मन की कमजोरी

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

हाथी वाली कहानी आप सबने बचपन में ही सुन ली होगी। 

मैं जानता हूँ कि पहली पंक्ति पढ़ कर एक क्षण में आपके जेहन में न जाने हाथियों की कितनी कहानियाँ कौंध पड़ी होंगी।

दादी की सुनायी, नानी की सुनायी, माँ की सुनायी और पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ी। फिर आपके मन में ख्याल आ रहा होगा कि संजय सिन्हा आज सुबह-सुबह हाथी की कौन सी कहानी सुनाने को व्याकुल हैं। जब आप इतना सब सोच चुके होंगे, तब आपको लगेगा कि आखिर माजरा क्या है।

माजरा है। मैं आज आपको जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ, उसके पीछे मकसद है।

अब आप पहले वो कहानी सुनिए, जिसके बारे में मेरा यकीन है कि आप इसे कई बार पढ़ चुके होंगे, सुन भी चुके होंगे। पर आज आपको इसे आत्मसात करना है। खुद भी आत्मसात कीजिए, आने वाली पीढ़ी को भी आत्मसात कराइए। 

तो जनाब, एक हाथी था। बहुत बड़ा, बहुत ताकतवर। इतना ताकतवर की एक बार जोर से सूँढ़ उठा कर अगर चिंघाड़ दे तो आस-पास की धरती हिल जाये। उसे एक बहुत छोटे से महावत ने पाल रखा था। महावत का घर छोटा सा था और हाथी उसके घर के बाहर आम के एक पेड़ से पाँव में पतली सी रस्सी से बँधा रहता था। महावत जब चाहता, हाथी की पीठ पर सवारी करता, जब चाहता उस पर बोझ उठाता। गाँव के लोग महावत को कुछ पैसे देते तो वो शादी-ब्याह में उस हाथी को ले जाता, हाथी को वो इशारा करता तो हाथी नाचता। सूँढ़ उठा कर लोगों का अभिवादन करता। 

और जब करने को कुछ नहीं होता तो न जाने कितने टन का वो हाथी उस आम के पेड़ से बँध कर चुपचाप अपनी मजबूरी पर आँसू बहाता। 

एक दिन एक आदमी उस गाँव से गुजर रहा था। उसने देखा कि इतना बड़ा हाथी पाँव में एक पतली सी रस्सी से बँधा है। उसे बहुत आश्चर्य हुआ। इतना बड़ा हाथी, इतनी पतली सी रस्सी और ये मामूली सा आम का पेड़! 

आदमी को बहुत कौतूहल हुआ। उसने महावत से पूछा कि आपने इसे इस रस्सी में बाँधा ही क्यों है? इसे नहीं भी बाँधते तो क्या फर्क पड़ता।

महावत ने कहा कि इसे अगर रस्सी से नहीं बाँधूंगा तो ये भाग जायेगा। 

“भाग जायेगा?”

“हाँ।”

“क्या कह रहे हैं, जनाब! अगर इसे भागना होता तो ये इस सेकेंड के हजारवें हिस्से में इस रस्सी को तोड़ कर भाग जाता। ये अपनी जरा सी हुँकार से इस पेड़ को गिरा सकता है। फिर क्या आपको लगता है कि इस रस्सी ने इसे बाँध रखा है?”

महावत ने कहा, “हाँ, इस रस्सी ने इसे बाँध रखा है।”

“पर इस रस्सी में क्या इतना दम है?”

महावत मुस्कुराया। फिर उसने कहा कि मैं जानता हूँ इस रस्सी में दम नहीं है, पर हाथी नहीं जानता। जब ये बहुत छोटा था, तब मैं इसे जंगल से पकड़ कर लाया था। तब मैं इसे इसी रस्सी से बाँधा करता था और ये इस रस्सी को नहीं तुड़ा पाता था। बचपन में इसने एक दो बार कोशिश की थी, रस्सी तोड़ने की। पर तब यह रस्सी इससे नहीं टूटी थी। 

धीरे-धीरे ये हाथी बड़ा होता गया। पर इसके मन में रस्सी के खौफ का आकार इसके शरीर के आकार से ज्यादा बड़ा होता गया। 

अब मैं जानता हूँ कि ये हाथी अपनी एक कोशिश से रस्सी को तोड़ सकता है। ये चाहे तो इसकी जरा सी हलचल से पेड़ ही चरमरा कर गिर जाए। पर ये ऐसा नहीं करता। ये ऐसा कर ही नहीं सकता। ये बहुत बचपन में इससे हार चुका है और अब ये समझता है कि ये कभी इससे नहीं जीत सकता। मैंने इसे रस्सी की मजबूती से नहीं, इसके मन की कमजोरी से इसे बाँध रखा है।

***

हम सभी अपनी-अपनी जिन्दगी में मन की उन्हीं कमजोर रस्सियों से बँधे पड़े हैं और यही सोच कर बैठ जाते हैं कि हम क्या कर सकते हैं। हम कुछ नहीं कर सकते। हममें ऐसा कुछ नहीं कि हम कुछ कर पाएँ। 

अगर आप सचमुच ऐसा सोचते हैं कि आप कुछ नहीं कर सकते, तो प्लीज़ जबलपुर आइए। यहाँ Didi Gyaneshwari से मिलिए, यहाँ Akhilesh Gumashta से मिलिए, यहाँ Ravindra Bajpai से मिलिए। 

पहले आप मिलिए फिर मुझसे कहिएगा कि क्या सचमुच बहुत आसान नहीं है मन की रस्सी से आजाद हो जाना? 

ज्ञानेश्वरी दीदी अपने गुरु के कहने पर बनवासी बच्चों को पढ़ाने के लिए पंजाब से जबलपुर चली आयीं। यहाँ उनके पास कोई विकल्प नहीं था, पर संकल्प था। उन्होंने एक शेड में उन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, जिनके लिए शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं था। फिर ये उनका संकल्प ही था कि उन्होंने कैंसर के मरीजों की सेवा के लिए विराट हॉस्पिस की नींव रखी। 

यहां उन्हें साथ मिला डॉक्टर अखिलेश गुमाश्ता का। डॉक्टर साहब की पूरी कहानी सुनाऊँगा तो आप दाँतों तले उंगलियाँ ही दबा लेंगे। पर आज इतना ही कि डॉक्टर साहब निस्वार्थ भाव से यहाँ जिन्दगी की आखिरी साँसें गिन रहे कैंसर के मरीजों की सेवा में अपना भगवान ढूँढ रहे हैं। और रविंद्र वाजपेयी? 

तो जनाब, जैसे मैं हर सुबह उठ कर रिश्तों की कहानियाँ सुनाता हूँ, उसी तरह रविंद्र बाजपेयी रोज सुबह मनुष्य के विराट हो जाने की कहानियाँ फेसबुक पर सुनाते हैं। वो बताते हैं कि जिन्दगी की जंग हार चुके लोगों को जीवन के चार पल जब मिल जाते हैं, तो वो कैसे जी उठते हैं। 

अभी-अभी जबलपुर से लौटा हूँ। मैं अपने मन की रस्सी तुड़ा कर लौटा हूँ। आप भी किस सोच में डूबे हैं, अपने मन की रस्सी को तोड़ दीजिए और हो जाइए आजाद। देखिए कि जिन्दगी में कितना कुछ और है करने के लिए, सिर्फ खुद जीने के अलावा।

(देश मंथन, 06 अप्रैल 2016)

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