खाना मन माफिक और पहनना जग माफिक हो

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

दीदी की जब शादी हुई थी, तब उसे ही शादी का मतलब नहीं पता था। अब उनकी शादी हो गयी, तो वो साल भर बाद ही माँ भी बन गयीं। दीदी की शादी में मेरी उम्र उतनी ही थी, जिस उम्र में बच्चे आँगन में लगे हैंडपंप पर खड़े हो कर सार्वजनिक स्नान कर लेते हैं।

खबर आयी थी कि दीदी माँ बन गयी है, मतलब मैं मामा बन गया था।

मैंने देखा था, शादी वाली रात माँग में सिंदूर लगते ही दीदी बहुत बड़ी हो गयी थीं। जैसे एक रात में दीदी बड़ी हो गयी थीं, उसी तरह मामा बनने की खबर आते ही एक ही दिन में मैं भी बहुत बड़ा हो गया था। 

मैंने शीशा उठा कर अपना चेहरा देखा। चेहरे पर एक बाल नहीं था, लेकिन मुझे लग रहा था कि मैं अब बहुत बड़ा हो गया हूँ। मैं मामा बन गया हूँ। पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था, तो क्या? 

अब मैं मामा बन गया, तो मुझे दीदी के ससुराल जाना था, भांजे को देखने के लिए। पता नहीं आप लोगों में से कितने लोग ‘सतइसा’ को जानते हैं, पर दीदी के यहाँ पंडितों ने ग्रह नक्षत्र देख कर बताया था कि बच्चा ‘सतइसा’ में पड़ा है, यानी बच्चे के जन्म के बाद होने वाले छठी के उत्सव की जगह उसके जन्म का उत्सव 27 दिनों के बाद होना तय हुआ। 

दीदी घर की पहली बहू थी। सोलह साल से कम उम्र में घर की बड़ी बहू। 

उत्सव की तैयारी शुरू हो गयी। कई रिश्तेदार दीदी के ससुराल पहुँच गये थे। पर मामा तो मैं ही था। ठीक उत्सव वाले दिन बहुत से लोग घर आये थे। तब जब बहुत से लोग घर में आते थे, तो सोने का इंतजाम कुछ इस तरह होता था कि महिलाओं के लिए बिस्तर घर के भीतर लगता, पुरुषों के लिए बाहर लॉन में। बच्चे कहीं भी घुस कर सो सकते थे। 

अजीब संकट था। सब लोग मुझे अभी भी बच्चा ही समझ रहे थे। पर मैं मामा बन चुका था और खुद को बच्चा मानने को तैयार नहीं था। अब जब सभी बड़ों के लिए बिस्तर बाहर लगा, तो संजय सिन्हा ने जिद ठान ली कि वो बड़ों के साथ सोएँगे। 

बड़ों के साथ सोएँगे, बड़ों की तरह सोएँगे। सबने बड़ा समझाया। पर मामा बनने का जोश इतना बड़ा था कि मैंने एकदम मना कर दिया। अरे फूफा, चाचा, दादा सब बाहर सोएँगे और मामा क्या बच्चा है, जो महिलाओं में घुस कर सोएगा। नहीं। संभव ही नहीं है। 

मामा की चारपाई बाहर लॉन में लग गयी। 

मैंने दीदी से कहा कि मेरे लिए भी रात में पहनने के लिए लुंगी का इंतजाम किया जाए। उन दिनों पुरुष रात में लुंगी पहना करते थे। 

दीदी हँसने लगी।

“लुंगी और तुम?”

“हाँ, दीदी।” 

“पगले, तुम तो अभी खुद बच्चे हो।”

“मजाक मत समझो दीदी। मामा बनना कोई बच्चों का खेल नहीं है। मैं लुंगी पहन कर ही रात में सोऊँगा।”

दीदी ने जीजाजी की एक लुंगी मुझे पकड़ा दी। 

मैं बड़ों की तरह बहुत गंभीर रहने का अभिनय कर रहा था। रात में घर के मर्दों के साथ ही खाना खाया। फिर दीदी ने ही मुझे लुंगी लपेट दी। अंडरवियर का कांसेप्ट तब हम बच्चों के लिए नहीं हुआ करता था। लुंगी पहन कर लग रहा था कि मैं पूरा मर्द बन चुका हूँ। 

मैं चुपचाप बाहर जाकर अपनी चारपाई पर सो गया। बहुत देर तक आसमान में तारे गिनता रहा, तारे गिनते-गिनते कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला। 

सुबह नींद खुली तो बिस्तर से उठा और रोज की तरह दौड़ता हुआ दीदी के कमरे की ओर चल पड़ा। 

सारे लोग मुझे देख कर हँस रहे थे। दीदी भी मुझे देख कर हँस पड़ी। 

“तुम्हारी लुंगी कहाँ है?”

“कौन सी लुंगी?”

“अरे, रात में तुमने निकर पहन कर सोने से मना कर दिया था न! तुमने कहा था कि तुम लुंगी पहन कर सोओगे।”

अब मैं होश में आया। नींद पूरी तरह गायब। तो मेरी लुंगी बिस्तर पर ही रह गयी? मैं फिर दौड़ा बाहर की ओर।

आगे की कहानी आप मन में खुद ही जोड़ घटा लीजिए। 

पर उसके बाद मैंने कभी जिन्दगी में लुंगी को हाथ नहीं लगाया। मैं उन सभी मर्दों को सलाम करता हूँ, जो रात में लुंगी पहन कर सुबह सही सलामत उठ जाते हैं। 

***

मैंने आपसे पूछा था कि 21 तारीख को मथुरा में ssfb परिवार के मिलन समारोह वाले दिन मैं समझ नहीं पा रहा कि क्या पहनूँ। कुर्ता-पायजामा या सूट? मैं जानता हूँ कि पायजामा ज्यादा देर मुझ पर टिक नहीं सकता। मतलब सूट के सिवा विकल्प नहीं। अब मैंने आपसे पूछ लिया तो आप में से भी कई परिजनों ने मुझ से पूछ लिया कि उन्हें क्या पहनना चाहिए। खास कर लड़कियों ने पूछा है कि वो सूट पहनें या साड़ी। 

मेरी प्यारी बहनों और सखियों, मैं तो इतना ही कहूँगा कि आप वही वस्त्र पहनें, जिसमें आप खुद को आराम की स्थिति में पाएँ। वैसे कहावत यही है कि खाना मन माफिक और पहनना जग माफिक होना चाहिए।

कुछ लोगों ने मुझसे यह भी जानना चाहा है कि जहाँ हमारा मिलन समारोह है, वहाँ कपड़े बदलने की सुविधा है या नहीं? 

बिल्कुल है। वहाँ हमने कुछ कमरों का इंतजाम किया है। आप लोगों में से जो लोग वक्त के हिसाब से कपड़े बदलना चाहें, उनके लिए पूरी जगह होगी। 

***

(देश मंथन, 16 नवंबर 2015)

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