संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैंने जितनी बार भी फिल्म देवदास देखी है, मेरे मन में ये सवाल उठा है कि पुरुष प्रेम में कायर क्यों हो जाता है?
दुनिया भर में अपनी मर्दानगी का लोहा मनवाने वाले पुरुष अंतत: एक स्त्री के सामने घुटने टेक देते हैं और उनकी सारी मर्दानगी सिर्फ शरीर तक सिमट कर रह जाती है। मैं कोई मनोवैज्ञानिक नहीं हूँ, लेकिन मेरा दावा है कि प्रेम के मामले में महिलाएँ पुरुष से ज्यादा मजबूत होती हैं। जब वो प्रेम में होती हैं, तो उनमें एक ऐसी शक्ति का उदय होता है, जो संसार की किसी भी ताकत से लोहा लेने का माद्दा रखती है; और समय गवाह है कि लज्जा, शील, संकोच में पड़ी हुई एक महिला जब अपने प्रेम को पाने के लिए सिर उठा लेती है, तो फिर उसे कोई डरा नहीं सकता।
कान्हा के प्रेम में राधा ने सारी दुनिया के सामने अपने प्रेम को कबूला कि वो कान्हा के बिन मैं राधा नहीं, आधा हूँ। वृंदावन से मथुरा जाते हुए कान्हा से लिपट कर राधा ने रो-रो कर कहा था, “ओ दूर के मुसाफिर, हमको भी साथ ले ले रे, हमको भी साथ ले ले, हम रह गये अकेले…।
राधा विवाहिता थीं, पर एक बार प्रेम करने के बाद उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। पर कान्हा नहीं माने, चले गये। प्रेमी चला गया था, प्रेम रह गया था।
मेरी सबसे प्यारी फिल्म देवदास का नायक अपनी पारो से प्रेम तो करता है, पर कायर है। मैंने ये फिल्म न जाने कितनी बार देखी है, और हर बार मन में इस सवाल को लेकर मैं थिएटर से बाहर निकला कि आखिर जिस रात पारो अपनी लज्जा, अपना संकोच छोड़ कर चुपके से देवदास के कमरे में घुस आती है, यह कहने कि तुम मुझसे विवाह कर लो, तो देवदास ने हाँ क्यों नहीं कहा?
क्या देवदास पारो से प्रेम नहीं करता था?
अगर नहीं करता था, तो पूरी कहानी ही बेमानी थी। पर देवदास तो पारो-पारो करता हुआ उसके घर के बाहर मर गया। फिर उसने उस रात पारो को घर से क्यों निकाल दिया था?
उसी देवदास से जब चंद्रमुखी ने प्यार का इजहार किया, तो देवदास उसे भी छोड़ कर निकल गया। मैं आजतक शरतचंद्र की कहानी के इस नायक के चरित्र को नहीं समझ पाया कि आखिर उसने पारो का हाथ थामा क्यों नहीं था?
संजय सिन्हा के सोचने और आपके सोचने में अंतर है। मुमकिन है आपके पास मेरे सवाल का जवाब हो कि दिन-रात पारो-पारो करने वाले देवदास ने पारो को अपनाया क्यों नहीं था? और आखिर में एक नर्तकी के घर पड़े रहने के बाद जब उसने भी प्रेम का इजहार किया, तो देवदास उसका भी दिल क्यों तोड़ कर वहाँ से निकल गया?
