अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
मीडिया हर रोज पीएम मोदी का जादू टेस्ट करता है। एमसीडी चुनाव में बीजेपी की जीत को भी वह पीएम मोदी का ही जादू बता रहा है। लेकिन वह यह बताने में संकोच कर रहा है कि यह बीजेपी की जितनी बड़ी जीत नहीं है, उससे कहीं अधिक बड़ी केजरीवाल की हार है। शायद विज्ञापन बहादुर केजरीवाल के विज्ञापनों का मोह उसे यह सच बताने से रोक रहा है।
बीजेपी ने पिछले एमसीडी चुनाव में 138 सीटें जीती थीं। इस बार उसे 181 सीटें मिली हैं। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 विधानसभा सीटें जीती थीं। इस हिसाब से उसे 270 में 258 सीटें जीतनी चाहिए थी, लेकिन उसे जीती मात्र 48 सीटें। अब कोई मुझे बताए कि 138 के मुकाबले 181 अधिक बड़ा है, या 258 के मुकाबले 48 अधिक छोटा है?
बीजेपी की जीत में नरेंद्र मोदी एक फैक्टर हो सकते हैं, लेकिन वह एकमात्र और सबसे बड़े फैक्टर नहीं हैं। बल्कि सबसे बड़े फैक्टर तो केजरीवाल ही हैं। केजरीवाल की दो साल पुरानी सरकार के खिलाफ एंटी-इनकम्बेन्सी फैक्टर इस पैमाने पर काम कर रहा था कि उसके मुकाबले पिछले 10 साल से एमसीडी में काबिज बीजेपी का एंटी-इनकम्बेन्सी फैक्टर भी छोटा पड़ गया।
जो लोग कह रहे हैं कि दिल्ली के लोगों ने वार्ड के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट डाला, उन्हें बताना चाहिए कि फिर विधानसभा के चुनाव में मोदी के नाम पर वोट क्यों नहीं डाला था, जबकि लोकसभा चुनाव 2014 की जबर्दस्त कामयाबी के बाद मोदी का जलवे में तब भी कहीं कोई कमी नहीं आयी थी? जब विधानसभा चुनाव में मोदी के नाम पर वोट नहीं डाला, तो फिर वार्ड के चुनाव में उनके नाम पर कैसे वोट डाल दिया?
जाहिर है कि जब आप कहते हैं कि वार्ड के चुनाव में जनता ने प्रधानमंत्री का मुखड़ा देख कर वोट डाला है, तो आप दिल्ली की जनता के विवेक पर सवालिया निशान खड़ा करते हैं। आपको कहना यह चाहिए कि दिल्ली की जनता ने केजरीवाल और उनकी सरकार के खिलाफ वोट डाला है। और यहाँ अन्ना हजारे की बात मुझे अधिक सही लगती है, जिन्होंने कहा है कि कथनी और करनी में अंतर के चलते केजरीवाल की यह हार हुई है।
केजरीवाल ने बड़ी-बड़ी बातें की थीं। खुद को ईमानदार कहा था। बाकी सबको चोर, भ्रष्ट और बेईमान बताया था। लोगों ने उनकी बात पर भरोसा करके एक बार आजमाने का फैसला भी किया। लेकिन केजरीवाल ने एक-एक करके उनके सारे भरम तोड़ डाले। कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करके कांग्रेस के ही समर्थन से सरकार बना लिया।
फिर जब रातों-रात प्रधानमंत्री बनने का सपना लेकर 49 दिन में ही सरकार छोड़ कर भाग गये, लेकिन लोकसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाये। फिर जनता से कहा कि गलती हो गयी, माफ कर दो, अब दिल्ली छोड़कर कभी नहीं भागूंगा। लेकिन हाल ही में हमने देखा कि वे पंजाब का मुख्यमंत्री बनने के लिए किस कदर लालायित थे। यह अलग बात है कि पंजाब की जनता ने भी उन्हें धूल चटा दी।
केजरीवाल के कई मंत्री और विधायक भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी समेत कई मामलों में एक्सपोज हुए। जनता के पैसे पर इस शख्स ने अपनी छवि चमकाने के लिए सैकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिल्ली के अलावा अन्य राज्यों में दिये। अपने राजनीतिक केस लड़ने के लिए दिल्ली की जनता के पैसे से वकील की फीस चुकाने की कोशिश की।
बंगला, गाड़ी, तनख्वाह, सिक्योरिटी नहीं लेने का ढोंग करने वाले इस नेता और उनके लगुए-भगुओं ने न सिर्फ़ सब कुछ लिया, बल्कि दूसरी पार्टी के नेताओं से भी बढ़-चढ़कर लिया। 70 विधानसभा सीटों वाली दिल्ली में 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना डाला। अपने लोगों को इस बड़े पैमाने पर रेबड़ियाँ बाँटने की कोशिश इससे पहले किसी सरकार ने नहीं की थी।
दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी तो मुख्यमंत्री को दोषी ठहराते थे। अपनी सरकार बनी, तो बात-बात पर प्रधानमंत्री को दोषी ठहराने लगे। आए दिन लेफ्टिनेंट गवर्नर से बेमतलब पंगे लेते रहे। नियमों-कानूनों के हिसाब से काम करने में उन्हें अपनी हेठी महसूस होती रही। नतीजतन, जनता ने यह तो नहीं माना कि मोदी उन्हें काम करने नहीं दे रहे, बल्कि यह मान लिया कि केजरीवाल ही एमसीडी में बीजेपी को काम नहीं करने दे रहे।
लिहाजा, लोगों को राजौरी गार्डन विधानसभा उपचुनाव में जब पहला मौका मिला, तब भी केजरीवाल को धूल चटाई। और इस एमसीडी चुनाव में जब दूसरा मौका मिला, तब भी केजरीवाल को धूल चटाई। इसलिए, मोदी की लोकप्रियता में किसे संदेह है, लेकिन एमसीडी चुनाव के नतीजे केजरीवाल के खिलाफ लोगों के गुस्से का विस्फोट हैं।
फिर भी, जो लोग केजरीवाल का डिस्क्रेडिट छीनकर बीजेपी को क्रेडिट देना चाहते हैं, वे नरेंद्र मोदी के अलावा थोड़ा सा क्रेडिट प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी को भी दें, जिनकी जादुई छवि ने दिल्ली के पूर्वांचलियों को पार्टी के पक्ष में लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई।
साथ ही, थोड़ा-सा क्रेडिट राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की समझदारी को भी दें, जिन्होंने एक भी मौजूदा पार्षद को टिकट न देने का अत्यंत जोखिम भरा निर्णय ले लिया। ऐसा रिस्क लेकर अमित शाह ने एमसीडी में बीजेपी के खिलाफ एंटी-इनकम्बेन्सी फैक्टर को शून्य कर दिया और पिछली जीत से भी बड़ी जीत हासिल करने की भूमिका रच दी।
और फिर यह कहना भी जरूरी है कि अगर वार्ड चुनाव में जीत का सेहरा प्रधानमंत्री मोदी के सिर बांधा जा सकता है, तो फिर कांग्रेस की करारी हार का ठीकरा भी उसके अघोषित अध्यक्ष सह उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के सिर फोड़ना चाहिए, जिनके तेजविहीन नेत़ृत्व के खिलाफ बीच चुनाव में अरविंदर सिंह लवली और बरखा शुक्ला ने पार्टी बदल ली।
(देश मंथन, 28 अप्रैल 2017)