “किरण बेदी” को आगे करना उनके लिए “बलि-वेदी” पर चढ़ जाने जैसा हुआ है।

मोदी-शाह की राजनीति के अपने झोल हैं। उनके पीछे चूंकि कई बड़े-बड़े संगठन और पूंजीवाद की ताक़तें खड़ी हैं, इसलिए उनकी कमियां कई बार छिप जाती हैं, लेकिन धीरे-धीरे लोगों को समझ आएगा कि इस जोड़ी में भी अभी अनुभव की भारी कमी है। मोदी ने जनता से कहा भले था कि जिसको जो काम आता है, उसे वही काम दीजिए, लेकिन ख़ुद उनकी ख़ासियत यह है कि जिसको जो काम आता है, उसे वह काम वे नहीं देते।

हर्षवर्धन की मास्टरी दिल्ली की राजनीति में थी, लेकिन उन्होंने उन्हें वहां से हटा दिया। हर्षवर्धन की दूसरी मास्टरी स्वास्थ्य महकमे में थी, लेकिन उन्हें वहां से भी हटा दिया गया। अपनी ही डिग्रियों को लेकर कन्फ्यूज़ अभिनेत्री को वे देश की शिक्षा मंत्री बना देते हैं और एक खिलाड़ी को सूचना प्रसारण मंत्री, एक डॉक्टर को कला-संस्कृति मंत्री और पूर्व आर्मी चीफ को सांख्यिकी मंत्री बना देते हैं। कई सारे अनुभवी लोगों को वे मंत्रिमंडल में इसलिए जगह नहीं देते हैं, क्योंकि राजनीतिक तौर पर उन्हें ठिकाना लगाना उन्हें ज़्यादा ज़रूरी लगता है।

जहां तक कांग्रेस का सवाल है, तो इस चुनाव में उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए उसने “मास्टर स्ट्रोक” खेला है। कांग्रेस पार्टी के अंदरूनी और विश्वस्त सूत्रों से जो जानकारी मुझे मिली है, उसके मुताबिक इस चुनाव के लिए कांग्रेस ने “प्लान-ए” और “प्लान-बी” दोनों बना रखे हैं और ये दोनों प्लान ऐसे हैं, जो सिर्फ़ “मोदी-बेदी सुनामी” चलने पर ही फेल हो सकते हैं।

कांग्रेस का “प्लान-ए” यह है कि जिन सीटों पर उसके अपने उम्मीदवारों के जीतने की संभावना नहीं है, वहां उनके कार्यकर्ता भी आम आदमी पार्टी को वोट देंगे और दिलवाएंगे, ताकि एंटी-बीजेपी वोटों का बंटवारा न हो और बीजेपी को कम से कम सीटों पर रोका जा सके। और “प्लान-बी” यह है कि अगर “प्लान-ए” की कामयाबी में कुछ कमी रह जाए, तो एक बार फिर से बाहर से बिना-शर्त समर्थन देकर आम आदमी पार्टी की सरकार बनवाने की कोशिश की जाए।

बहरहाल, केजरीवाल की किस्मत ने अगर एक बार फिर से उनका साथ दिया, तो यहां से उनकी राजनीति आगे बढ़ जाएगी। इसके आगे केजरीवाल की राजनीति उनकी सरकार के परफॉर्मेंस से नहीं, बल्कि बदले हुए दौर की राजनीतिक ज़रूरतों के चलते चमकेगी। बदले हुए दौर की राजनीतिक ज़रूरत यह है कि बीजेपी के ख़िलाफ़ एक मज़बूत लामबंदी हो। केजरीवाल इस लामबंदी के एक मज़बूत पिलर बन जाएंगे। वामपंथियों और नीतीश माइनस जेडीयू का प्रत्यक्ष और कांग्रेस का परोक्ष समर्थन उन्हें पहले से प्राप्त है।

और अंतिम सत्य यही है भाइयो-बहनो, कि सियासत में शुचिता न खोजें। यह एक ऐसी पोर्न-साइट है, जिसपर सभी नंगे हैं और अपने-अपने धंधे के लिए सभी अनैतिक कृत्यों में लिप्त हैं। इसलिए इस सियासत में हमारे-आपके-हम सबके राजा हरिश्चंद्र अरविंद केजरीवाल भी जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाएंगे, उनका भी धर्म भ्रष्ट होता जाएगा और तमाम विधर्मियों की कतार में वे भी उतने ही बड़े विधर्मी नज़र आएंगे। ऐसा मैं पूत के पांव पालने में देखकर कह रहा हूं।

अंत में यही, कि दिल्ली चुनाव में अपने विवेक का इस्तेमाल करें।

(देश मंथन, 04 फरवरी 2015)

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