अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
अगले सत्र से जेएनयू में प्रवेश लेने वाली लड़कियों की संख्या में खासी गिरावट आ सकती है। पिछले एक महीने में ऐसे कई अभिभावकों से बातचीत हुई, जो अपनी बेटियों को उच्च-शिक्षा के लिए किसी अच्छी यूनिवर्सिटी में भेजना चाहते हैं, लेकिन जेएनयू का नाम आते ही वे काँपने लगते हैं।
दरअसल जेएनयू के भीतर जिस तरह की गतिविधियाँ चल रही हैं और जैसी तस्वीरें वहाँ से बाहर आ रही हैं, उन्हें देखते हुए आम अभिभावकों में गहरी चिंता है। खास कर मीडिया और सियासी दल जिस तरह से वहाँ के हर गलत को सही ठहराने और बढ़ावा देने में जुटे हैं, उससे उन्हें यह आश्वासन भी नहीं मिल पा रहा कि निकट भविष्य में वहाँ के “महिषासुरों” को कोई सबक मिलने वाला है।
एक अभिभावक ने कहा कि बेटियाँ दुर्गा सरीखी शक्ति-स्वरूपा तो हैं, लेकिन कानून के राज में आज वे “महिषासुरों” का “वध” भी नहीं कर सकतीं। और तो और, अभिव्यक्ति की “आजादी” की आड़ में “महिषासुरों” द्वारा किए जा रहे तांडवों पर उँगली तक नहीं उठा सकतीं। विशेष परिस्थितियों में उन्हें समय पर पुलिस की यथोचित मदद भी नहीं मिल सकती, क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन, राजनीतिक दलों और मीडिया की इजाजत के बिना पुलिस कैम्पस में घुस नहीं सकती, किसी को हिरासत में ले नहीं सकती, किसी के खिलाफ जाँच शुरू कर नहीं सकती।
उक्त अभिभावक ने कहा कि जेएनयू से बाहर अपराध की घटनाएँ होने पर पहले एफआईआर होती है, फिर आरोपी अरेस्ट किये जा सकते हैं, फिर जाँच होती है, फिर आरोप सही या गलत पाए जा सकते हैं। लेकिन जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में पुलिस को पहले ऐसे निर्णायक सबूत जुटाने होंगे, जो निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक और फिर पाकिस्तान तक अकाट्य रूप से प्रमाणित किए जा सकें, उसके बाद ही एफआईआर और गिरफ्तारी की जा सकती है।
उन्होंने कहा कि जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में किसी भी जाँच एजेंसी के लिए सबूत जुटाना भी बालू से तेल निकालने के बराबर है। उदाहरण के लिए, पुलिस अगर कोई वीडियो या तस्वीर पेश करेगी, तो पहले तो “महिषासुर-पक्ष” उसका डॉक्टर्ड संस्करण ला कर उसमें “दुर्गा-पक्ष” की ही संलिप्तता साबित करने की कोशिश करेगा। फिर जब वह संलिप्तता साबित नहीं हो पाएगी, तो वह हल्ला मचाने लगेगा कि “दुर्गा-पक्ष” ने ही वीडियो/तस्वीर में डॉक्टरिंग की है। इतना ही नहीं, “महिषासुर-पक्ष” द्वारा वीडियो और तस्वीरों की डॉक्टरिंग एक नई क्रांति का आगाज मानी जाएगी।
उनके मुताबिक, जब तक जेएनयू में धारा 370 से भी अधिक तगड़ा कोई कानून लागू है और उसे स्पेशल स्टेटस हासिल है, तब तक “महिषासुर-मंडली” के बीच अपनी बेटियों को भेजना “भ्रूण-हत्या” से भी बड़ा अपराध है। जिन्हें अपनी बेटियों से वैर होगा, वही बिना किसी हथियार के उन्हें समस्त हथियारों से लैस “महिषासुर-मंडली” से जूझने के लिए भेज सकते हैं।
एक अन्य अभिभावक से हुई बातचीत में दूसरे किस्म की चिंताएँ उभर कर सामने आयीं। उनका कहना था कि जब “प्रगतिशीलता” और “स्त्री-पुरुष बराबरी” का पैमाना “साथ-साथ शराब पीने” और “सेक्स-उच्छृंखलता” को ही मान लिया जाए, तो हमारे लिए इस बात की गुंजाइश भी कहाँ बचती है कि ऐसे संस्थान में हम अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें? उनका कहना था कि बेटियाँ तो दूर, अपने बेटों को भी जेएनयू भेजने से पहले वे हजार बार सोचेंगे।
