संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
“माँ, आज कौन सी कहानी सुनाओगी?”
“आज मैं एक बहुत अच्छे राजा और रानी की कहानी सुनाऊँगी।”
“माँ, ये सारी कहानियाँ राजा और रानी की ही क्यों होती हैं?”
“नहीं बेटा, कहानियाँ सिर्फ राजा और रानी की नहीं होतीं। कहानियाँ उनकी होती हैं, जो कुछ अलग होते हैं। जो अलग होते हैं, जिनकी जिन्दगी में कुछ अलग होता है, कहानियाँ उन्हीं की होती हैं। मैंने तुम्हें भक्त प्रह्लाद, ध्रुव तारा, आरूणि की भी तो कहानियाँ सुनाई हैं।”
“हाँ माँ, तुम सही कह रही हो। जिनकी जिन्दगी में कुछ अलग होता है, कहानियाँ उन्हीं की होती हैं।
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दो दिन पहले मैं मथुरा गया था। अपने बड़े भाई Pavan Chaturvedi के घर एक निजी समारोह में शामिल होने के लिए।
वहाँ मेरी मुलाकात अपने कई फेसबुक परिजनों से हुई। एक परिजन ने मुझसे हाथ मिलाया और अपना नाम बताया – Surendra Mohan Sharma।”
मैंने हाथ आगे बढ़ाया ही था कि उन्होंने कहा कि फेसबुक पर आप मुझे जानते हैं, मुकेश शर्मा के रूप में।
“मुकेश शर्मा? फिर ये सुरेंद्र शर्मा कौन?”
“मैं ही हूँ। पहले मैं आपकी पोस्ट पर मुकेश के नाम से कमेंट करता था। अब सुरेंद्र के नाम से करता हूँ।”
“दो नाम? तो क्या ये दोनों आप ही हैं?”
“हाँ, हाँ। दोनों मैं ही हूँ। पर अब मुकेश के नाम से नहीं, सुरेंद्र के नाम से ही कमेंट करता हूँ।”
“बहुत खूब।”
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विमल मित्र के उपन्यास ‘रोकड़ जो मिली नहीं’ में दो नामों की चर्चा मैंने पढ़ी थी। इसका मतलब ये हुआ कि मुकेश और सुरेंद्र के पीछे कोई कहानी होगी। एक आदमी खुद ही बताए कि वो मुकेश है, फिर कहे कि वही सुरेंद्र है, तो किसी की दिलचस्पी ये जानने की हो सकती है कि आखिर इसके पीछे कहानी क्या है। वो भी शहर का जाना माना वकील अगर ऐसा कहे तो कहानी कुछ खास होगी।
माँ ने कहा था कि जिनकी जिन्दगी में कुछ अलग होता है, कहानियाँ उन्हीं की होती हैं।
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समारोह में गरम-गरम मुरादाबादी दाल खाते हुए मैंने उनसे पूछ ही लिया कि दो नामों के पीछे कहानी क्या है?
“बहुत मजेदार वाकया है। हमारा घर संगीत और सिनेमा प्रेम से भरा पड़ा है। अब मेरे बाबा को कुंदन लाल सहगल से बहुत प्यार था। कुंदन लाल सहगल की आवाज पर वो फिदा थे। जिन दिनों मेरा जन्म हुआ, फिल्मों में लोग कुंदन लाल सहगल की आवाज की नकल करते थे। एक दौर था, जब सहगल की आवाज को लोग अपने गले में बसाना चाहते थे।”
“ये तो ठीक है। पर आपका नाम कुंदन तो नहीं है न?”
“ओह! जरा धैर्य रखिए। मैंने कहा न कि उन दिनों सहगल को कॉपी करने की परंपरा सी चल पड़ी थी। उन्हीं दिनों एक नाम बहुत लोकप्रिय हो रहा था, वो नाम था मुकेश का। गायक मुकेश। बस ये समझ लीजिए कि मेरे बाबा ने मेरा नाम सहगल के प्रति अपने प्यार को जताते हुए मुकेश रख दिया। और इस तरह मैं मुकेश बन गया।”
“वाह! संगीत के प्रति समर्पण है ये तो।”
“जी, बिल्कुल सही कहा आपने।”
“फिर सुरेंद्र?”
