रिश्तों को दस्तक दीजिए

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

कोई 60 साल पुरानी बात है, एक लड़की की बहुत धूम-धाम से शादी हुई। शादी के बाद लड़की के पाँच बच्चे हुए। चार बेटियाँ, एक बेटा। पूरा परिवार खुश।
पहले बेटियों की शादी हुई, फिर बेटे की। कुछ दिनों बाद पति का निधन हो गया। बेटियाँ ससुराल में सेटल हो चुकी थीं, बेटा अमेरिका में सेटल हो गया था। रह गयी थी माँ।

माँ की उम्र करीब 80 साल हो गयी थी। मैं उस माँ को पिछले पच्चीस साल से यूं ही अकेला देख रहा था। वो कभी-कभी मुझे रोती हुई मिलती। कहती कि बेटा पिछले 20 साल से उससे मिलने नहीं आया। पूरा मुहल्ला सांत्वना देता, पर माँ का दिल कहाँ मानने वाला था।
दो दिन पहले उस माँ की मृत्यु हो गयी।
पाँच-पाँच बच्चों, कई-कई नातियों-पोतों वाली माँ बिल्कुल तन्हा मर गयी। मोहल्ले के लोग उन्हें जानते थे, अफरा-तफरी में बेटियों को ख़बर की गयी। बेटियाँ आईं। पर अब क्या फायदा? माँ तो तन्हा मर गयी।
अब बारी थी बेटे के आने की।
तो पिछले हफ्ते माँ की तबियत जब बहुत ख़राब थी, तब उनके पूरे रिश्तेदारों को फोन कर बताया गया था कि वो अकेली हैं, बहुत बीमार हैं। पर कोई नहीं आया। अब वो मर गईं तो एक-एक करके सारे रिश्तदार आ रहे हैं। सुना है कि चार दिनों के बाद उनका बेटा भी अमेरिका से दिल्ली आएगा। तब तक लाश को लोग रोक कर रखेंगे।
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मैं कल से कई बार उनके घर जा चुका हूँ। लाश रखी है। लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं।
मैं सब कुछ देख रहा हूँ। पर कल से मेरे मन में यह सवाल कौंध रहा है कि जीते जी आदमी क्यों रिश्तों की कद्र नहीं करता? और मर जाने के बाद इतनी औपचारिकता का फायदा ही क्या?
मेरी माँ कहा करती थी कि मर कर आदमी देवता बन जाता है।
तो क्या इसीलिए मरने के बाद लोग रिश्तों की परवाह करते हैं? मैंने पिछले 25 वर्षों में सौ बार उस महिला को अपने अकेलेपन पर बिलखते हुए देखा है। उसे खुद को कोसते हुए देखा है। आज जब वो नहीं रही तो लोग आ रहे हैं, अफसोस जता रहे हैं।
जो लोग लाश को देखने आ रहे हैं, वो उस महिला की किस्मत पर आँसू बहा रहे हैं। सब यही कह रहे हैं कि बेचारी कितनी अकेली थी। सब थे पर कोई नहीं था।
पर मैं जानता हूँ कि आज का समाज ऐसा ही हो गया है। किसी को किसी की परवाह नहीं रही। सब के सब अकेले होते जा रहे हैं। सबके बच्चे अपनी-अपनी जिन्दगी में मस्त होते जा रहे हैं और किसी के पास अपने माँ-बाप के लिए भी समय नहीं।
शुरुआत कहाँ से हुई?
पहले माँ-बाप ने ही एकल परिवार की कल्पना को अंजाम दिया। पहले इन माँ-बाप ने ही अपने बच्चों को अपने दादा-दादी और नाना-नानी से दूर किया। पर तब वो यह नहीं सोच पाए कि उनकी दी हुई ट्रेनिंग ही एक दिन उनके बच्चों को उन्हीं से दूर कर देगी।
छोटे शहरों का सत्य मुझे नहीं पता, क्योंकि जैसे ही मैं कुछ लिखता हूँ लोग कहते हैं कि ऐसा सिर्फ महानगर में हो रहा है, छोटे शहर अभी इससे बचे हैं। अगर यह सत्य है तो बहुत अच्छी बात है। पर महानगरीय सत्य तो यही है कि यहाँ आदमी सचमुच तन्हा होता जा रहा है।
जिस महिला की शादी 60 साल पहले हुई थी और जिसके पाँच बच्चे हुए, फिर भी वो अपने घर में अकेली मर गयी, उसका तो जो हुआ सो हुआ, पर आप जागिए। आज ही जागिए। अपने रिश्तों को दस्तक दीजिए।
सारा वैभव बेकार हो जाता है, जब अकेलापन एक बार डस लेता है। मुश्किल ये है कि हम इस सत्य को समझने में इतनी देर लगा देते हैं कि सबकुछ खत्म हो चुका होता है। जिन्दगी छोटी हो या बड़ी, पर अकेली नहीं होनी चाहिए।    
(देश मंथन, 03 जून 2016)

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