खैर, मेरी आज की कहानी उस कायर देवदास की कहानी नहीं है। मेरी कहानी आज के आधुनिक देवदास और पारो की है। आज अगर शरतचंद्र होते, तो देख कर हैरान रह जाते कि उनके पात्रों ने समय के साथ खुद को बदल लिया है। आज मैं जिस देवदास और पारो की कहानी आपको सुनाने जा रहा हूँ, उसमें भी पारो अपना घर छोड़ कर देवदास के पास चली आई, बस अंतर इतना ही है कि इस बार देवदास ने पारो को ना नहीं कहा, हाँ कह दिया और पारो सदा-सदा के लिए देवदास की हो गयी।
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मैं पटना के होटल मौर्या में रुका था। शाम को मैं अपने दूसरी मंजिल के कमरे से नीचे उतरा तो देखा कि सात समंदर पार से आई ढेर सारी सुंदरियाँ भारतीय लहंगे में सेल्फी ले रही हैं।
उनके कपड़ों और सजे-धजे होने के अंदाज से मैं इस नतीजे पर तो पहुँच गया था कि यहाँ कोई शादी है, पर मैं ये नहीं जानता था कि जिस रात मैं वहाँ रुका था, उस रात वहाँ पारो की शादी देवदास से होने जा रही थी।
आदतवश मैंने किसी से पूछा।
उसके आगे की कहानी मैं नहीं सुनाऊंगा, आप सीधे उसी के मुँह से सुनिए जिसने मुझे देवदास और पारो के मिलन की कहानी सुनाई।
सैफ्रन पामेर इंग्लैंड की एक लड़की का नाम है।
सैफ्रन ने किशोरावस्था में अपनी माँ के कहने पर इंग्लैंड में देवदास फिल्म देखी थी। उस फिल्म को देख कर उसे देवदास से प्यार हो गया था। और जब एक दिन उसकी मुलाकात पढ़ाई के दौरान बिहार के चंद्रशेखर से हुई, तो उसे लगने लगा कि यही उसका देवदास है और वो उसकी पारो है।
उसने अपने प्रेम का इजहार चंद्रशेखर से किया। चंद्रशेखर बेंगलूरू में आईटी सेक्टर में काम करते हैं और उनकी मुलाकात वहीं सैफ्रन से हुई थी।
पारो ने देवदास से प्रेम का इजहार किया और इस बार देवदास किसी उलझन में नहीं पड़ा, बस उसने सीधे-सीधे कह दिया कि अपने पापा और मम्मी को पहले बताओ, फिर हम आगे बढ़ेंगे।
मैंने कहा न, प्रेम में लड़की बहुत मजबूत हो जाती है, तो सैफ्रन ने तुरंत अपने घरवालों को फोन किया और बताया कि उसे उसका देवदास मिल गया है।
मुझे नहीं पता कि उसके घरवालों की तब क्या प्रतिक्रिया रही होगी, पर उस शाम पटना के मौर्या होटल में उसके मम्मी-पापा, मासी, बुआ और ढेरों रिश्तेदारों समेत कई दोस्त लंदन से पहुँचे हुए थे। सब के सब भारतीय रंग में रंगे थे।
सैफ्रन एकदम पारो नजर आ रही थीं और चंद्रशेखर देवदास। अंतर इतना था कि शरतचंद्र के किरदार आपस में एक नहीं हो पाये थे, पर ये दोनों मिल रहे थे।
पूरा शहर पूरब और पश्चिम के रंग में रंगा था। खुद लालू प्रसाद यादव शादी में शामिल होने के लिए वहाँ पहुँचे थे और पारो के पिताजी से गले मिल कर कह रहे थे, “दीस इज समधी मिलन।”
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मेरी जिन्दगी भी अजीब है। जहाँ जाता हूँ, कहानियाँ मेरे पीछे-पीछे चलती हैं।
मैं पटना गया था अपनी किताब ‘उम्मीद’ के विमोचन के लिए, और वहाँ मुझे मिल गयी आज की पारो और देवदास की प्रेम कहानी।
किसी प्रेम कहानी का अंत इससे बेहतर नहीं हो सकता। पर मैंने शुरू में जो आपसे आज कहा था, उस पर अभी भी कायम हूँ, क्योंकि भले मैंने वो शादी अपनी आँखों से देखी है, पर मेरे मन में ये सवाल वहाँ भी कुनमुना रहा था कि शादी के लिए इंग्लैंड से पटना आई पारो ही थी, जबकि बारात लेकर देवदास को जाना चाहिए था इंग्लैंड। मतलब लड़की ने ही यहाँ भी प्रेम में अपना दम दिखाया।
किसी के प्यार में पड़ी लड़की हजार मर्दों से ज्यादा शक्ति रखती हैं, इस सत्य को याद रखिएगा।
(देश मंथन 14 जुलाई 2016)