कई अभिभावक जेएनयू की “डफली टोली” से आक्रांत दिखे। उन्हें देख कर उनके जेहन में जंगलों में पेड़ों की फुनगियों पर बंदूक संभाले माओवादियों और नक्सलियों की छवि घूमने लगती है। उनमें से एक ने कहा कि “डफली टोली” जब मुँह ऊपर उठाए आसमान के सभी चांद-तारों पर थूकना स्टार्ट कर देती है, तो उस “बारिश” की चपेट में सिर्फ वही नहीं आती, बल्कि आसपास के तमाम लोग भी आ जाते हैं।
“डफली टोली” से आक्रांत एक अन्य अभिभावक ने कहा कि भारत की “बर्बादी” के नारे लगाने वालों और मनुवाद से “आजादी” के नारे लगाने वालों की जब धुनें एक हैं, बोल एक हैं, लय एक है, सुर एक है, तो कैसे मान लें कि वे लोग इकट्ठे काम नहीं कर रहे? कैसे मान लें कि देशद्रोह के नारों में कुछ शब्दों का हेर-फेर कर देने से कोई क्रांतिकारी हो जाएगा?
उन्होंने कहा कि भारत की “बर्बादी” चाहने वाले अगर मनुवाद से “आजादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें और मनुवाद से “आजादी” चाहने वाले अगर भारत की “बर्बादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें, तो क्या फर्क पड़ता है कि किसने कौन-से नारे लगाये और किसने कौन-से नारे नहीं लगाए? इससे तो इतना ही समझ आता है कि दोनों का मकसद देश को तोड़ना है और एक ही गुट, एक ही विचार के लोग देश को तोड़ने के लिए अलग-अलग हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। क्षेत्रीय अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए भारत की “बर्बादी” के नारे लगाये जा रहे हैं और जातीय अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए मनुवाद से “आजादी” के नारे लगाये जा रहे हैं।
कुल मिलाकर, जेएनयू में अगर भारत की “बर्बादी” के नारे नहीं लगे होते, तो मनुवाद से “आजादी” के नारों के मायने भी ऐसे न बदल गये होते।
कई अभिभावकों ने साफ-साफ यह आशंका जाहिर की कि वहाँ पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई, आतंकवादी संगठनों, कश्मीरी अलगाववादियों और माओवादियों का पैसा आ रहा है, वरना छात्रों और शिक्षकों के ऐसे विचार का कोई कारण समझ नहीं आता। यह पैसा किस रूप में आ रहा है और कितनी मात्रा में आ रहा है, इसकी जाँच होनी चाहिए। मुमकिन है कि कई छात्र सिर्फ पॉकेट खर्च, शराब की बोतलें और सेक्स-उच्छृंखलताओं की आजादी मिल जाने भर से रास्ता भटक जाते हों, लेकिन देश-विरोधी ज्ञान बाँटने वाले शिक्षक बेहद शातिर होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
बहरहाल, अनेक अभिभावकों से बातचीत के बाद पूरे जेएनयू विवाद को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में समझने का मौका मिला, जो मीडिया में अब तक हुई चर्चाओं से समझ पाना मुश्किल नहीं, नामुमकिन था।
डिस्क्लेमर- यह लेख पूरी तरह से कुछ अभिभावकों की राय के आधार पर लिखा गया है। निजी तौर पर उन अभिभावकों की राय से मैं पूरी तरह निरपेक्ष हूँ। जरूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊँ और यह भी जरूरी नहीं कि मैं उनसे असहमत होऊँ।
(देश मंथन, 14 मार्च 2016)