संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
रोज सुबह जगना और फिर लिखना मेरे नियम में शुमार हो चुका है।
अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं रात में कब सोया, कितनी देर सोया, सोया कि नहीं सोया। एक खास समय पर मेरी नींद खुलती है और मैं लिखने लगता हूँ। इसे कहते हैं आदत। मतलब अब मुझे लिखने की आदत लग गई है।
जब मैं छोटा था और माँ – पिताजी को चाय पीते देख मैं भी चाय की जिद कर बैठता तो माँ कहती थी कि चाय कम पियो, क्योंकि आदत पड़ जायेगी।
मैं पूछता था, “आदत पड़ जायेगी? इसका क्या मतलब हुआ?”
तब माँ ये समझाती थी कि जिन्हें चाय की आदत पड़ जाती है, अगर सुबह-सुबह चाय न मिले तो उन्हें अजीब सा लगता है। कई दफा तो सिर में दर्द भी होने लगता है।
माँ कहती थी इसलिए इस मामले में कोई विवाद नहीं था, लेकिन मैं सोचता था कि चाय में ऐसी आदत वाली क्या बात हो सकती है। खैर, मैं चाय पीता और खुश होता। बचपन में तो चाय में ब्रेड डुबो कर खाने में भी मुझे इतना मजा आता था कि पूछिए मत। उन दिनों आधा दूध और आधा पानी मिला कर चाय बनती थी और चाय पीने से ज्यादा मुझे चाय बनने की खुशी हुआ करती थी। बड़े से कप में मैं ऐसे चाय पीता था, जैसे अंग्रेजों ने ये धन्धा यहाँ मेरे लिए ही शुरू किया हो।
मैंने पहले भी लिखा है कि मेरी बड़ी बहन को जब बेटा हुआ, तो मैं उसके ससुराल गया। हालाँकि तब मैं छोटा ही रहा होऊंगा। शायद पाँचवी-छठी में पढ़ता रहा होऊंगा। ससुराल में मेरी बहन ने अपनी सास के आगे रौब गाँठने के लिए कह दिया कि मेरा भाई चाय नहीं पीता। सास ने मुझे गुड ब्वॉय तो कहा, लेकिन मुझे पहली बार पता चला कि तब तक मुझे चाय की आदत पड़ गई थी। सुबह-सुबह बहन की सास, ससुर, ननद सब चाय सुड़कते और मैं ललचाई नजरों से उन्हें देखा करता। बीच-बीच में बहन की सास अपने बच्चों से कहती, “तुम सब निकम्मे हो, चाय पीते हो, देखो संजू को, कितना गुड ब्वॉय है। चाय नहीं पीता।”
बहन की सास जब ऐसा कहती, तो मेरा दिल सुबक पड़ता। हाय रे जालिम सास, मेरी बहन ने सौ फीसदी झूठ बोला है। उसका संजू तो जिन्दा ही इस चाय के लिए है, और मेरा रोम-रोम बिलख उठता। मुझे करीब महीना भर बहन के घर रहना था। वो पूरा महीना मेरी जिन्दगी के सबसे दुखद दिनों में से एक था।
मैं बहन से पूछता भी कि तुमने झूठ क्यों बोला, तो वो मुस्कुरा देती। “अरे! मेरे भाई की इज्जत कितनी बढ़ गई है। देखो अम्मा जी कितनी बार तुम्हें गुड ब्वॉय कहती हैं।”
मैं कुनमुनाता, “ओह! ये तो प्रतिष्ठा में प्राण गँवाने जैसा झूठ तुमने बोल दिया है।”
खैर, चाय बिन मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन कट ही गये। उसके बाद जब तक मेरी बहन की सास जिन्दा रही, मैं कभी उसके ससुराल नहीं गया। यही होती है आदत।
यही आदत लिखने के मामले में लग गई है। कहीं जाओ, कहीं से आओ, सुबह-सुबह कम्प्यूटर पर टक-टक करने लगता हूँ।
