संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरी बुआ ने यह कहानी मुझे सुनायी थी। डेल कारनेगी ने पढ़ाई थी। माँ ने अमल करना सिखाया था। पत्नी इस पर अमल कराती है।
अब इतना लिख दिया तो वो कहानी फिर से आपको सुना ही दूँ, जिसे आप कम से कम एक हजार बार सुन चुके होंगे।
सौ बार पढ़ चुके होंगे। आपकी माँ ने भी दस बार आपको अमल करना सिखाया होगा।
लेकिन न आप इस पर अमल कर पाये और न मैं।
हाँ, तो गाँव में एक लड़की थी। उसका नाम था चिंता। चिंता बहुत जहीन, समझदार, सुलझी हुयी और खूबसूरत लड़की थी। सारे गाँव की वो शान थी। गाँव के लोग चिंता को दिल में बसा कर रखते थे।
एक दिन वही चिंता गाँव के कुँए पर बैठ कर फूट-फूट कर रोने लगी।
जब बुआ मुझे ये कहानी सुना रही होती थीं, तो मेरे सामने बड़ी-बड़ी आँखों वाली दुबली सी लड़की की तस्वीर बन जाती थी। बचपन में दादी-नानी-बुआ-माँ की कहानियों के पात्र सबकी आँखों के पीछे सजीव हो उठते होंगे, ऐसा मुझे लगता है। ऐसे में बुआ जब चिंता की चर्चा करतीं, तो उसकी एक सलोनी सी तस्वीर आँखों के आगे अपने आप उभर आती।
बुआ कहतीं, “चिंता कुँए पर बैठ कर रो रही थी।”
मैं पूछता, “बुआ क्या गाँव में कोई संजय सिन्हा नहीं था, जो उसके आँसू पोंछ देता?”
बुआ रुकतीं। कहतीं, “पगले कोई आँसू तो तब पोंछे न, तब पता चले कि रोने की वजह क्या है।”
“हाय! इतनी सुंदर लड़की रो रही है, और गाँव वालों को रोने की वजह ही नहीं पता?”
“बेटा, तुम सवाल बहुत करते हो। पहले पूरी कहानी सुनो। फिर कुछ पूछना।”
“ठीक है बुआ। अब आप कहानी सुनाइए।”
तो, चिंता रो रही थी। फूट-फूट कर रो रही थी।
चिंता की सहेलियाँ, चिंता के घर वाले वहाँ आ गये। चिंता रो रही है।
“सबने पूछा, क्यों रो रही हो चिंता?”
“बुआ, चिंता को चुप कराने वालों में संजू भी था क्या?”
“अबकी तुमने मुझे टोका तो कहानी नहीं सुनाऊँगी।”
“अच्छा, अब चुप रहूँगा।”
“सारा गाँव जुट गया, लेकिन चिंता का रोना खत्म नहीं हुआ। वो रोये जाये, रोये जाये।”
“बुआ कब तक रोयेगी, चिंता?”
“बेटा, एक मिनट में कहानी खत्म कर दूंगी तो तुम फिर तुम्हें नींद नहीं आयेगी और नींद नहीं आयेगी तो मुझसे एक और कहानी सुनाने की जिद करोगे। इसलिए अभी चिंता को रोने दो। थोड़ी देर रोयेगी और चुप हो जायेगी।”
“नहीं बुआ, चिंता तो चुप ही नहीं हो रही। उसे चुप तो कराओ।”
“अच्छा तो सुनो। चिंता को रोते देख जब सभी लोग वहाँ जुट गये और फिर माँ ने बहुत प्यार से उसे पुचकारते हुए पूछा कि चिंता बेटी तुम क्यों रो रही हो? क्या किसी ने तुमसे कुछ कह दिया? क्या तुम्हें भूख लगी है? क्या तुम्हें चोट लग गयी है?”
“चिंता ने सुबकते हुए कहा, नहीं माँ कुछ नहीं हुआ है। आज इस कुँए के पास आकर मैं बैठी तो यूँ ही मुझे ख्याल आया कि जब मैं बड़ी हो जाऊंगी, तब मेरी शादी हो जायेगी।”
“ओह मेरी बेटी, तुम शादी के विषय में सोच कर रो रही हो? अभी तो बहुत दिन है बेटी तुम्हारी शादी में।”
“नहीं माँ, मैं शादी के विषय में नहीं सोच रही। मैं तो सोच रही हूँ कि जब मेरी शादी होगी, मैं अपने ससुराल चली जाऊंगी, फिर मुझे बच्चा होगा और अपने बच्चे के साथ जब मैं तुम लोगों से मिलने गाँव आऊंगी, तब मेरा बेटा यहाँ गेंद खेल रहा होगा, गेंद इस कुँए में गिर जायेगी, और मेरा बच्चा कुँए में झाँकेगा, गेंद निकालने की कोशिश करेगा और इस कोशिश में अगर वो कुँए में गिर गया तो मैं क्या करूंगी। माँ मैं इसी चिंता में घुली जा रही हूँ कि मेरा बच्चा इस कुँए में गिर गया तो मैं क्या करूंगी?”
सबके सब हंसने लगे।
लेकिन चिंता और जोर-जोर से रोने लगी।
जब पहली बार मैंने ये कहानी सुनी थी तब मैं भी इसी सोच में था कि चिंता की चिंता तो जायज ही थी, फिर लोग हंस क्यों रहे थे।
फिर बड़ा हुआ तो मशहूर लेखक डेल कारनेगी की पुस्तक ‘चिंता छोड़ो सुख से जियो’ पुस्तक भी मैंने पढ़ ली। पर मेरे मन से चिंता की चिंता खत्म नहीं हुयी।
फिर माँ ने भी समझाया कि चिंता नहीं करनी चाहिए। जो बहुत चिंता करते हैं, वो दुखी रहते हैं। मैं मन में सोचता कि माँ को कैसे पता कि मेरे मन में चिंता की चिंता है। माँ के कहने के बाद भी मेरे कानों में रात को चिंता के रोने की आवाजें आतीं। चिंता की चिंता तब भी खत्म नहीं हुयी।
फिर शादी हुयी तो पत्नी ने कहा कि कुछ भी होगा तो कुछ नहीं होगा। चिंता छोड़ो मस्ती से जियो।
लो जी, पत्नी को भी चिंता की चिंता के बारे में पता चल गया।
और बड़ा होता गया और ये समझने लगा कि चिंता की चिंता सचमुच व्यर्थ होती है।
पर मेरे समझने से क्या फायदा। समझते तो सब हैं, लेकिन सभी मन ही मन चिंता की चिंता से परेशान हैं, लेकिन इधर कुछ दिनों से पता नहीं क्यों मैंने चिंता की चिंता करनी छोड़ दी है। बड़ा आराम है। मुझे आराम है, इसीलिए मैं आपसे भी गुहार लगा रहा हूँ कि आप भी चिंता छोड़िए। जो होगा, सो होगा। मस्त रहिए। कुछ भी होगा तो आसमान जमीन पर नहीं गिरेगा।
(देश मंथन, 16 अप्रैल 2015)