“हाँ, कहानी को अब आगे बढ़ना है। जब स्कूल में मेरे दाखिला का समय आया, उन दिनों रूपहले पर्दे पर एक फिल्म ने धूम मचा रखी थी। फिल्म का नाम था, अनमोल घड़ी। अगर आपने फिल्म देखी हो तो आपको याद आएगा कि उसमें जो नायक था, उसका नाम सुरेंद्र था। अब मेरे दाखिले के लिए जो मुझे स्कूल लेकर गए थे, उन्होंने अपने सिनेमा प्यार की इंतेहाँ पार करते हुए मेरा नाम वहाँ स्कूल के रजिस्टर में सुरेंद्र लिखवा दिया।”
“मुकेश से सुरेंद्र? वो भी बिना घर के बाकी सदस्यों को बताए हुए?”
“बिल्कुल। बिना किसी को बताए हुए। यूँ समझ लीजिए कि फिल्म अनमोल घड़ी के नायक का जादू उनके सिर पर इस कदर सवार था कि बिना किसी को बताए उन्होंने अपना फिल्मी प्रेम अपने बच्चे पर उड़ेल दिया। एक ही दिन में मेरा पूरा परिचय बदल गया, आने वाले दिनों के लिए। पूरा घर, पूरा मुहल्ला, मेरे सारे दोस्त मुझे मुकेश बुलाते थे, पर मैं बन गया था सुरेंद्र।”
“बहुत गजब की फिल्मी कहानी है।”
“सच में। एकदम फिल्मी कहानी। तब से मैं मुकेश भी हूँ। सुरेंद्र भी।”
“वैसे, प्यार से दो नाम तो कई लोग रखते हैं।”
“रखते होंगे। पर मुझे तो बहुत दिनों तक खुद ही समझ में नहीं आता था कि मैं मुकेश हूँ या सुरेंद्र? अब मेरे घर में तो किसी को पता तक नहीं था कि मेरा स्कूल में नाम अचानक सुरेंद्र क्यों रख दिया गया। ये तो मेरे दो परिजनों ने अपने फिल्मी प्यार को मुझ पर उड़ेल कर मुझे मुकेश और सुरेंद्र बना दिया। बस इसीलिए मैं बहुत दिनों तक आपकी वाल पर मुकेश शर्मा के नाम से कमेंट करता रहा। फिर अब मैं सुरेंद्र मोहन शर्मा के नाम से करने लगा।”
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मथुरा में आयोजित समारोह में मुरादाबादी दाल वाकई बहुत स्वादिष्ट थी।
पर सबसे मजेदार था, मेरे लिए दो नामों की इस कहानी को सुनना। जिस सहजता और ईमानदारी से सुरेंद्र जी ने अपने दो नामों की कहानी सुनायी, मुझे लगा कि माँ के शब्दों में ये सचमुच कुछ हट कर वाकया है। बस फिर क्या था।
राजा गया तेल लेने। रानी गई घर।
मेरे लिए सुरेंद्र मोहन शर्मा ही राजा बन गये और उसी समारोह में मैं उनकी पत्नी से भी मिला, तो वो मेरे लिए रानी बन गईं।
तो इस तरह पूरी हुई मथुरा के दिल के राजा और रानी की कहानी। जितनी देर उनके साथ रहा, वो मुस्कुराते रहे। जितने लोग उनसे मिलने आते, बहुत गर्मजोशी से सबसे मिलते नजर आते रहे।
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माँ सही कहती थी। जो अलग होते हैं, कहानियाँ उन्हीं की होती हैं।
(देश मंथन, 19 नवंबर 2015)