कल ऐसे ही टक-टक करते हुए मैंने आपको बताया था कि जून में मेरी एक और किताब छप कर आने वाली है। मैंने आप सबसे उस किताब का नाम पूछा था। आप परिजनों ने एक से बढ़ कर एक सुन्दर नाम सुझाए हैं। आपके भेजे नामों की मैंने एक लिस्ट बना ली है। सोमवार को उसे प्रकाशक को भेजना है, इसलिए अपने पास अभी आज और कल तक का समय है कि हम और नाम सोचें। किताब में मेरे फेसबुक के आपसी रिश्तों की कहानियाँ हैं, इसलिए आपको पता है कि नाम क्या होना चाहिए। आज एक दिन और आप सोचिए कि किस तरह का नाम अच्छा लगेगा।
असल में बात ये है कि मुझे लिखने से ज्यादा आपसे बात करने में मजा आने लगा है। शायद बात करने की आदत पड़ गई है। ये अलग बात है कि अपनी व्यस्तता में बहुत से व्यक्तिगत मैसेज और मेल के जवाब नहीं दे पाता। लेकिन अपने लिखे पर आपके लाइक और आपकी प्रतिक्रिया को मैं जरूर देखता हूँ। जब मैं आपकी प्रतिक्रिया पर लाइक बटन दबाता हूँ, तो इसका अर्थ होता है कि मैंने उसे पढ़ लिया है। इस तरह आपके साथ अपना संवाद मैं कायम रखने की कोशिश करता हूँ।
एक दो परिजनों ने ये समझने की भूल की है कि मैं बड़े लोगों से ही बात करता हूँ। हालाँकि बड़ा होना क्या होता है, मैं आजतक नहीं समझ पाया हूँ। बचपन में पन्डित ने माँ से बोला था कि आपका बेटा बड़ा आदमी बनेगा, तो मैं हैरान रह गया था। “क्या बनूंगा, तो बड़ा कहलाऊंगा”, मैं सबसे पूछता भी था।
दादी कहती थी कि पुलिस अफसर बनूंगा तो बड़ा बन जाऊंगा। पिताजी कहते थे कि डॉक्टर बनूंगा, तो बड़ा आदमी बन जाऊंगा। बाकी रिश्तेदार कहते थे कि आईएएस बनना बड़ा होना होता है। स्कूल में कोई कहता कि मुख्यमन्त्री बड़ा आदमी होता है, कोई प्रधानमन्त्री को बड़ा आदमी कहता। किसी के लिए राष्ट्रपति बनना बड़ा होना होता है। मैं तो अब तक तय नहीं कर पाया कि राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री में कौन बड़ा होता है। मैं अब तक तय नहीं कर पाया कि मुझे मौका मिले, तो मैं प्रधानमन्त्री बनूं या राष्ट्रपति।
माँ से जब पूछता था कि माँ मैं क्या करूं कि बड़ा आदमी बन जाऊं, तो माँ कहती थी कि ‘आदमी’ बनना ही बड़ा होना होता है। आदमी को कोशिश करनी चाहिए कि वो ‘आदमी’ बना रहे, बस। तब से मेरी कोशिश सिर्फ ‘आदमी’ बनने की है। बाकी कोई मुझे न बड़ा लगता है, न कोई छोटा। इसलिए इस शिकायत का कोई अर्थ ही नहीं कि मैं बड़े लोगों के सन्देश का जवाब देता हूँ। जो मुझसे प्यार करता है वही मेरे लिए प्रिय है। आप सब मुझसे प्यार करते हैं, आप सब मेरे लिए बड़े हैं।
आज पता नहीं क्या-क्या लिखा। पर कभी-कभी आपसे ऐसे ही बातें करने का मन करता है। जो मन में आता है, वही कहने का दिल करता है। आज वही किया।
चलते-चलते एक कहानी सुनाता चलूँ, इस उम्मीद में कि कहानी पढ़ने के बाद मेरी आने वाली किताब का नाम आज भी सुझायेंगे। कहानी इस तरह है-
“एक बार अकबर ने बीरबल से कहा, “इस दीवार पर कुछ ऐसा लिखो कि खुशी में पढ़ें तो दुख हो, और दुख में पढ़ें तो खुशी हो।”
बीरबल ने लिखा-
“ये वक्त गुजर जाएगा।”
(देश मंथन, 16 मई 2015)