आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
दिल्ली का पुस्तक मेला निपट गया कल रविवार 17 जनवरी को। हिंदी के स्टालों पर यह शुबहा रहा कि लोकार्पण-कर्ता ज्यादा हैं हिंदी में या पाठक ज्यादा।
किताबों का लोकार्पण पहले होता था, अब लोकार्पण मचता है, खास तौर पर पुस्तक मेले में।
लोकार्पणकर्ता धचाधच किताबें पब्लिक को अर्पित किये जाता है, पब्लिक इस समर्पण को स्वीकार कर रही है या नहीं, यह सवाल कोई नहीं पूछता। मेरे एक मित्र हैं अठ्ठावन किताबें लोकार्पित कर चुके हैं, उनके अपने घरवाले भी उनकी किताबों को देखने तक से इनकार कर देते हैं। मैं उनसे कहता हूँ किताबों का हाल तुमने कूड़े का सा बना रखा है, तुम्हारे घर से जो आइटम रिजेक्ट हो जाता है, उसे बाहर डाल आते हो, लोकार्पण के जरिये।
खैर, मेरे एक मित्र जलेबी बनाते हैं, मैं व्यंग्य लिख कर उसकी किताब बनाता हूँ।
जलेबी का लोकार्पण कभी ना करना पड़ा, ना कभी उस पर डिस्काउंट देना पड़ा।
मुझे अपनी किताब का लोकार्पण जैसा कुछ कराना पड़ता है फिर खरीदनेवाला उस पर डिस्काउंट की माँग भी करता है। यही खरीदार कचौड़ी-जलेबी खाते वक्त किसी डिस्काउंट की माँग नहीं करता।
कभी सोचता हूँ कि प्राडक्ट के बतौर जलेबी ही किताब से ज्यादा ताकतवर मजबूत है। जलेबीवाला मुझे ताना देता है हमारा आइटम तो बिना डिस्काउंट के बिकता है जी। मैं उसे ना बता पाता जी किताबों की क्या पूछो, डिस्काउंट के बाद भी मुश्किल से बिकती हैं।
लोकार्पण यानी लोक को अर्पण, जनता को अर्णण, किताब छाप कर जनता को बताना होता है, उसे किताब अर्पण करने की आधिकारिक डिस्काउंट-युक्त घोषणा करनी होती है। जलेबी बिना लोकार्पित हुए ही बिकती है, लोग खुद ही आकर अपना धन जलेबी को समर्पित कर देते हैं।
खैर, अच्छी बात यह है कि हिंदी किताबों को हाल में बेचने की गंभीर कोशिशें शुरू हो गयी हैं। दिल्ली के पुस्तक मेले में किताबों के इतने लोकार्पण मचते हैं कि कई बार डर सा लगता है कि भाई खरीदनेवाले कम हैं और अपनी किताब का लोकार्पण करवाने वाले बहुत ज्यादा तो ना हो गये हैं। लोकार्पण करनेवाले इस स्पीड से धुआँधार लोकार्पण करते हैं कि औसतन हर बुजुर्ग लेखक रोज के सौ के आसपास लोकार्पण कर देता है। कम बुजुर्ग लेखक भी चालीस-पचास कर गुजरता है। अधिकांश मामलों लोकार्पण किताब को बिना पढ़े ही किया जाता है। जिस स्पीड से बिना देखे-पढ़े लोकार्पणकर्ता लोकार्पण करता है, उसे देखते हुए मुझे कुछ खतरनाक सीन दिखायी दे रहे हैं।
एक सीन यह हो सकता है कि एक प्रोफेशनल लोकार्पणकर्ता एक साथ तीन किताबों का लोकार्पण करे-किताब नंबर एक- कुत्तों का रख-रखाव, किताब नंबर दो- हमारे समय के व्यंग्यकार, किताब नंबर तीन-भरवां बैंगन स्वादिष्ट कैसे बनायें। लोकार्पणकर्ता यही भूल जाये कि वह आखिर किस किताब पर क्या बोलना है। कुल मिलाकर लोकार्पण की मिक्स -वेजीटेबल यह बन सकती है कि लोकार्पणकर्ता यह भाषण दे बैठे- कुत्ते और व्यंग्यकार बहुत खतरनाक होते हैं। पर इन्हे ज्यादा लिफ्ट नहीं देनी चाहिए। ज्यादा लिफ्ट देने से ये आपके सिर पर भी चढ़ सकते हैं। इसलिए हफ्ते में कम से कम एक बार इनके पिछवाड़े लात मारनी चाहिए, इससे इनका रख-रखाव ठीक होता है (कोई बीच में टोक सकता है कि सर, ये आप कुत्तों के बारे में कह रहे हैं कि व्यंग्यकारों के बारे में, इस पर लोकार्पणकर्ता बोल सकता है कि अब हमने तो कह दी है, चाहे जिसके बारे में मान लो)। सबसे कातिल बयान लोकार्पणकर्ता यह दे सकता है-भरवां बैंगन स्वादिष्ट बनाने के लिए आप व्यंग्यकार को लें और उसे अच्छी तरह से धो दें, फिर बीच में से कट लगा कर खूब मिर्ची भर दें। ऐसे व्यंग्यकार बहुत टेस्टी पकेगा।
लोकार्पण ऐसे ही मचेगा।
मचेगा, क्या जी मच रहा है। पुल का, सड़क का लोकार्पण नेता करते हैं। पुल टूट जाता है कुछ महीनों में, सड़क पर गढ्ढे हो जाते हैं कुछ महीनों में। गढ्ढे पब्लिक को लोकार्पित रह जाते हैं, उससे हासिल कट-कमीशन इंजीनियर-ठेकेदार खुद को अर्पित कर देते हैं। पब्लिक के पास टूटा हुआ पुल रह जाता है, इंजीनियर-ठेकेदारों के आत्म-समर्पित कट-कमीशन बचा रह जाता है।
जो पब्लिक को लोकार्पित होना चाहिए, वह उसे लोकार्पित नहीं होता। पब्लिक को चुपके से कई आइटम लोकार्पित हो जाते हैं, कई नेता अपने बच्चों को नेतागिरी में डाल कर उन्हे लोकार्पित कर देते हैं। पब्लिक ना चाहे, तो भी नेताओं के बच्चे लोकार्पित हो जाते हैं। पब्लिक चिल्लाती है, ना, ना प्लीज, ये हमें नहीं चाहिए। पर ना, लोकार्पण मचा रहता है। कुछ किताबों के बारे में भी यही बात लागू होती है। लोकार्पणकर्ता प्रतिबद्ध हो, तो लोकार्पण करके ही मानता है। बात चाहे किताबों की हो या नेताओं के बच्चों की।
खैर, आइये लोकार्पणकर्ता की वह लोकार्पण-स्पीच ध्यान से सुनें- जिसमें वह व्यंग्यकार के भरवां-बैंगन बनाने के गुर समझा रहे हैं।
(देश मंथन, 18 जनवरी 2016)